ऋषि अष्टावक्र
ऋषि अष्टावक्र कहोड़ ऋषि और सुजाता के पुत्र थे। सुजाता महान ऋषि आरुणि ( उद्दालक) की बेटी थी। कहोड़ ऋषि और सुजाता ऋषि आरुणि के आश्रम में उनसे वेद सीखते थे। एक दिन ऋषि कहोड़ और सुजाता ने ब्याह कर लिया। कुछ समय बाद जब सुजाता गर्भवती थी, तब अजन्मे भ्रूण ने गर्भ में ही वेदों का सही जप सुना और उनका पाठ सिखा। एक दिन ऋषि कहोड़ पत्नी सुजाता को वेदों का रहस्य या कम से कम वेदों को लेकर उनकी समझ सुजाता को समझा रहे थे। समझाते समय ऋषि कहोड़ ने जब जब गलती की, तब तब उस भ्रूण ने अपने पिता की गलती सुधारी। ऋषि कहोड़ ने आठ बार गलतियां की और हर बार भ्रूण ने उन्हें सुधारा। इससे ऋषि कहोड़ इतने क्रोधित हुए कि उन्होंने अपने ही पुत्र को भयंकर शाप दे दिया। शाप यह था कि चूंकि इन अजन्मे बच्चे ने अपने पिता को आठ बार सुधारने का ढीठपना दिखाया है, इसलिए वह शरीर में आठ जगह टेढ़ेपन लेकर जन्म लेगा। इस प्रकार जब बच्चे ने जन्म लिया तब उसका शरीर आठ जगह पर टेढ़ा था। उसके दोनों पैर, दोनों घुटने , दोनों हाथ , छाती और गर्दन टेढ़े थे। इस कारण से उस बच्चे का नाम अष्टावक्र रखा गया था।
पिता के द्वारा इस शाप के बावजूद अष्टावक्र पिताभक्त थे। अष्टावक्र ने कोई बहुत बड़ा अपराध नहीं किया था, बल्कि उन्होंने तो अपना विचार ही प्रकट किया था। लेकिन पिता ने क्रोध में आकर उनके अपने ही पुत्र के शरीर को विक्षिप्त कर दिया था।
अष्टावक्र जब अपनी माता के गर्भ में थे, तभी उनके पिता ऋषि कहोड़ ने, जो खुद एक प्रसिद्ध विद्वान और ऋषि थे, उनको कई तरह की शिक्षाएं दी। अष्टावक्र ने गर्भ में ही सारी शिक्षाएं और आत्मा के विभिन्न पहलुओं पर जबरदस्त महारत हासिल कर ली थी।
अष्टावक्र दुनिया के ऐसे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने सत्य को जैसा जाना वैसा कह दिया। वे न तो कवि थे और न हीं दार्शनिक थे। उन्हें दुनिया के किसी भी शास्त्र में कोई रूचि नहीं थी। उनका मानना था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है। शास्त्रों में तो सिद्धांत और नियम हैं, सत्य नहीं और ज्ञान नहीं। ज्ञान तो तुम्हारे भीतर है। अष्टावक्र ने अष्टावक्र गीता की रचना की। यह ग्रंथ उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के समतुल्य है। इस ग्रंथ में भगवद्गीता समान ईश्वर भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और मुक्ति का वर्णन है। यह एक अमूल्य ग्रंथ है। जैसे गीता में श्री कृष्ण और अर्जुन का संबाद है वैसे ही अष्टावक्र गीता में राजा जनक जी और ऋषि अष्टावक्र का संबाद है। अष्टावक्र तथा जनक जी के संबाद से जीव, आत्मा, ज्ञान, आत्मज्ञान, परमात्मा आदि से संबंधित काफी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है।
अष्टावक्र जब बारह वर्ष के थे तब राज्य के राजा जनक जी ने एक विशाल शास्त्रार्थ सम्मेलन का आयोजन किया। सारे देश के प्रकांड पंडितों को निमंत्रण दिया गया। चूंकि अष्टावक्र के पिता कहोड़ ऋषि भी प्रकांड पंडित और शास्त्रज्ञ थे, इसलिए उन्हें भी विशेष आमंत्रित किया गया। राजा जनक ने आयोजन स्थल के समक्ष गले में हीरा जवाहरात लटकाये तथा सींगों को सोने से मढ़ा हुआ एक हजार गायें बंधवा दिया और ऐलान कर दिया कि जो भी इस विवाद में विजेता होगा वह गायों को हांक कर ले जाएगा।
