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"क्रोध — विवेक का विलोपक"

"क्रोध — विवेक का विलोपक"

"क्रोध पवन का वह झोंका है जो विवेक के दीपक को बुझा देता है…" यह पंक्ति मात्र एक उपमा नहीं, बल्कि जीवन के गहन सत्य की उद्घोषणा है। क्रोध, जो क्षणिक होता है, किन्तु उसके प्रभाव स्थायी एवं प्रायः विनाशकारी होते हैं। यह उस आँधी की भाँति है जो भीतर की शांति, संयम एवं सम्यक् दृष्टि को उड़ा ले जाती है।

जब मनुष्य के भीतर क्रोध का तूफान उठता है, तो उसका विवेक—जो आत्मा का प्रकाश है—धूमिल पड़ जाता है। जैसे कोई नन्हा दीपक तेज हवा की झोंक से बुझ जाए, वैसे ही मनुष्य का अंतर-बोध क्रोध के सामने टिक नहीं पाता। परिणामस्वरूप, हम ऐसे निर्णय लेते हैं जो न केवल हमें, बल्कि हमारे अपनों को भी पीड़ा पहुँचाते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो क्रोध अहंकार की उपज है। जब हमारी अपेक्षाएँ, इच्छाएँ या मान्यताएँ किसी के व्यवहार से टकराती हैं, तब भीतर का 'मैं' आहत होता है और उसी आघात से जन्म लेता है क्रोध। किन्तु यह क्षणिक 'मैं' ही तो माया है—जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप से परे है। आत्मा का स्वभाव तो शांति, करुणा एवं समता है।

वेदांत कहते हैं:
"क्रोधात् भवति सम्मोहः,
सम्मोहात् स्मृति-विभ्रमः।"
— अर्थात् क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति का भ्रम एवं भ्रम से बुद्धि का नाश।

अंततः, यदि हम चाहते हैं कि हमारे भीतर का दीपक सदा प्रकाशित रहे—विवेक की ज्योति से आलोकित—तो हमें क्रोध रूपी हवा को पहचानना होगा, उसका स्वागत नहीं, संयमपूर्वक तिरस्कार करना होगा। क्योंकि जहाँ विवेक है, वहाँ प्रकाश है… एवं जहाँ प्रकाश है, वहीं जीवन का सही मार्ग है।

शांति में ही शक्ति है, एवं विवेक में ही प्रत्येक मनुष्य की विजय।

. "सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)

पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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