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ब्राह्मण—गुण, गरिमा और आज का सामाजिक विमर्श

ब्राह्मण—गुण, गरिमा और आज का सामाजिक विमर्श

✍️ लेखक: प्रेमसागर पाण्डेय

“ब्राह्मण” — यह शब्द जितना प्राचीन है, उतना ही प्रासंगिक भी। भारतीय सनातन परंपरा में ब्राह्मण कोई जातिसूचक संज्ञा मात्र नहीं, अपितु एक जीवनमूल्य, आध्यात्मिक संस्कृति और गुणाधारित आचरण प्रणाली का प्रतीक है।

यह विडंबना ही है कि आज ब्राह्मण शब्द को या तो राजनीतिक संदर्भों में घसीटा जा रहा है या फिर ब्राह्मणत्व के मूल तत्वों को ही विस्मृत किया जा रहा है। प्रश्न उठता है — दुनिया ब्राह्मणों के पीछे क्यों पड़ी है? क्या यह ईर्ष्या है उनके ज्ञान के प्रति, या भय है उनके तेज के कारण? आइए, इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर धर्मग्रंथों की शरण में खोजें।

रामचरितमानस में भगवान श्रीराम जी ने परशुराम जी से कहा:

“देव एक गुन धनुष हमारे। नौ गुन परम पुनीत तुम्हारे।।”

प्रभु श्रीराम स्वयं ब्राह्मण के नवगुणों की महिमा को स्वीकारते हैं। वे कहते हैं कि हमारे पास केवल एक गुण है—धनुष। जबकि आपके पास परम पवित्र नौ गुण हैं।

संस्कृत श्लोक में ब्राह्मण के ये नवगुण गिनाए गए हैं:

रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः।।

इन गुणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है:
1. रिजुः — सरल व सत्यप्रेमी स्वभाव
2. तपस्वी — संयम व तप से जीवन का पवित्रीकरण
3. संतोषी — परिश्रम की कमाई से संतुष्टि
4. क्षमाशील — अपराध को भी प्रेम से क्षमा करना
5. जितेन्द्रियः — इंद्रियों पर नियंत्रण
6. दाता — उदार और परोपकारी
7. शूर — धर्मरक्षा हेतु साहसी
8. दयालु — सभी प्राणियों पर दया भाव
9. ब्रह्मज्ञानी — वेद, शास्त्र, उपनिषदों के मर्मज्ञ

श्रीमद्भगवद्गीता के 18वें अध्याय के 42वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

“शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।”

यहाँ ब्राह्मण के लिए जिन गुणों को स्वाभाविक बताया गया है वे हैं:
- शम: मन का नियंत्रण
- दम: इंद्रियों का संयम
- तप: धर्म के लिए कष्ट सहना
- शौच: बाह्य व आंतरिक शुद्धता
- क्षमा: सहनशीलता व उदारता
- आर्जव: सरलता
- ज्ञान: वेदों व धर्म का ज्ञान
- विज्ञान: अनुभवजन्य तत्वज्ञान
- आस्तिक्य: ईश्वर व वेदों में आस्था

इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मणत्व एक अभ्यास, एक अनुशासन और एक संस्कारजन्य जीवन की साधना है — यह केवल जन्म नहीं, चरित्र का संस्कार है।

शास्त्रों में कहा गया:
“दैवाधीनं जगत् सर्वं, मन्त्रा धीना: च देवता:।
ते मन्त्राः ब्राह्मणा धीना: तस्माद् ब्राह्मणा देवता:।।”

ब्राह्मणों के तप से ही देवता प्रभावी होते हैं। ब्राह्मणों की उपेक्षा करना, स्वयं धर्म और देवत्व का अपमान करना है।

गायत्री, संध्या और ब्राह्मण की आत्मा के रूप में:
“विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च संध्या।
वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम्।।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं।
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।।”

जहाँ ब्राह्मणों का सम्मान होता है, वहीं देवता निवास करते हैं। यदि ब्राह्मण नहीं बचे, तो वेद, धर्म और समाज की रक्षा नहीं हो सकती।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:
“विप्र प्रसादात् धरणी धरोहम्।
विप्र प्रसादात् कमला वरोहम्।
विप्र प्रसादात् अजिता जितोहम्।
विप्र प्रसादात् मम राम नामम्।।”

निष्कर्षतः—ब्राह्मण कोई जाति नहीं, एक चेतना है। ब्राह्मणत्व के मूल गुणों को जीवित रखना ही समाज का कर्तव्य है। ब्राह्मण का अपमान केवल एक वर्ग नहीं, संपूर्ण संस्कृति का अपमान है। जिस दिन समाज इसे समझेगा, भारत के पुनरुत्थान की शुरुआत होगी।
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