शाम होने के समय तक अष्टावक्र के पिता सभी से तो शास्त्रार्थ में जीत चुके थे, परंतु बंदिनि नामक एक पंडित से उनको हार मिली थी। और शर्त के मुताबिक उनके पिता को बंदिनि पंडित का गुलाम बनना पड़ा। यह खबर सुनकर अष्टावक्र खेल क्रीड़ा छोड़कर जनक जी के सम्मेलन में पहुँच गए। जब अष्टावक्र सभा में पहुंचे तो उनकी शारीरिक विकृति को देखकर सभा में उपस्थित सभी लोग हंसने लगे। सभी को हंसता देखकर अष्टावक्र भी हंसने लगे।
इस प्रकार अष्टावक्र को खिलखिलाकर हंसते हुए देखकर जनक जी ने पूछा कि बेटे सबके हंसने का कारण तो मैं समझ सकता हूँ, परंतु तुम क्यों हंस रहे हो, यह मैं नहीं समझा। इस पर अष्टावक्र ने कहा कि मैं इसलिए हंस रहा हूँ कि इन मूर्खो की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है। हमें आश्चर्य हो रहा है कि ये सब मूर्ख यहाँ क्या कर रहे हैं। यह बात सुनकर सभा में सन्नाटा छा गया। जनक जी खुद भी सन्न रह गए।
इस पर जब जनक जी ने अष्टावक्र के इस प्रकार सबको मूर्ख कहने का मतलब पूछा तब अष्टावक्र ने बताया कि इन सभी लोगों को मेरा विकृत अंग ही दिखाई पड़ रहा है। ये सभी केवल शरीर के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा साधा आदमी नहीं दिखाई पड़ रहा है। मेरा शरीर टेढ़ा मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। इन्होंने इस शरीर के भीतर जो बसा है, उसे नहीं देखा और परखा। इन सभी के इसी नादानी के चलते मैने इन्हें मूर्ख समझा और हंसा। यह सुनकर मिथिला के राजा और भगवान राम के श्वसुर राजा जनक सन्न रह गए । उन्हें अपराधबोध हुआ कि सब तो हंसे सो हंसे, मैंने भी तो अष्टावक्र को देखकर हंस दिया। राजा जनक ने सभा भंग कर दिया।
फिर अष्टावक्र ने बंदिनि को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और उन्हें आसानी से हराकर अपने पिता को मुफ्त करवाया। इस प्रकार जिस पिता कहोड़ ने अपने ही पुत्र को उनसे अधिक बुद्धिमान होने के लिए शाप दिया था, उन्हें उसी पुत्र ने अपनी बुद्धिमत्ता के प्रयोग से गुलामी से मुक्त कराया।
अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए ऋषि कहोड़ ने अष्टावक्र को समंग नदी में डुबकी लगाने के लिए कहा। नदी में डुबकी लगाने के बाद अष्टावक्र की शारीरिक विकृतियाँ ठीक हो गईं।
राजा जनक अष्टावक्र की विद्वत्ता और ज्ञान से प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया। अष्टावक्र ने राजा जनक को विभिन्न अध्यात्मिक विषयों पर उपदेश दिए और उन्हें आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया।
इस कहानी में अष्टावक्र ने राजा जनक को यह सिखाया कि सच्चा ज्ञान शरीर की बनावट में नहीं, बल्कि आत्मा में निहित है।
अष्टावक्र की कहानी में शारीरिक विकलांगता को एक चुनौती के रूप में दर्शाया गया है, जिसे ज्ञान और आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से दूर किया जा सकता है। अष्टावक्र की कहानी हमे यह सिखाती है कि हमें दूसरों को उनके शारीरिक रूप से नहीं आंकना चाहिए, बल्कि उनके ज्ञान और बुद्धिमत्ता को महत्व देना चाहिए।
जय प्रकाश कुवंर
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