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"बदलते राजनीतिक मूल्यों पर सवाल: बिनिता मिश्रा की पीड़ा"

"बदलते राजनीतिक मूल्यों पर सवाल: बिनिता मिश्रा की पीड़ा"

बिहार की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता बिनिता मिश्रा का नाम आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वर्षों से वे न केवल महिला सशक्तिकरण और सामाजिक विकास के कार्यों से जुड़ी रहीं, बल्कि सांस्कृतिक मंचों के माध्यम से बिहार की गौरवशाली परंपरा को भी देश और विदेशों तक पहुंचाने का कार्य करती रही हैं।

बिनिता मिश्रा की पहचान एक निर्भीक, कर्मठ और सच्चे राष्ट्रभक्त के रूप में रही है। उन्होंने हमेशा विचारधारा को प्राथमिकता दी है, सत्ता को नहीं। शायद यही कारण था कि उन्होंने एक समय भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसी विचारधारा-प्रेरित पार्टी से जुड़ाव महसूस किया। वे इस आशा में भाजपा से जुड़ी थीं कि राष्ट्र निर्माण की भावना, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और 'पंच निष्ठा' जैसे आदर्शों को आगे बढ़ाया जाएगा।

लेकिन आज बिनिता मिश्रा के स्वर में पीड़ा है, आश्चर्य नहीं। उनका कहना है – "आज की भाजपा, पहले वाली भाजपा नहीं रही। पहले जहां सुचिता, नैतिकता और विचारधारा की बात होती थी, आज वहां केवल अर्थ और अवसरवाद हावी हो चुका है।"

यह कथन किसी सामान्य कार्यकर्ता का नहीं, बल्कि उस महिला का है जिसने वर्षों तक तन-मन-धन से राष्ट्र और समाज की सेवा की है। यह कथन उस हताशा को दर्शाता है जो एक विचारधारा-प्रेरित कार्यकर्ता तब महसूस करता है, जब उसकी आस्था और विश्वास राजनीति के व्यापार में बदलते देखे जाते हैं।
राजनीति में आदर्शों का क्षरण

राजनीति का उद्देश्य अगर लोकसेवा और राष्ट्रनिर्माण से हटकर केवल सत्ता की प्राप्ति और व्यक्तिगत लाभ रह जाए, तो सबसे पहले विचारधारा की हत्या होती है। बिनिता मिश्रा जैसी कार्यकर्ताओं की वेदना इस सत्य को उजागर करती है कि आज की राजनीति में आदर्शों की जगह सुविधाजनक अवसरवाद ने ले ली है।

वे कहती हैं – "अफसोस होता है, हमने अपने जीवन के इतने बहुमूल्य साल उस सोच के पीछे गंवा दिए, जो अब केवल एक मुखौटा बनकर रह गई है।"

यह वक्तव्य केवल उनके व्यक्तिगत अनुभव की कहानी नहीं, बल्कि हजारों-लाखों सामाजिक कार्यकर्ताओं की उस आंतरिक पीड़ा का प्रतीक है जो अपने सपनों के भारत की कल्पना लेकर राजनीति में आए थे, लेकिन उन्हें केवल सत्ता का दांव-पेंच और समझौते ही देखने को मिले।
सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका

बिनिता मिश्रा जैसी महिलाएं समाज का आइना होती हैं। उनके प्रयासों से न केवल सामाजिक चेतना जागती है, बल्कि पीढ़ियों को प्रेरणा भी मिलती है। जब ऐसे लोग राजनीतिक दलों से मोहभंग की बात करते हैं, तो यह केवल आलोचना नहीं होती, बल्कि चेतावनी होती है कि राजनीति को फिर से अपने मूल्यों की ओर लौटना होगा।
भाजपा और आत्ममंथन की जरूरत

बिनिता मिश्रा का बयान भाजपा जैसी विशाल पार्टी के लिए एक सच्चा आईना है। यह समय है कि पार्टी अपनी जड़ों में झांके और यह मूल्यांकन करे कि क्या वह सचमुच "पार्टी विथ अ डिफरेंस" बनी रह गई है? क्या वह अब भी उन लोगों के लिए घर है जो बिना किसी स्वार्थ के केवल देश की सेवा की भावना से जुड़े थे?

