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"जीवन – संघर्ष से उत्सव की ओर"

"जीवन – संघर्ष से उत्सव की ओर"

मनुष्य का जीवन यदि केवल स्वार्थ, प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिगत उपलब्धियों तक सीमित रह जाए, तो वह अंततः एक थका देने वाला दौड़ बन जाता है — जिसमें न तो आत्मा को शांति मिलती है, न समाज को प्रकाश। किंतु जैसे ही व्यक्ति अपने संकीर्ण अहं से ऊपर उठकर सहानुभूति, सहयोग और सामूहिक हित को प्राथमिकता देना आरंभ करता है, उसी क्षण जीवन का स्वरूप रूपांतरित होने लगता है।

यह रूपांतरण मात्र एक सामाजिक प्रक्रिया नहीं, एक आध्यात्मिक जागरण है। क्योंकि जब हम 'मैं' से 'हम' की ओर बढ़ते हैं, तब हमारा चित्त विस्तार पाता है — सीमित आत्मबोध से निकलकर व्यापक लोककल्याण की ओर उन्मुख होता है। यही वह बिंदु है, जहाँ संघर्षमय जीवन उत्सव में परिवर्तित होता है।

यह उत्सव बाहरी चकाचौंध से नहीं, बल्कि आंतरिक संतुलन और एकत्व के अनुभव से जन्म लेता है। जब व्यक्ति किसी दूसरे के सुख को अपने सुख के समकक्ष मानने लगता है, तब वह परमात्मा के निकट पहुंचने लगता है। क्योंकि ईश्वर भी वही है जहाँ सामूहिक कल्याण की भावना होती है — जहाँ करुणा है, समर्पण है, सेवा है।

. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)

पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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