उत्तराखंड की आध्यात्मिक यात्रा : शैव, शाक्त, वैष्णव और गांगेय संप्रदायों का संगम
सत्येन्द्र कुमार पाठक
अक्टूबर 2013 में दशहरे के शुभ अवसर पर उत्तराखंड की मेरी सप्ताह भर की आध्यात्मिक यात्रा, न केवल दर्शनीय स्थलों का भ्रमण थी, बल्कि यह भारत की सनातन धर्म सांस्कृतिक विरासत, विशिष्ट भूगोल और प्रमुख धार्मिक संप्रदायों - शैव, शाक्त, वैष्णव और गांगेय - के अनूठे संगम को समझने का एक गहरा अनुभव भी थी। इस यात्रा में मेरे साथ मेरे सहकर्मी, जीविका के ट्रेनिंग ऑफिसर प्रवीण कुमार पाठक भी थे। यात्रा का प्रारंभिक चरण और हरिद्वार का महत्व: गांगेय और शैव संप्रदाय का केंद्र - हमारी यात्रा बिहार के करपी से बस द्वारा प्रारंभ हुई, जहानाबाद और पटना होते हुए हम ट्रेन से हरिद्वार पहुँचे। हरिद्वार, जिसका शाब्दिक अर्थ 'हरि का द्वार' या 'शिव का द्वार' है, इस यात्रा का पहला महत्वपूर्ण पड़ाव था। यह शहर गंगा नदी के मैदानी इलाकों में प्रवेश करने का बिंदु है, जिससे इसका भौगोलिक और धार्मिक महत्व अद्वितीय हो जाता है।
: शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में स्थित, हरिद्वार गंगा नदी के तट पर बसा है। यहाँ गंगा पर्वतीय मार्ग को छोड़कर मैदानी भागों में प्रवेश करती है, जिससे इसकी पवित्रता और धार्मिक आकर्षण बढ़ जाता है।
गांगेय संप्रदाय: 'हर की पैड़ी' पर गंगा आरती का विहंगम दृश्य और पवित्र स्नान का अनुभव, गंगा को केवल एक नदी नहीं, बल्कि एक जीवंत देवी के रूप में पूजने वाले गांगेय संप्रदाय की गहरी आस्था को दर्शाता है। यह स्थल गंगा दशहरा और कुंभ मेले जैसे आयोजनों का केंद्र है।शैव संप्रदाय: हरिद्वार में अनेक प्राचीन शिव मंदिर स्थित हैं, जो शैव संप्रदाय के अनुयायियों के लिए महत्वपूर्ण हैं। बिल्केश्वर महादेव मंदिर जैसे स्थल शिव भक्तों को आकर्षित करते हैं।शाक्त संप्रदाय: यहाँ मनसा देवी और चंडी देवी के प्रसिद्ध शक्तिपीठ स्थित हैं, जो शाक्त संप्रदाय के भक्तों के लिए विशेष महत्व रखते हैं। इन मंदिरों में देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। हरिद्वार का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। यह सदियों से एक प्रमुख तीर्थस्थल रहा है, जहाँ आदि शंकराचार्य जैसे महान संतों ने भ्रमण किया और धार्मिक पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हरिद्वार में दो दिन बिताने के बाद, हमने उत्तराखंड के भीतर अपनी यात्रा जारी रखी, जिसका अगला पड़ाव ऋषिकेश, देवप्रयाग, कर्णप्रयाग होते हुए जोशीमठ था। यह मार्ग हिमालय की बदलती भूगौलिक स्थितियों और विभिन्न संप्रदायों के संगम को प्रदर्शित करता है।
जोशीमठ और बद्रीनाथ धाम: वैष्णव और शैव परंपराओं का मिलन - हरिद्वार से हम बस द्वारा ऋषिकेश, देवप्रयाग, कर्णप्रयाग होते हुए जोशीमठ पहुँचे। यह मार्ग अलकनंदा नदी के किनारे-किनारे चलता है, जहाँ विभिन्न प्रयागों में नदियों का संगम होता है, जो अपने आप में आध्यात्मिक महत्व रखते हैं।: जोशीमठ, चमोली जिले में स्थित एक महत्वपूर्ण पहाड़ी शहर है, जो बद्रीनाथ, औली और हेमकुंड साहिब जैसे महत्वपूर्ण स्थलों का प्रवेश द्वार है। यह भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है और इसकी भूवैज्ञानिक अस्थिरता हाल के वर्षों में चर्चा का विषय रही है।
शैव संप्रदाय: जोशीमठ में भगवान नरसिंह का मंदिर है, जिसे भविष्य बद्री के रूप में भी जाना जाता है, जहाँ माना जाता है कि कलियुग के अंत में भगवान बद्रीनाथ की पूजा की जाएगी। शंकराचार्य मठ, जो हिंदू धर्म के पुनरुत्थान में आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक है, शैव संप्रदाय के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र है।आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में जोशीमठ में तपस्या की थी और यहीं से उन्होंने देशभर में हिंदू धर्म के पुनरुत्थान का कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने यहाँ नरसिंह मंदिर की स्थापना की और कालिका मठ को अपने चार प्रमुख मठों में से एक बनाया।