अगर पार्टी को अपनी साख बनाए रखनी है, तो उसे अपने पुराने सच्चे कार्यकर्ताओं की आवाज सुननी होगी – क्योंकि सत्ता बदलती रहती है, लेकिन विचारधारा अगर खो जाए तो पुनर्निर्माण असंभव हो जाता है।
निष्कर्ष

बिनिता मिश्रा की वेदना केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि उन सभी सामाजिक कार्यकर्ताओं की है जो राजनीति में आदर्शों की तलाश में आए थे और अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। यह आलेख उन सभी के लिए एक आवाज है कि राजनीति को फिर से सेवा और सिद्धांतों की ओर मोड़ा जाए।

राजनीति केवल सत्ता का खेल नहीं, बल्कि जन-विश्वास का आईना होती है – और इस आईने को धुंधलाने से रोकने का कार्य सबसे पहले उन्हीं को करना होगा जो कभी इसे चमकाने में सहभागी थे। बिनिता मिश्रा ने साहसपूर्वक उस पीड़ा को स्वर दिया है, जो अक्सर दबा दी जाती है। अब समय है कि देश की राजनीति उस स्वर को सम्मान और आत्ममंथन से सुने।


बिनिता मिश्रा का यह वक्तव्य — "समाजिक कार्यकर्ता कभी राजनेता नहीं हो सकता और नेता कभी समाजसेवी नहीं होता" — न केवल एक साहसिक वक्तव्य है, बल्कि वर्तमान सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य पर एक तीखा व्यंग्य भी है। आज जब राजनीति और समाजसेवा की सीमाएं धुंधली होती जा रही हैं, यह कथन इस बहस को पुनः सतह पर लाता है कि क्या वास्तव में समाजसेवा और राजनीति एक साथ चल सकती है, या फिर दोनों एक-दूसरे के विरोधाभासी मार्ग हैं?


1. समाजिक कार्यकर्ता: सेवा का प्रतीक

समाजिक कार्यकर्ता का लक्ष्य होता है— समाज में बदलाव लाना, समस्याओं को पहचानना और बिना किसी लोभ या लाभ की इच्छा के, निरंतर सेवा करना। वह न किसी पद की लालसा करता है, न किसी प्रचार की। उसके लिए जनहित सर्वोपरि होता है। वह संघर्ष करता है, विरोध सहता है, लेकिन अपने मूल्यों से समझौता नहीं करता।
समाजिक कार्यकर्ता समाज की जड़ तक जाता है।
वह दलित, वंचित, पीड़ित और हाशिए पर खड़े लोगों की आवाज़ बनता है।
उसके लिए न रंगभेद मायने रखता है, न जातिवाद, न धर्म। उसका धर्म है – मानवता।

उदाहरण:
बाबा आमटे ने कुष्ठ रोगियों के साथ जीवन बिताया।
अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया।
मेधा पाटकर ने नर्मदा घाटी के विस्थापितों की लड़ाई लड़ी।

इनमें से किसी ने सत्ता का लोभ नहीं किया, न ही चुनावी राजनीति में प्रवेश किया।


2. राजनेता: सत्ता का केंद्र

राजनेता, चाहे किसी भी दल का हो, एक सत्ता-धारी प्रणाली का हिस्सा होता है। उसका प्रमुख उद्देश्य होता है— चुनाव जीतना, सत्ता में आना, दल को मजबूत करना और अपने विरोधियों को हराना।
चुनाव लड़ना, वोट बैंक बनाना और राजनीतिक समीकरण साधना उसकी प्राथमिकता होती है।
उसकी हर योजना में वोट का गणित छिपा होता है।
वह “जनहित” की बात तो करता है, पर अक्सर वह “दलीय हित” से बंधा होता है।

राजनीति में समाजसेवा एक उपकरण मात्र बन जाती है, लक्ष्य नहीं।
राजनेता समाजसेवा का मुखौटा पहन कर, मंचों से भाषण देता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत से कोसों दूर रहता है।


3. जब समाजसेवी राजनीति में आता है...

