महर्षि कश्यप: वैदिक काल से लेकर पुराण
सत्येन्द्र कुमार पाठक
भारतीय धर्मग्रंथों में महर्षि कश्यप का उल्लेख एक अत्यंत प्रमुख ऋषि के रूप में मिलता है. उन्हें ब्रह्मांड की विभिन्न प्रजातियों का जनक माना जाता है और उनके वंश तथा उनके द्वारा स्थापित संस्कृतियों का वर्णन भारतीय धर्मग्रंथों में विस्तार से मिलता है. ऋग्वेद और बृहदारण्यक उपनिषद के अनुसार, महर्षि कश्यप ब्रह्मा जी के पौत्र और महर्षि मरीचि की पत्नी कंदर्प ऋषि की पुत्री कला के पुत्र थे. संस्कृत में "कश्यप" का अर्थ "कछुआ" होता है, और माइकल विट्ज़ेल जैसे विद्वानों का मानना है कि यह नाम अवेस्तान, सोग्डियन, कुर्दिश और नई फ़ारसी के विभिन्न शब्दों से संबंधित हो सकता है. टोकरियन भाषाओं में भी इसके समान अर्थ वाले शब्द मिलते हैं, जो इसकी प्राचीनता और व्यापकता को दर्शाते हैं. फ्रिट्स स्टाल जैसे विद्वान इसे गैर-इंडो-यूरोपीय शब्द मानते हैं, जो इसके गूढ़ मूल की ओर संकेत करता है.
वैदिक साहित्य में कश्यप
वैदिक साहित्य में महर्षि कश्यप का महत्वपूर्ण स्थान है. उन्हें ऋग्वेद के कुछ सूक्तों, मुख्य रूप से मंडल IX के 9 सूक्तों की रचना का श्रेय दिया जाता है. वे और उनके शिष्यों का परिवार मुख्यतः सोम पावमान ("आत्म-शुद्धिकरण सोम") के लिए सूक्तों के रचयिता हैं, जो सोम यज्ञ के एक महत्वपूर्ण क्षण का प्रतिनिधित्व करता है. अथर्ववेद (1000 ईसा पूर्व) के ब्रह्मांड विज्ञान-संबंधी स्तोत्रों में से एक, उन्नीसवीं पुस्तक में भी कश्यप का उल्लेख मिलता है. उनका नाम प्रसिद्ध व्याकरणविद् पतंजलि के प्राचीन भाष्य पाणिनि के श्लोक 1.2.64 में भी आता है, जो वैदिक व्याकरण और परंपरा में उनकी महत्ता को दर्शाता है.
बौद्ध और प्राचीन ग्रीक संदर्भ
महर्षि कश्यप का उल्लेख केवल हिंदू ग्रंथों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बौद्ध और प्राचीन ग्रीक ग्रंथों में भी उनकी उपस्थिति मिलती है:बौद्ध पाली प्रामाणिक ग्रंथ: दीघ निकाय जैसे बौद्ध पाली प्रामाणिक ग्रंथों में, तेविज्ज सुत्त में बुद्ध और उनके समय के वैदिक विद्वानों के बीच एक चर्चा का वर्णन है. बुद्ध इसमें दस ऋषियों का नाम लेते हैं, उन्हें "प्रारंभिक ऋषि" कहते हैं और उन प्राचीन श्लोकों के रचयिता कहते हैं, जिनमें कस्सप (संस्कृत में कश्यप की पाली वर्तनी) भी शामिल हैं. यह बौद्ध परंपरा में भी उनके सम्माननीय स्थान को दर्शाता है.
