“ज़िम्मेदारियों की उम्र”
ख़्वाहिशें तो सब बह गईं,कभी बारिश की बूँदों में,
कभी धूल भरी हवाओं में,
कभी भीड़ में खुद को ढूँढते ढूँढते…
अब न कोई सपना आँखों में पलता है,
न कोई चाहत दिल में कुलांचे भरती है।
बस बचे हैं कुछ चेहरे—
जो सुबह की रोटी मांगते हैं,
दोपहर की फीस,
शाम की दवा,
और रात की एक मुस्कान।
अब दिन कैलेंडर के पन्नों से नहीं गिने जाते,
गिनते हैं दायित्वों के कंधे झुकाने वाले पल,
हर सुबह एक आदेश है,
हर शाम हिसाब।
कभी दिल कहता है—
चलो, कहीं दूर चलते हैं,
जहाँ सिर्फ मैं हूँ और मेरा वजूद…
पर अगले ही पल—
फोन की घंटी चीख पड़ती है,
और याद दिला देती है—
कि अब ज़िंदगी का नाम ‘फ़र्ज़’ है।
हाँ… ख़्वाहिशें अब कब्र में दफ़्न हैं,
पर जिम्मेदारियाँ—
वे सांसों में जिंदा हैं,
और मैं…
बस एक चलता फिरता उत्तरदायित्व हूँ।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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