जोशीमठ से हमने बद्रीनाथ धाम की ओर प्रस्थान किया। बद्रीनाथ धाम, भारत के चार धामों में से एक, वैष्णव संप्रदाय का एक प्रमुख तीर्थस्थल है।: नारायण और नर पर्वत की सुरम्य वादियों के बीच, अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बद्रीनाथ की प्राकृतिक सुंदरता अवर्णनीय है।वैष्णव संप्रदाय: यहाँ भगवान बद्रीनाथ का मंदिर है, जो भगवान विष्णु को समर्पित है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान बद्रीनाथ की काली शालिग्राम मूर्ति स्थापित है। तप्तकुंड (गर्म पानी का झरना) और नारद कुंड यहाँ के अन्य महत्वपूर्ण स्थल हैं, जिनका संबंध पौराणिक कथाओं से है।
आदि वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाय का मिश्रण: बद्रीनाथ धाम में, यद्यपि यह मुख्य रूप से वैष्णव मंदिर है, विभिन्न पौराणिक कथाओं और स्थानीय मान्यताओं के कारण शैव और शाक्त तत्वों का भी समावेश मिलता है। कुछ कथाएं बताती हैं कि भगवान शिव ने पहले इस स्थान पर निवास किया था, और बाद में भगवान विष्णु ने इसे अपने निवास स्थान के रूप में चुना। मंदिर की स्थापत्य कला और विभिन्न देवी-देवताओं की उपस्थिति भी इन संप्रदायों के सह-अस्तित्व को दर्शाती है। भगवान विष्णु ने यहाँ तपस्या की थी। आदि शंकराचार्य ने भी इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया और मूर्तियों को स्थापित किया।
बद्रीनाथ से हमने पास के माना गाँव की यात्रा की, जो भारत का अंतिम गाँव माना जाता है। यहाँ हमने गणेश गुफा और व्यास गुफा के दर्शन किए, जो पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत के लेखन से संबंधित हैं। केशव प्रयाग में सरस्वती और अलकनंदा नदियों का संगम देखा, जो इस क्षेत्र के अद्वितीय जल विज्ञान और पौराणिक महत्व को दर्शाता है। सरस्वती मंदिर और भीम शिला, भीम पुल जैसे स्थल यहाँ के इतिहास और लोककथाओं को जीवंत करते हैं।केदारनाथ धाम: शैव संप्रदाय का सर्वोच्च केंद्र और त्रासदी का गवाह बद्रीनाथ धाम से हमारी यात्रा चमोली होते हुए केदारनाथ की ओर बढ़ी। यह मार्ग घने देवदार के वनों, तुंगनाथ के मनमोहक दृश्यों और मंदाकिनी नदी के शांत प्रवाह से परिपूर्ण था।: केदारनाथ, मंदाकिनी नदी के उद्गम स्थल के पास, केदारचट्टी में स्थित है, जो हिमालय की अत्यधिक ऊंचाई पर बसा है। यह क्षेत्र भूवैज्ञानिक रूप से सक्रिय है और 2013 की त्रासदी इसका प्रमाण है।
शैव संप्रदाय: केदारनाथ, 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और शैव संप्रदाय के अनुयायियों के लिए सबसे पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। यहाँ बाबा केदारनाथ का प्राचीन मंदिर है। मंदिर के प्रथम प्रकोष्ठ में पांडवों और नंदी जी की मूर्तियों के दर्शन ने मन को शांति प्रदान की। : केदारनाथ मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा किया गया माना जाता है और बाद में आदि शंकराचार्य द्वारा इसका जीर्णोद्धार किया गया। 2013 की भयानक बाढ़ त्रासदी, जिसने मंदिर और आसपास के क्षेत्र को तबाह कर दिया था, इस स्थान के इतिहास में एक काला अध्याय बन गई है। हमने त्रासदी में बिखरे पड़े अवशेषों और गौरीकुंड के अवशेषों को देखकर गहरा दुख और विचलित मन महसूस किया। यह त्रासदी प्रकृति की शक्ति और मानवीय दृढ़ता का एक कठोर अनुस्मारक थी। गौरीकुंड और गणेश कटी: सोनप्रयाग से पैदल गौरीकुंड की ओर बढ़ते हुए, हमने गणेश कटी पर सरकटी गणेश मंदिर के दर्शन किए, जो एक अनूठी गणेश प्रतिमा को समर्पित है। गौरीकुंड में माता गौरी की तपस्या स्थल और गौरी मंदिर के दर्शन किए, जो शाक्त संप्रदाय से भी जुड़े हैं। केदारनाथ की वादियाँ, भले ही त्रासदी से प्रभावित हों, फिर भी अपनी मनमोहक, शांतिपूर्ण और प्रकृति की छटा से भरपूर थीं। पर्वतों पर बर्फ से ढके शिखर, वर्षा की बूंदें, वृक्षों की सुनहरी हवा और मंदाकिनी नदी का जल हमें आनंद की अनुभूति करा रहे थे। बाबा केदारनाथ की संध्या आरती में शामिल होना और पवित्र प्रसाद प्राप्त करना एक अविस्मरणीय अनुभव था।
यह यात्रा मेरे जीवन की एक अविस्मरणीय और आध्यात्मिक अनुभव रही। इसने मुझे न केवल भारत की समृद्ध सनातन धर्म संस्कृति और धार्मिक विविधता को करीब से देखने का अवसर दिया, बल्कि हिमालय की भव्यता, विभिन्न संप्रदायों के सह-अस्तित्व और प्रकृति की शक्ति को भी गहराई से महसूस कराया। यह एक ऐसा वृतांत है जो इतिहास, भूगोल और आध्यात्मिकता के अनूठे संगम को प्रस्तुत करता है।
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