कश्मीर का संबंध: कश्मीर नाम को "कश्यप मीरा" या "ऋषि कश्यप की झील" का संक्षिप्त रूप माना जाता है. यह भी कहा जाता है कि यह किसी कश्मीरी या संस्कृत शब्द से आया हो सकता है जिसका अर्थ है "पानी को सुखाना", या "कश्यप मेरु" शब्द से, जिसका अर्थ है कश्यप के पवित्र पर्वत. सिकंदर के अभियान से जुड़े ग्रीस के प्राचीन ग्रंथों में, इस भूमि को "कास्पेरिया" कहा गया है, जो संभवतः "कास्यपमिरा" का संक्षिप्त रूप है. "कास्पापिरोस" शब्द यूनानी भूगोलवेत्ता हेकाताओ के ग्रंथ में और हेरोडोटस में "कास्पाटिरोस" के रूप में आता है. कुछ अन्य ग्रंथों में "कास्पाटिरोस" का नाम "कास्पा-पाइरस" या "कश्यप-पुरा" (कश्यप का शहर) के समान हो सकता है.
मुल्तान और सिंधु: सिंध शहर मुल्तान (अब पाकिस्तान में), जिसे मूलस्थान भी कहा जाता है, की व्याख्या कुछ कहानियों में वैकल्पिक रूप से कश्यपपुर के रूप में की गई है, जिसका संबंध कश्यप से जोड़ा जाता है. फिर भी एक और व्याख्या सिंध क्षेत्र में कश्यप को सिंधु नदी के रूप में जोड़ने की है. हालांकि, इन व्याख्याओं और मुल्तान के कश्यपपुर के रूप में कश्मीर से संबंधों पर सवाल उठाए गए हैं, फिर भी यह कश्यप के प्रभाव क्षेत्र की व्यापकता को दर्शाता है. पुराणों और महाकाव्यों में कश्यप
कश्यप का उल्लेख कई हिंदू ग्रंथों, पुराणों और महाकाव्यों में किया गया है. हालांकि, विभिन्न ग्रंथों में कश्यप से संबंधित कहानियाँ व्यापक रूप से असंगत हैं, और कई को प्रतीकात्मक माना जाता है.
विवाह और संतान: उदाहरण के लिए, रामायण में, उनका विवाह दक्ष की आठ बेटियों से हुआ है, जबकि महाभारत और विष्णु पुराण में उनका तेरह बेटियों से विवाह बताया गया है. हिंदू ग्रंथ विष्णु पुराण में कश्यप द्वारा विवाहित तेरह बेटियों के कुछ नाम महाभारत में मिली सूची से अलग हैं. यह विविधता इस बात को दर्शाती है कि कश्यप का चरित्र समय के साथ विकसित हुआ और विभिन्न क्षेत्रीय तथा सांप्रदायिक परंपराओं में भिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया.
वंश परंपरा: कुछ ग्रंथों में कश्यप का वर्णन मरीचि के पुत्र के रूप में किया गया है, जो सौर वंश के पूर्वज थे, जो ब्रह्मावर्त के दूसरे राजा उत्तमपद के समकालीन थे और जिन्होंने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति की बेटियों से विवाह किया था. अन्य में उनके द्वारा ब्रह्मावर्त के अंतिम राजा दक्ष प्रजापति की बेटियों से विवाह करने का उल्लेख है. यह विभिन्न वंशावलियों का संकेत देता है और संभवतः विभिन्न पौराणिक परंपराओं के संगम को दर्शाता है.
कश्मीर घाटी का जल निकासी: पुराणों में कहा गया है कि कश्यप ने कश्मीर घाटी को रहने योग्य बनाने के लिए उसका जल निकाला था. कुछ लोग इस किंवदंती की व्याख्या बौद्ध मंजुश्री द्वारा नेपाल और तिब्बत को जल से खाली करने की किंवदंती के समानांतर करते हैं, जिसमें "जल निकासी" विचारों और सिद्धांतों को सिखाने, अज्ञानता के स्थिर पानी को हटाने और घाटी में शिक्षा और सभ्यता का विस्तार करने का एक रूपक है. यह कश्यप को एक महान सभ्यता निर्माता और ज्ञान के प्रसारक के रूप में चित्रित करता है.
