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देखिए परिदृश्य सारे खुल रहे से हैंं।

देखिए परिदृश्य सारे खुल रहे से हैंं।

बादलों के आँसुओं से धुल रहे से हैं।।

पर्वतों ने हैं उतारे वे धवल परिधान
फिर पहन ली हैं विविध रंगी अँगरखा जान।
श्याम वर्णी जलद के संवाद में हो मुग्ध
स्नेह भीगे मधुर रस में घुल रहे से हैं।।

फुहारों के मोतिक्षों से तरु सजाए सिर
खड़े है छुपचाप मानो तपिस आए‌ तिर।
और पाखी चोंच खोले नहाकर खोए
लहर‌ सरिता की लहर से मिल रहे से हैं।।

फुस की कृशकाय छानी से टपकता जल
पराजित जीवन अभी भी रह रहाअविकल
प्रकृति तो संवेदना का जाल बुनती है
किन्तु प्रतिबंधित मुखौटे चल रहे से हैं।। 63 ।।
डा रामकृष्ण
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