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सतहत्तर पार की जिंदगी

सतहत्तर पार की जिंदगी

जय प्रकाश कुवंर
उम्र जिसकी सतहत्तर पार हो गयी है।
शरीर जिंदा है पर उसकी जिंदगी मर गयी है।।
यहाँ आकर एक अद्भुत पड़ाव है।
अब स्वत: न कहीं आव है, न जाव है।।
शरीर का बोझ अब न ढोया जा रहा है।
हित साथी अब कोई मिलने नहीं आ रहा है।।
कुछ घरों में तो चौथी पीढ़ी भी आ गयी है।
पर बुजुर्गों की जिंदगी, कोने में सिमट गयी है।।
न कोई बात करता है, न साथ बैठता है।
औलादों को कौन कहे, पोती पोता भी अब ऐंठता है।।
दो जून की रोटी भी अब जिंदगी पर एहसान है।
ऐसे जीने से अब, यह जीवन परेशान है।।
चंद घड़ी हंसते नाचते फोटो खिंचवाने से क्या होता है।
कैमरे के सामने से हटते हीं, बुढ़ों का मन रोता है।।
ऐसा करना भी, एक दिखावे की निशानी है।
बुजुर्गों का दिल कोई पढ़ नहीं सकता, उन्हें क्या परेशानी है।।
एक तो एकाकी, उपर से छुपे रोग भी उभर आते हैं।
जिंदगी के इस मोड़ पर उन्हें, पीड़ा देकर तड़पाते हैं।।
जीवन था सुनहरा, जब तक सबका बचपन था।
उसके बाद बोझ और फिक्र बढ़ा जब तक यह पचपन था।।
अब तक जो जिंदा रहा और, सतहत्तर पार हो गया।
उसका जीवन समझ लो, दुखों का पहाड़ हो गया।।
इस बेरहम दुनियां से जो, चलते फिरते निकल गया।
झूठी आंसू बहाने वालों से, उसे निजात मिल गया।।
सतहत्तर पार उम्र तो असल साथ और सहारे की होती है,
जिसका हम सब झूठा दंभ भरते हैं।
पर बिडम्बना यह है कि, इसी उम्र में हित साथी और,
औलाद, पत्नी, पोती पोता, सभी अपने से अलग करते हैं।।
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