कश्यप की पत्नियां और उनकी संतानें
भारतीय परंपरा के पुराणों और महाकाव्यों में कश्यप और उनकी वंशावली का कई बार उल्लेख है. प्रारंभिक काल में पृथ्वी दो द्वीप वाली बनी और बाद में सात द्वीपों वाली बन गई. ब्रह्मा ने समुद्र में और धरती पर तरह-तरह के जीवों की उत्पत्ति की और अपने मानस पुत्रों को जन्म दिया. ब्रह्माजी के मानस पुत्र मरीचि की पत्नी कंदर्प ऋषि की पुत्री कला के पुत्र ऋषि कश्यप थे, जिन्हें अनिष्टनेमी के नाम से भी जाना जाता है.
प्रजापति दक्ष की विभिन्न पुत्रियां ऋषि कश्यप की पत्नियां थीं. पुराणों और स्मृति ग्रंथों के अनुसार, ऋषि कश्यप की 17 पत्नियां थीं: अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, तिमि, विनीता, कद्रू, पतंगी, यामिनी, और विश्वा. विष्णु पुराण में, कश्यप ने दक्ष की तेरह बेटियों से विवाह किया: अदिति, दिति, कद्रू, दनु, अरिष्टा, सुरसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, विश्वा और मुनि. जबकि महाभारत में, 13 पत्नियों के नाम अदिति, दिति, कला, दानयुस, दनु, सिंहिका, क्रोध, पृथा, विश्वा, विनता, कपिला, मुनि और कद्रू हैं.
विष्णु पुराण और वायु पुराण में, कश्यप को दक्ष की विभिन्न पुत्रियों से देवताओं, दानवों, यक्षों, दैत्यों और सभी जीवित प्राणियों का पिता माना जाता है. उनकी प्रमुख पत्नियों और उनकी संतानों का विवरण इस प्रकार है:
अदिति: अदिति से विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) पुत्र थे. अदिति के पुत्र आदित्य एवं देवता का स्थान हिमालय के उत्तर में था. अदिति पुत्रों ने आदित्य संस्कृति और इंद्र ने देव संस्कृति की स्थापना की. यह संस्कृति ज्ञान, धर्म और दैवीय व्यवस्था पर केंद्रित थी, और इंद्र के नेतृत्व में देवों ने ब्रह्मांडीय संतुलन बनाए रखा.
दिति: दिति के पुत्रों में हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष एवं सिंहिका पुत्री हुई थी. हिरण्याक्ष ने दैत्य संस्कृति की स्थापना की. दैत्य संस्कृति का स्थान हिमालय के दक्षिण में था. श्रीमद्भागवत के अनुसार, इन 3 संतानों के अलावा दिति के गर्भ से 49 अन्य पुत्रों का जन्म होने के कारण मरुन्दण ने मरुंड संस्कृति हुई थी. दैत्यराज हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद थे. दैत्य शक्ति और महत्वाकांक्षा के लिए जाने जाते थे.
दनु: ऋषि कश्यप को उनकी पत्नी दनु के गर्भ से द्विमुर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अरुण, अनुतापन, धूम्रकेश, विरुपाक्ष, दुर्जय, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और विप्रचिति आदि 61 महान पुत्रों की प्राप्ति हुई. दनु के पुत्रों ने दानव संस्कृति की स्थापना की थी. दानव मायावी शक्तियों और छल-कपट का उपयोग करते थे.
