स्पर्श की अनुभूति को,अभिव्यक्ति बन जाने दो
हर पर स्पर्श अंतर,छिपा हुआ एक मर्म ।
सुखद हो या अवांछित ,
प्रणीत इसी संग कर्म ।
मृदुल विमल अंतर्मन ,
स्पंदन भाव बताने दो ।
स्पर्श की अनुभूति को,अभिव्यक्ति बन जाने दो ।।
परिवार समाज कार्यस्थल,
अभिमंडित गिद्ध दृष्टि ।
परिवेश उत्संग अनवरत,
वासनमय वैचारिक वृष्टि ।
तज शर्म संकोच अब,
संचेतना भाव जगाने दो ।
स्पर्श की अनुभूति को,अभिव्यक्ति बन जाने दो ।।
परिचित हो या अनजान,
स्पर्श सदा हो अभिव्यक्त ।
माता पिता अभिभावक सह,
निसंकोच भाव हो व्यक्त ।
रूढ़िवादी जकड़न छोड़,
अब सत्य सामने आने दो ।
स्पर्श की अनुभूति को,अभिव्यक्ति बन जाने दो ।।
अच्छे स्पर्श संग सदैव,
असीम आनंद प्रवाह ।
बुरे स्पर्श पट भाव अर्थ ,
असहजता नित अथाह ।
स्वच्छ सुंदर समाज हित,
निम्न स्पर्श सोच हराने दो ।
स्पर्श की अनुभूति को,अभिव्यक्ति बन जाने दो ।।
कुमार महेन्द्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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