ऐतिहासिक उदाहरणों में यह देखने को मिलता है कि जब एक सच्चा समाजसेवी राजनीति में प्रवेश करता है, तो या तो वह व्यवस्था से लड़ते हुए थककर बाहर निकल जाता है या फिर वह स्वयं उसी व्यवस्था का हिस्सा बन जाता है जिसे वह बदलना चाहता था।

कुछ अपवाद जरूर हैं:
महात्मा गांधी – उन्होंने राजनीति को भी सेवा का माध्यम बनाया।
जयप्रकाश नारायण – 'संपूर्ण क्रांति' के जनक, जिन्होंने सत्ता की जगह आंदोलन को चुना।
लेकिन ऐसे उदाहरण उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।

आज की राजनीति में ईमानदारी और सिद्धांत टिक नहीं पाते।


4. नेता समाजसेवी क्यों नहीं हो सकता?
क्योंकि उसका हर कदम PR (public relations) से जुड़ा होता है।
क्योंकि वह योजनाएं बनाता है, लागू नहीं करता।
क्योंकि वह वादे करता है, निभाता नहीं।
क्योंकि उसका कार्यकाल सीमित होता है, लेकिन समाजसेवा असीमित होती है।
क्योंकि सत्ता में रहकर वह जनता से दूर हो जाता है।

नेता का मकसद होता है – सत्ता।
समाजसेवी का मकसद होता है – सेवा।

ये दोनों लक्ष्य कभी मिल नहीं सकते।


5. राजनीति की समाजसेवा बनाम समाजसेवा की राजनीति

आज राजनीति में समाजसेवा एक 'नरेटिव' बन चुकी है – जैसे नेता प्रचार के लिए स्कूल खोलते हैं, अस्पताल बनवाते हैं, योजनाएं लाते हैं – लेकिन ये सब योजनाएं ‘वोट बैंक’ को ध्यान में रख कर होती हैं।
दूसरी ओर, समाजसेवा की राजनीति – यानी जब सेवा करने वाला व्यक्ति सत्तासीन होता है – तो वह दुविधा में आ जाता है:
वह निर्णय ले या सिद्धांतों पर अड़ा रहे?
वह समझौता करे या इस्तीफा दे?

अक्सर ऐसे नेता, सत्ता में आकर असहाय हो जाते हैं।


6. वर्तमान संदर्भ में बिनिता मिश्रा की टिप्पणी का महत्त्व

बिनिता मिश्रा के वक्तव्य का गहरा सामाजिक और राजनैतिक संदर्भ है।
आज हजारों NGOs चुनावी राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।
अनेक नेता ‘समाजसेवा’ के नाम पर अपना चेहरा चमका रहे हैं।
सोशल मीडिया पर समाजसेवा दिखाने की होड़ लगी है।

ऐसे समय में यह कथन सवाल करता है –
"क्या यह सच्ची सेवा है या दिखावा?"
"क्या समाजसेवा के मंच राजनीति के मंच का सीढ़ी बनते जा रहे हैं?"


7. निष्कर्ष: क्या समाधान है?

इस कथन में एक चेतावनी छिपी है –
समाजसेवियों को राजनीति से दूर रहना चाहिए, जब तक वे पूरी तरह से तैयार न हों।
राजनेताओं को सेवा का वास्तविक अर्थ समझना चाहिए – दिखावे से परे जाकर।
समाज को भी समझना होगा कि
राजनेता को वोट सेवा के आधार पर दें, प्रचार के आधार पर नहीं।
समाजसेवक को सम्मान दें, लेकिन उसे राजनीति में धकेलें नहीं।

बिनिता मिश्रा का यह कथन समाज और सत्ता के द्वंद्व को उजागर करता है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि आज की राजनीति कितनी खोखली हो चुकी है और समाजसेवा कितनी कठिन।
समाजिक कार्यकर्ता और राजनेता – दोनों की भूमिकाएं समाज में महत्वपूर्ण हैं, लेकिन जब कोई अपनी मर्यादा लांघता है, तो दोनों ही नष्ट हो जाते हैं – न नेता नेता रह पाता है, न समाजसेवक सेवक।

इसलिए जरूरी है कि समाज सेवा पवित्र बनी रहे – सत्ता की गंदगी से दूर।


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