काष्ठा: रानी काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए थे. काष्ठा के पुत्रों ने पाशुपत संस्कृति की स्थापना की, जो पशुपालन और प्रकृति के सहजीवन पर केंद्रित थी. अरिष्टा: अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए. अरिष्टा के पुत्रों ने गंधर्व संस्कृति की स्थापना की, जो संगीत, नृत्य, गायन और कलाओं पर केंद्रित थी.सुरसा: रानी सुरसा से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए. सुरसा के पुत्रों ने राक्षस संस्कृति की स्थापना की, जो अक्सर क्रूरता और मायावी शक्तियों से जुड़ी थी.इला: इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ. इला के पुत्रों ने वनस्पति संस्कृति की स्थापना की, जो प्रकृति संरक्षण, कृषि और वनों के महत्व पर केंद्रित थी.मुनि: मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं. अप्सराओं ने अप्सरा संस्कृति की स्थापना की, जो सौंदर्य, कला, नृत्य और भोग विलास से संबंधित थी.क्रोधवशा: कश्यप की क्रोधवशा रानी ने सांप, बिच्छू आदि विषैले जंतु पैदा किए. क्रोधवशा के पुत्रों ने नाग संस्कृति की स्थापना की.ताम्रा: ताम्रा ने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को अपनी संतान के रूप में जन्म दिया. ताम्रा के पुत्रों ने पक्षी संस्कृति की स्थापना की.सुरभि: सुरभि ने भैंस, गाय तथा दो खुर वाले पशुओं की उत्पत्ति की. रानी सरसा ने बाघ आदि हिंसक जीवों को पैदा किया. यह पशुपत संस्कृति से भी संबंधित मानी जाती है.तिमि: तिमि ने जलचर जंतुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया. तिमि के पुत्रों ने जंतु संस्कृति की स्थापना की.
विनीता: रानी विनीता के गर्भ से गरूड़ (विष्णु का वाहन) और वरुण (सूर्य का सारथी) पैदा हुए. गरुड़ ने गरुड़ संस्कृति और वरुण ने सारथी संस्कृति की स्थापना की.कद्रू: कद्रू की कोख से बहुत से नागों की उत्पत्ति हुई, जिनमें प्रमुख 8 नाग थे - अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक. कद्रू के पुत्रों ने नाग संस्कृति की स्थापना की.
पतंगी: रानी पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ.यामिनी: यामिनी के गर्भ से शलभों (पतंगों) का जन्म हुआ.इसके अतिरिक्त, ब्रह्माजी की आज्ञा से प्रजापति कश्यप ने वैश्वानर की 2 पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. उनसे पौलोम और कालकेय नाम के 60 हजार रणवीर दानवों का जन्म हुआ था, जो कालांतर में निवात कवच के नाम से विख्यात हुए.
कश्यप के पुत्रों द्वारा स्थापित प्रमुख संस्कृतियाँ और उनके प्रधान देवता
भू स्थल पर ऋषि कश्यप के विभिन्न पुत्रों ने देवसंस्कृति, आदित्य संस्कृति, दैत्य संस्कृति, दानव संस्कृति, पाशुपत संस्कृति, नाग संस्कृति, गंधर्व संस्कृति, अप्सरा संस्कृति, वनस्पति संस्कृति, पक्षी संस्कृति, राक्षस संस्कृति, जंतु संस्कृति, गरुड़ संस्कृति, सारथी संस्कृति आदि की स्थापना की थी. इस प्रकार, महर्षि कश्यप को भारतीय पौराणिक कथाओं में सृष्टि के एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में देखा जाता है, जिनकी संतानें विविध रूपों में ब्रह्मांड में व्याप्त है
कश्यप-पुत्रों द्वारा स्थापित इन संस्कृतियों और उनके प्रधान देवताओं का विस्तृत विवरण यहाँ दिया गया है:
1. आदित्य संस्कृति (देव संस्कृति) संस्थापक: अदिति के पुत्र, जिनमें इंद्र, विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन) प्रमुख थे.कार्य: इन्होंने हिमालय के उत्तर में देवों का स्थान स्थापित किया. आदित्य संस्कृति ने ज्ञान, धर्म और दैवीय व्यवस्था पर जोर दिया, जबकि इंद्र के नेतृत्व में देव संस्कृति ने प्राकृतिक शक्तियों और यज्ञीय कर्मकांडों के माध्यम से ब्रह्मांडीय संतुलन बनाए रखने का कार्य किया.
