शप्त पथ की विवशताएँ कहानी कहती गईं
डॉ रामकृष्ण मिश्र
शप्त पथ की विवशताएँ कहानी कहती गईंऔर मन अविकल व्यथा एकांत सा सुनता रहा।।
आँसुओं में पिरोई थी गई जिनकी भोतिकी
उन अपाहिज भावनाओं में न थी प्रौद्योडिकी।
आपरीक्षित आचरण की खूबियों में जो रमा
जाल के धागे समेटे मौन हो बुनता रहा।।
पत्थरों को राग की बारीकियों का क्या पता
हवाओं को बाँध सकती है कभी कोई लता।
सिसकियों का काव्य मनहर कब हुआ अनुकूल है
सीपियों के बहाने लघु शंख ही चुनता रहा।।
किनारों की चुप्पियों से पूछती हैं जब नदी
भा रही कितना तुम्हें संजीदगी की यह शदी।
अब गली में नहीं दिखता है कही उठता धुआँ
मानवी अनुभव अकेला ही सुलग जलता रहा।। 72
डा रामकृष्ण
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