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पेट-पुरातन राजनीति

पेट-पुरातन राजनीति

सत्येन्द्र कुमार पाठक
एक समय की बात है, हमारे शरीर के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण अंग—जैसे हाथ, पैर, मुँह, कान, आँखें और मस्तिष्क—एक गहरे विचार-मंथन में जुटे थे। उनका यह मंथन एक ही विषय पर केंद्रित था: पेट। हाथ ने अपनी शिकायत रखते हुए कहा, "देखो, हम दिन-रात कड़ी मेहनत करते हैं, तभी तो यह पेट भर पाता है। पर बदले में यह पेट हमें क्या देता है? कुछ नहीं! यह तो बस बैठा रहता है और खाता है।" आँख ने भी अपनी सहमति जताई, "बिल्कुल सही! हम सभी इसका बोझ ढोते हैं। सुबह से शाम तक इसे भोजन जुटाने में लगे रहते हैं।" कान ने भी अपनी राय दी, "यह पेट तो बस लेने वाला है, देने वाला नहीं। कभी हमें इसकी आवाज़ सुनाई देती है तो कभी बस इसकी माँगें।" पैर ने तो गुस्से में यहाँ तक कह दिया, "मैं आज से इसे लात मारूँगा! देखें कैसे चलता है यह बिना हमारी मदद के।" और फिर, मस्तिष्क, जो इन सबका मुखिया और सबसे बुद्धिमान माना जाता था, उसने भी अपनी अंतिम मुहर लगा दी, "मैं आज से इस पेट के बारे में सोचना बंद करता हूँ। देखें, बिना किसी कमाई के यह कैसे खाएगा और कैसे अपना गुज़ारा करेगा!"यह सारी गोपनीय मंत्रणा किसी तरह पेट तक पहुँच गई। पेट ने सब सुना, लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उसने मन ही मन तय कर लिया, "ठीक है, मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा। मैं चुप रहूँगा और देखूँगा कि क्या होता है।" फिर क्या था! अगले तीन दिनों तक किसी ने पेट को पूछा तक नहीं। उसे न तो कोई भोजन दिया गया और न ही कोई उसका हालचाल पूछने आया। बेचारा पेट भूखा रहा, और सबसे ज़्यादा उसे इस अवहेलना और अपमान का घुटना महसूस हुआ। लेकिन पेट की इस खामोशी और उसकी अनदेखी ने धीरे-धीरे उसके विरोधियों में खलबली मचानी शुरू कर दी।
पहले दिन, हाथ और पैरों में हल्की कमज़ोरी महसूस हुई। दूसरे दिन, आँखों को देखने में दिक्कत होने लगी और कानों को सुनाई देना कम हो गया। तीसरे दिन तक तो स्थिति और भी बदतर हो गई। हाथ इतने कमज़ोर हो गए कि कोई काम नहीं कर पाते थे, पैर लड़खड़ाने लगे, आँखों की रोशनी धूमिल हो गई, कानों को पूरी तरह सुनाई देना बंद हो गया और मस्तिष्क की सोचने की शक्ति क्षीण होने लगी। सबने महसूस किया कि उनकी ताकत और कार्यक्षमता कम हो रही है, और इसका सीधा संबंध पेट से था।
जब सबने देखा कि उनकी हालत बिगड़ रही है और उनका अस्तित्व ही खतरे में है, तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। अब वही हाथ, पैर, मुँह, कान, आँखें और मस्तिष्क गिड़गिड़ाने लगे। उन्होंने पेट को मनाना शुरू किया। हाथ बोले, "हम माफ़ी चाहते हैं पेट, तुम ही हमारी शक्ति का आधार हो।" पैर बोले, "तुम्हारे बिना हम चल नहीं सकते।" मस्तिष्क ने कहा, "हमने बड़ी गलती की, तुम्हारे बिना हम सोच भी नहीं सकते।" पेट, जो स्वभाव से शांत और सहिष्णु था, ने उनकी बातें मान लीं, और तब जाकर उन्हें शांति मिली। सबको समझ आ गया था कि पेट भले ही सीधा-सादा और कमज़ोर दिखता हो, पर उसकी भूमिका कितनी अहम है और वह पूरे शरीर का आधारस्तंभ है।
आज की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। सत्ता में बैठे लोग, जो खुद को शरीर के मुखिया समझते हैं—ठीक वैसे ही जैसे मस्तिष्क या हाथ—अक्सर जनता को, जो पेट की तरह बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने में लगी रहती है, उपेक्षित समझते हैं। वे सोचते हैं कि जनता बस वोट देने के लिए है, और उनसे उन्हें कोई ख़ास सहायता या लाभ नहीं मिलता। वे अपनी नीतियों और निर्णयों में जनता की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करते हैं, ठीक वैसे ही जैसे अंगों ने पेट को अनदेखा किया। उन्हें लगता है कि वे जनता के बिना भी अपना काम चला सकते हैं और सत्ता सुख भोग सकते हैं।लेकिन इतिहास गवाह है, और हमारे शरीर का यह उदाहरण भी इस बात का प्रमाण है, कि जब पेट भूखा रहता है, तो पूरा शरीर बीमार पड़ जाता है। जब जनता त्रस्त होती है, जब उनकी बुनियादी ज़रूरतें पूरी नहीं होतीं, और जब उनकी समस्याओं को अनसुना किया जाता है, तो पूरी व्यवस्था डगमगाने लगती है। ठीक वैसे ही जैसे पेट के भूखे रहने पर हाथ, पैर और मस्तिष्क कमज़ोर पड़ गए, वैसे ही जनता की अनदेखी और उनके असंतोष से सरकारें लाचार हो जाती हैं, उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है, और अंततः उनका पतन निश्चित हो जाता है।अंत में, जब स्थिति इतनी बिगड़ जाती है कि कुर्सी खतरे में पड़ जाती है और सत्ता पर संकट के बादल छा जाते हैं, तब यही राजनेता जनता-जनार्दन को मनाने निकल पड़ते हैं। वादों की झड़ी लगती है, लोक-लुभावन घोषणाएँ होती हैं, और हर तरह से जनता को खुश करने की कोशिश की जाती है, ठीक वैसे ही जैसे अंगों ने पेट को मनाया था। और जब जनता, अपने उदार स्वभाव से, उन्हें फिर से मौका देती है, तभी उन्हें "शांति" मिलती है और वे फिर से सत्ता सुख भोग पाते हैं।यह हमारी पेट-पुरातन राजनीति का एक कटु सत्य है, जहाँ "पेट" यानी जनता की भूमिका को तब तक नहीं समझा जाता जब तक कि वह अपनी "हड़ताल" पर न चला जाए, जब तक कि उसका असंतोष एक बड़े आंदोलन का रूप न ले ले। यह एक ऐसा चक्र है जो बार-बार दोहराया जाता है, और यह हमें यह सिखाता है कि किसी भी व्यवस्था में बुनियादी घटकों की उपेक्षा अंततः पूरे ढाँचे को कमज़ोर कर देती है। यह व्यंग्य हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम अपनी गलतियों से सीखते हैं, या इतिहास खुद को दोहराता रहता है।


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