प्रधान देवता: इस संस्कृति में अदिति के पुत्रों की प्रधानता थी, जिन्हें आदित्य कहा जाता है. इनमें इंद्र (देवताओं के राजा, वर्षा और युद्ध के देवता), सूर्य (विवस्वान, सविता - प्रकाश और ऊर्जा के देवता), वरुण (जल और नैतिक व्यवस्था के देवता), मित्र (संधि और मित्रता के देवता), पूषा (समृद्धि और यात्रा के देवता) और त्रिविक्रम (भगवान वामन) (भगवान विष्णु का अवतार) प्रमुख थे. ये सभी वैदिक देवमंडल का प्रतिनिधित्व करते थे, जहाँ प्रकृति की शक्तियों को देव रूप में पूजा जाता था और यज्ञों के माध्यम से उनकी स्तुति की जाती थी.
2. दैत्य संस्कृति संस्थापक: दिति के पुत्र, विशेष रूप से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष. कार्य: इन्होंने हिमालय के दक्षिण में दैत्य संस्कृति की स्थापना की. दैत्य अपनी शक्ति, महत्वाकांक्षा और अक्सर देवताओं के साथ संघर्ष के लिए जाने जाते थे. उनका मुख्य कार्य अपनी शक्ति का विस्तार करना और भौतिकवादी सुखों की प्राप्ति करना था. हिरण्यकश्यप के पुत्रों में प्रह्लाद जैसे भक्त भी हुए, जिन्होंने दैत्य परंपरा के भीतर ही भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया. दिति के 49 अन्य पुत्रों से मरुंड संस्कृति का भी जन्म हुआ.प्रधान देवता: दैत्य संस्कृति में प्रधानता शक्ति और भौतिकवादी समृद्धि की थी. हालांकि वे देवताओं के विरोधी थे, लेकिन उनके भीतर कुछ ऐसे भी थे जो भगवान विष्णु के भक्त थे, जैसे प्रह्लाद. सामान्यतः, दैत्य किसी एक विशिष्ट देवता की पूजा नहीं करते थे, बल्कि अपनी स्वयं की शक्ति और महत्वाकांक्षा को सर्वोच्च मानते थे. कुछ दैत्य विभिन्न देवताओं से वरदान प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या करते थे, जिसका उपयोग वे अपनी शक्ति बढ़ाने में करते थे.
3. दानव संस्कृति संस्थापक: दनु के 61 पुत्र, जिनमें स्वर्भानु, वृषपर्वा, विप्रचिति आदि प्रमुख थे.कार्य: दनु के पुत्रों ने दानव संस्कृति की स्थापना की. दानव भी दैत्यों की तरह शक्तिशाली थे, लेकिन वे अक्सर मायावी शक्तियों और छल-कपट का उपयोग करते थे. वे विभिन्न कलाओं और शिल्पों में भी निपुण थे. ब्रह्माजी की आज्ञा से कश्यप ने वैश्वानर की पुत्रियों पुलोमा और कालका से विवाह किया, जिनसे पौलोम और कालकेय नामक 60 हजार दानव पैदा हुए, जो बाद में निवात कवच के नाम से प्रसिद्ध हुए.प्रधान देवता: दानव भी शक्ति और मायावी क्षमताओं पर केंद्रित थे. वे भी अक्सर देवताओं के विरोधी होते थे. कुछ दानव शिव या ब्रह्मा जैसे देवताओं की तपस्या कर विशेष शक्तियाँ प्राप्त करते थे, लेकिन उनकी पूजा का मुख्य उद्देश्य स्वयं की श्रेष्ठता स्थापित करना होता था. वे भी दैत्यों की तरह किसी एक केंद्रीय देवता के बजाय अपनी शक्ति और उद्देश्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते थे.
4. पाशुपत संस्कृति संस्थापक: काष्ठा के पुत्र. कार्य: काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए. इनके पुत्रों ने पाशुपत संस्कृति की स्थापना की, जो पशुपालन और प्रकृति के साथ सहजीवन पर केंद्रित थी.प्रधान देवता: इस संस्कृति में पशुओं के स्वामी भगवान शिव (पशुपतिनाथ) की आराधना की संभावना अधिक थी.
