"नक़ाबों की तहें"
इस दौर मेंचेहरों का अभाव नहीं,
पर इंसान ग़ायब है कहीं।
हर मुस्कान के पीछे
चमकती है कोई रणनीति,
हर हाथ मिलाने में
दबी होती है कोई गिनती,
नज़रें मिलती हैं,
पर दिल ओझल हैं।
कब से खोल रहा हूँ
इन नक़ाबों की परतें,
हर तह के नीचे
एक और चेहरा मिलता है,
पर इंसान... कहीं खो गया है।
कभी आँखें पूछती थीं हालचाल,
अब निगाहें भी
दौड़ में थकी हुई लगती हैं।
हर संवाद
जैसे तयशुदा स्क्रिप्ट हो,
हर रिश्ते
जैसे बाजार में खरीदी चीज़ हो।
मैं थक चुका हूँ —
सच की तलाश में,
मनुष्यता की तलाश में,
तपती धूप में
एक छाँव की तलाश में।
पर हर बार
नक़ाब उतारता हूँ…
तो एक और नक़ाब निकल आता है।
शायद अब
चेहरे को नहीं —
रूह को देखना सीखना होगा।
शब्दों को नहीं —
मौन को सुनना होगा।
क्योंकि इस दौर में
इंसान अब
किताबों में ही मिलता है…
हकीकत में नहीं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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