"विराम"
चलते रहे...काल की धूल में लिपटे पदचिन्ह छोड़ते हुए,
उद्देश्य, उपलब्धि, और आकांक्षाओं की डोर थामे
हम बढ़ते रहे…
पर क्या कभी सोचा—
जिस ओर जा रहे हैं, वह पथ है भी या मृगतृष्णा?
एक क्षण आया—
जब समय की गति रुक-सी गई,
और श्वासों ने कहा,
"अब भीतर झाँक,
बाहर बहुत देख लिया।"
विराम आया—
न कोई शोर, न कोई उत्तर,
केवल मौन…
जिसमें हर प्रश्न तिरता था,
जैसे आत्मा अपने ही प्रतिबिंब से पूछती हो,
"तू कौन है?"
विराम कोई ठहराव नहीं,
यह उस द्वार की देहरी है
जहाँ से ध्यान प्रारंभ होता है।
जहाँ गति समाप्त नहीं होती,
बल्कि एक नव-जागरण की ओर परिवर्तित होती है—
निष्क्रियता नहीं,
बल्कि आत्मिक समाहितता।
जीवन यदि एक मंत्र है,
तो विराम उसका बीजाक्षर है—
जिसमें छिपा है
शून्य का पूर्णत्व।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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