5. गंधर्व संस्कृति संस्थापक: अरिष्टा के पुत्र. कार्य: अरिष्टा से गंधर्व पैदा हुए. इन्होंने गंधर्व संस्कृति की स्थापना की, जो संगीत, नृत्य, गायन और कलाओं पर केंद्रित थी. गंधर्व अक्सर देवताओं के दरबार में मनोरंजक और संदेशवाहक के रूप में कार्य करते थे.प्रधान देवता: गंधर्व संस्कृति में संगीत, नृत्य और कलाओं की प्रधानता थी. वे अक्सर देवताओं, विशेषकर इंद्र के दरबार से जुड़े होते थे, जहाँ वे मनोरंजन करते थे. उनके लिए कोई एक विशिष्ट प्रधान देवता नहीं था, बल्कि वे कलाओं के संरक्षक देवों और सरस्वती (ज्ञान और कला की देवी) जैसे देवियों का सम्मान करते थे.
6. राक्षस संस्कृति संस्थापक: सुरसा के पुत्र. कार्य: सुरसा से यातुधान (राक्षस) उत्पन्न हुए. इन्होंने राक्षस संस्कृति की स्थापना की. राक्षस प्रायः अपनी क्रूरता, मायावी शक्तियों और मानवों व देवताओं को कष्ट पहुँचाने के लिए जाने जाते थे.प्रधान देवता: राक्षस संस्कृति में अक्सर शक्ति, युद्ध और आसुरी शक्तियों की प्रधानता थी. वे प्रायः भगवान शिव की उपासना करते थे, क्योंकि शिव को विनाश और संहार का देवता माना जाता है, और कई राक्षस शिव के महान भक्त थे. वे देवी काली या अन्य उग्र देवियों की भी पूजा करते थे, जो शक्ति और विनाश का प्रतिनिधित्व करती हैं.
7. वनस्पति संस्कृति संस्थापक: इला के पुत्र. कार्य: इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली वनस्पतियों का जन्म हुआ. इनके पुत्रों ने वनस्पति संस्कृति की स्थापना की, जो प्रकृति संरक्षण, कृषि और वनों के महत्व पर केंद्रित थी.प्रधान देवता: इसमें किसी एक विशिष्ट देवता की प्रधानता के बजाय प्रकृति की शक्तियों का सम्मान और संरक्षण महत्वपूर्ण था. इसमें पेड़-पौधों और भूमि देवी (पृथ्वी) की पूजा हो सकती थी.8. अप्सरा संस्कृति संस्थापक: मुनि के गर्भ से जन्मी अप्सराएं.कार्य: मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं. इन्होंने अप्सरा संस्कृति की स्थापना की, जो सौंदर्य, कला, नृत्य और भोग विलास से संबंधित थी. अप्सराएं अक्सर देवताओं के दरबार में या स्वर्गिक लोकों में निवास करती थीं.प्रधान देवता: अप्सरा संस्कृति जैसी कला-संबंधित संस्कृतियों में महासरस्वती का सम्मान रहा होगा.
9. नाग संस्कृति संस्थापक: क्रोधवशा और कद्रू के पुत्र. कार्य: क्रोधवशा से सांप, बिच्छू आदि विषैले जंतु पैदा हुए. कद्रू की कोख से बहुत से नागों की उत्पत्ति हुई, जिनमें प्रमुख 8 नाग थे - अनंत (शेष), वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक. इनके पुत्रों ने नाग संस्कृति की स्थापना की, जो पाताल लोक में निवास करने वाले सर्पों और उनके रहस्यमय ज्ञान व शक्तियों से संबंधित थी.
प्रधान देवता: नाग संस्कृति में नाग देवताओं की प्रधानता थी, जिनमें शेषनाग (अनंत), वासुकि, और तक्षक जैसे प्रमुख नागों की पूजा की जाती थी. इन नागों को पाताल लोक का स्वामी और पृथ्वी का धारणकर्ता माना जाता था. कुछ परंपराओं में उन्हें भगवान विष्णु या भगवान शिव से भी जोड़ा जाता है, क्योंकि शेषनाग भगवान विष्णु के शैया हैं और वासुकि शिव के गले में रहते हैं.
