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लुका छुपी

लुका छुपी

बुलाते हो लुभाते हो
दिलको कष्ट तुम देते हो।
मगर जब देखते हो
तो क्यों कतराते हो।
न सामने तुम आते हो
न ही चेहरा दिखाते हो।
बस तुम सपनो में ही
तुम आते जाते रहते हो।।


कभी हकीकत को समझो
सपनों की दुनियाँ से निकलो।
तुम्हें सब कुछ नजर आयेगा
चेहरा उसका दिख जायेगा।
फिर दिलमें तेरे और उसके
अलग एहसास जागेंगे।
मोहब्बत का दिलमें फिर
निश्चित अंकुर उपजेगा।।


बहुत तन्हाईयों में रहकर
उदासी में ही जिया हूँ।
और सपनों को सपनों में
सदा ही देखता रहा हूँ।
अब तुमको हकीकत में
प्यार मिलने जा रहा है।
तो क्यों तुम मोहब्बत से
अब भाग रही हो।।


मोहब्बत को अब तक
एक खेल ही समझा है।
जो दिलों से खेलने का
तुम्हारा एक खिलौना है।
माना की तुम सुंदर हो
और हुस्न की मालिक हो।
इसलिए उछल रही हो
पर उम्र ढलते क्या होगा।
तुमने कुछ क्या सोचा है।।


जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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