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"दर्पण बनो, कांच नहीं'"

"दर्पण बनो, कांच नहीं'"

मित्रों कांच के टुकड़े नुकीले होते हैं। वे चोट पहुँचाते हैं, इसलिए लोग उनसे दूरी बनाकर चलते हैं। लेकिन वही कांच जब दर्पण बनता है, तो हर कोई उसमें अपना अक्स देखना चाहता है। यह उद्धरण हमें सिखाता है कि कटुता एवं अहंकार हमें अकेला कर देते हैं, जबकि विनम्रता एवं उपयोगी दृष्टिकोण हमें सबका प्रिय बना देते हैं। इसलिए जीवन में ऐसा व्यक्तित्व विकसित करें जिसमें लोग न केवल आपकी कदर करें, बल्कि आपके पास आकर स्वयं को भी पहचानें। "कांच के टुकड़े नहीं, दर्पण बनें"।


जब हम दर्पण बनते हैं, तब हम दूसरों को उनकी अच्छाइयाँ एवं कमियाँ दोनों देखने में मदद करते हैं। हमारी उपस्थिति प्रेरणा एवं आत्मनिरीक्षण का माध्यम बन जाती है। यह कोई कमजोरी नहीं, बल्कि आत्मबल की पराकाष्ठा है कि हम किसी को ठेस पहुँचाए बिना उसे सच्चाई दिखा सकें। यही संवेदनशीलता एवं सजगता व्यक्ति को महान बनाती है।


दर्पण बनने का अर्थ केवल व्यवहार में विनम्र होना नहीं, बल्कि आत्मा के स्तर पर निर्मल होना है। दर्पण की तरह स्वच्छ मन वही व्यक्ति रख सकता है, जिसने भीतर का कलुष एवं अहंकार धो डाला हो। यह आध्यात्मिक परिष्कार हमें आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है। जब भीतर की दृष्टि निर्मल होती है, तब हम केवल दूसरों को ही नहीं, परमात्मा की झलक भी उसी दर्पण में पा सकते हैं। इसलिए जीवन में ऐसा बनें कि आपकी निर्मलता में हर कोई अपना ही नहीं, ईश्वर का प्रतिबिंब भी देख सके।


. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार) 
 पंकज शर्मा (कमल सनातनी)
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