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दंवनी और मेंहिया बैल

दंवनी और मेंहिया बैल

जय प्रकाश कुवंर
आज हम २१ वीं शताब्दी के तीसरे दशक से गुजर रहे हैं। आज के समय में कृषि का काम लगभग मशीनों द्वारा हो रहा है। फसलों का दंवायी, मंड़ायी अब ट्रैक्टर, थ्रैशर तथा हार्वेस्टर से होता है। आज कल तो भारतवर्ष में अनेक राज्यों में स्थिति ये हो गयी है कि वहाँ अब फसलों की केवल बाली मशीन द्वारा काट ली जाती है और डंठल को खेत में ही जला दिया जाता है। बाद में उस इकत्रित बाली की मशीन में ही दंवायी कर अन्न सुरक्षित रख लिया जाता है।
फसलों की कटाई, दंवायी , मंड़ायी और अन्न इकट्ठा करने का काम २० वीं शताब्दी के लगभग सत्तर के दशक तक गाँव देहात में मानवीय संसाधनों से होता था। इसमें बैलों की अहम भूमिका होती थी। किसानों द्वारा हाथ से फसल की कटाई करने के बाद उसे बोझ के रूप में बांधकर खलिहान में इकट्ठा किया जाता था। तब हरेक फसल की कटाई डंठल के जड़ से की जाती थी। उन दिनों केवल बाली काटने की प्रथा नहीं थी। अन्न और डंठल दोनों की समान उपयोगिता उन दिनों थी। अन्न जहाँ आदमी के खाने के काम आता था, वहीं डंठल का उपयोग पशुओं के चारा के रूप में होता था।
खलिहान में इकत्रित बोझों के सुखकर कड़ा हो जाने के बाद उसकी बैलों के माध्यम से दंवनी होती थी। दंवनी के लिए खलिहान में लकड़ी अथवा बांस का एक खंभा अथवा मेंह गाड़ा जाता था। फिर उस खंभे के इर्दगिर्द चारों तरफ फसल के बोझों को खोलकर फैलाया जाता था। अब गृहस्थ के फसल के पैमाने के हिसाब से दंवनी के लिए बैलों की जरूरत पड़ती थी। छोटे गृहस्थ की दंवनी ३-४ बैलों से हो जाती थी। परंतु बड़े गृहस्थ के लिए ७-८ बैलों की जरूरत पड़ती थी। इन बैलों को एक मोटे रस्सी के द्वारा एक छोर से दूसरे छोर तक सीरीज में जोड़कर बांधा जाता था और रस्सी का शुरुआती हिस्सा गाड़े हुए खंभे अथवा मेंह में इस तरह से बांधा जाता था कि जब बैलों को गोलाई में घुमाया जाय, उस समय खंभे में बंधी हुई रस्सी भी घुमती रहे। पाट से बनी हुई इस रस्सी को दंवनी का रस्सी कहा जाता था। यह मोटे रस्सी के रूप में होती थी जिसमें आवश्यकता अनुसार बैलों को जोतने के लिए उनके गर्दन में बांधने हेतु थोड़ी पतली रस्सी की डोरी बंधी होती थी।
दंवनी के लिए इकत्रित बैलों में से सबसे बुजुर्ग बैल, जो ज्यादा तेज नहीं चल सके, उसे खंभे के सबसे नजदीक रखा जाता था। और सबसे कम उम्र का बैल, जो खुब तेज चलता हो, उसे सबसे अंतिम छोर पर रखा जाता था।दंवनी चलाने के लिए कोई व्यक्ति अपने हाथ में एक लकड़ी का डंडा लेकर बैलों के पीछे पीछे बैलों को हांकते हुए चलता रहता था। चूंकि दंवनी में जुते बैलों को गोलाई में घुमाया जाता था, इससे उनके पैरों के नीचे रखे गए फसल की दंवायी मंड़ायी हो जाती थी और डंठल टूट कर एवं बैलों के खुर के नीचे कुचल कर भुसा बन जाता था, तथा अनाज नीचे झड़कर भुसा के साथ जमीन पर फैल जाता था। दंवनी में जुते खंभे अथवा मेंह के सबसे नजदीकी बैल को मेंहिया बैल कहा जाता था। वह अन्य बैलों की तुलना में घुमता अथवा चक्कर धीरे धीरे लगाता था और अपने पैरों के नीचे पड़े अन्न तथा पुआल को ज्यादा खाता था। अन्य बैलों को तेज चक्कर लगाने के चलते खाने का अवसर कम मिलता था। अब डंठल टूट कर खुब महीन हो जाने पर दंवनी खोल दिया जाता था और ओसवनी करके भुसा तथा अन्न अलग अलग कर लिया जाता था। इस प्रकार से उन दिनों फसल की दंवायी, मंड़ायी, बैलों द्वारा दंवनी के माध्यम से होती थी और अन्न तथा भूसा इकट्ठा किया जाता था।
इस परंपरागत विधि से फसल की दंवायी, मंड़ायी का सिलसिला रबी और खरीफ, सभी फसल के समय चलता रहता था। उस समय किसानों और गृहस्थों के लिए रबी फसल के समय दंवनी के सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। खरीफ फसल के समय धान की इस विधि से दंवायी, मंड़ायी के अलावा उसके डंठल की पिटाई, झड़ाई करके भी अन्न अलग किया जाता था।
दंवनी में काम में लगाये गए मेंहिया बैल के नाम पर आज भी मंद गति से चलने वालों तथा अनावश्यक रूप से काम से ज्यादा पेट भरने वालों तथा बोलने वालों को मेंहिया बैल जैसा संबोधित किया जाता है।


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