10. पक्षी संस्कृति संस्थापक: ताम्रा और पतंगी के पुत्र.कार्य: ताम्रा ने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को जन्म दिया. पतंगी से पक्षियों का जन्म हुआ. इनके पुत्रों ने पक्षी संस्कृति की स्थापना की, जो विभिन्न प्रकार के पक्षियों और उनके प्राकृतिक आवास व विशेषताओं से संबंधित थी.
प्रधान देवता: इस संस्कृति में प्रकृति की शक्तियों का सम्मान और संरक्षण महत्वपूर्ण था.
11. जंतु संस्कृति संस्थापक: तिमि के पुत्र.कार्य: तिमि ने जलचर जंतुओं को अपनी संतान के रूप में उत्पन्न किया. इनके पुत्रों ने जंतु संस्कृति की स्थापना की, जो समुद्री और जलीय जीवों के जीवन और पारिस्थितिकी पर केंद्रित थी.प्रधान देवता: इस संस्कृति में प्रकृति की शक्तियों का सम्मान और संरक्षण महत्वपूर्ण था.12. गरुड़ संस्कृतिसंस्थापक: विनीता के पुत्र गरुड़.कार्य: विनीता के गर्भ से गरुड़ (विष्णु का वाहन) पैदा हुए. गरुड़ ने गरुड़ संस्कृति की स्थापना की, जो महान पक्षियों, वायुमंडलीय शक्तियों और ज्ञान व मुक्ति के प्रतीक से संबंधित थी.
प्रधान देवता: गरुड़ स्वयं भगवान विष्णु के वाहन हैं, इसलिए गरुड़ संस्कृति में स्वाभाविक रूप से भगवान विष्णु की प्रधानता थी. गरुड़ को पक्षियों का राजा और शक्ति, गति तथा निष्ठा का प्रतीक माना जाता है.
13. सारथी संस्कृति संस्थापक: विनीता के पुत्र वरुण.कार्य: विनीता के गर्भ से वरुण (सूर्य का सारथी) पैदा हुए. वरुण ने सारथी संस्कृति की स्थापना की, जो रथ संचालन, यात्रा और गतिशीलता से संबंधित थी.प्रधान देवता: इस संस्कृति में प्रकृति की शक्तियों का सम्मान और संरक्षण महत्वपूर्ण था.
त्रिदेव और त्रिदेवी का व्यापक महत्व
यह समझना महत्वपूर्ण है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश (त्रिदेव) और महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती (त्रिदेवी या महाविद्याएँ) किसी एक कश्यप-पुत्र द्वारा स्थापित "संस्कृति" तक सीमित नहीं थे, बल्कि वे संपूर्ण वैदिक और पौराणिक हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और मूलभूत देवता थे.
ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माता, विष्णु को पालक और संरक्षक, तथा महेश (शिव) को संहारक या रूपांतरण का देवता माना जाता है.ये किसी एक कश्यप-पुत्र द्वारा स्थापित संस्कृति तक सीमित नहीं थे, बल्कि सभी प्रमुख हिन्दू धाराओं और दर्शनों में पूजनीय थे. आदिकाल से ही वैदिक ऋषियों और बाद के पौराणिक काल में विकसित विभिन्न संप्रदायों (जैसे वैष्णव, शैव, शाक्त) में इनकी पूजा होती रही है.देव संस्कृति में निश्चित रूप से विष्णु की प्रधानता थी (आदित्यों में वामन अवतार). शिव की पूजा भी देवों और मनुष्यों दोनों के द्वारा की जाती थी. ब्रह्मा को वेदों का ज्ञाता और यज्ञों का अधिष्ठाता माना जाता था, इसलिए वे वैदिक अनुष्ठानों में भी पूजनीय थे.त्रिदेवी शक्ति की सर्वोच्च देवियाँ हैं, जिन्हें त्रिदेवी के रूप में जाना जाता है, जो क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा की शक्तियाँ मानी जाती हैं.महासरस्वती ज्ञान, विद्या और कला की देवी हैं.महालक्ष्मी धन, समृद्धि, ऐश्वर्य और सौभाग्य की देवी हैं.महाकाली शक्ति, विनाश, समय और मोक्ष की देवी हैं.इन देवियों की पूजा मुख्य रूप से शाक्त परंपरा में होती है, जो हिन्दू धर्म की एक प्रमुख शाखा है. यह शाक्त परंपरा भी किसी एक विशिष्ट 'पुत्र-संस्कृति' से बंधी नहीं थी, बल्कि यह प्राचीन काल से ही शक्ति उपासना के रूप में विद्यमान थी और बाद में एक व्यापक संप्रदाय के रूप में विकसित हुई. अप्सरा संस्कृति जैसी कला-संबंधित संस्कृतियों में महासरस्वती का सम्मान रहा होगा. राक्षस संस्कृति में कुछ राक्षस महाकाली या अन्य उग्र देवियों की भी पूजा करते थे (जैसे रक्तबीज). दैत्य और दानव भी अक्सर शक्ति प्राप्त करने के लिए देवियों की तपस्या करते थे.
कश्यप के पुत्रों द्वारा स्थापित विभिन्न संस्कृतियाँ, इन व्यापक देवताओं के एक विशेष पहलू या अभिव्यक्ति को अपने जीवन में एकीकृत कर सकती थीं, लेकिन ये देवता स्वयं उन विशिष्ट संस्कृतियों से परे, समग्र ब्रह्मांडीय व्यवस्था के संरक्षक माने जाते हैं. यह विविधता भारतीय पौराणिक कथाओं में ब्रह्मांडीय संतुलन और विभिन्न शक्तियों के सह-अस्तित्व को दर्शाती है.
प्राचीन संस्कृति वर्तमान संस्कृति
मूल्य त्याग, वैराग्य, आध्यात्मिकता, समुदाय भौतिकवाद, व्यक्तिवाद, उपभोग, सुख
पारिवारिक इकाई संयुक्त परिवार, सामुदायिक भावना एकल परिवार, व्यक्तिवाद का उदय
अर्थव्यवस्था कृषि-आधारित, आत्मनिर्भरता औद्योगिक और सेवा-आधारित, वैश्विक व्यापार
प्रौद्योगिकी सीमित, हस्तनिर्मित उपकरण अत्यधिक उन्नत, डिजिटल और स्वचालित
संचार मौखिक, व्यक्तिगत, धीमी गति डिजिटल, त्वरित, वैश्विक
शिक्षा गुरु-शिष्य परंपरा, धार्मिक और नैतिक शिक्षा औपचारिक संस्थान, व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा
परिवर्तन की गति धीमी और स्थिर तीव्र और निरंतर
वैश्वीकरण स्थानीय और क्षेत्रीय पहचानों का प्रभुत्व वैश्विक एकीकरण और सांस्कृतिक मिश्रण
प्रकृति से संबंध गहरा जुड़ाव, पूजा और सम्मान उपभोग्य वस्तु के रूप में उपयोग, पर्यावरण चिंताएं
सामाजिक पदानुक्रम कठोर (जैसे जाति व्यवस्था) अधिक लचीला, योग्यता पर आधारित (परंतु चुनौतियां)संक्षेप में, प्राचीन संस्कृति अधिक स्थिर, समुदाय-उन्मुख और आध्यात्मिक थी, जबकि वर्तमान संस्कृति अधिक गतिशील, व्यक्तिवादी, तकनीकी रूप से उन्नत और भौतिकवादी है. दोनों ही संस्कृतियों की अपनी शक्तियाँ और कमजोरियाँ हैं, और कई समाजों में प्राचीन मूल्यों और आधुनिक प्रगति के बीच संतुलन बनाने का प्रयास देखा जा रहा है.
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