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चातुर्मास महात्म्य (अध्याय - 09)

चातुर्मास महात्म्य (अध्याय - 09)

आनंद हठिला पादरली (मुंबई)
आज के अध्याय में पढ़िये
👉 (महादेवजी के द्वारा पार्वती के प्रति ध्यानयोग एवं ज्ञानयोग का निरूपण)

पार्वतीजी बोलीं-देवेश्वर! आप ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं ध्यानयोग को पाकर ज्ञानयोग की प्राप्ति कर सकूँ।

महादेवजी ने कहा- प्रिये! पहले जिस द्वादशाक्षर नामक मन्त्रराज का वर्णन किया गया है, उसी का तुम्हें जप करना चाहिये। वह वेद का सनातन सार तत्त्व है। प्रणव (ॐकार) सब वेदों का आदि है। वह समस्त ब्रह्माण्डों का याजक है तथा समस्त कार्यो में प्रथम उच्चारण करने योग्य तथा सब सिद्धियों का दाता है। उसका शुक्ल वर्ण है, मधुच्छन्दा ब्रह्मा ऋषि हैं, परमात्मा देवता हैं, गायत्री छन्द है तथा समस्त कर्मों में उसका विनियोग किया जाता है। देवि! जो प्रतिदिन सम्पूर्ण बीजाक्षरमय द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह पापों से लिप्त नहीं होता। यह द्वादश लिंगमय अक्षरों से युक्त द्वादशाक्षर मन्त्र कूर्मचक्र में स्थित है। विनियोग सहित प्रत्येक वर्ण के ध्यान, ऋषि, बीज, छन्द और देवता आदि के चिन्तन पूर्वक ध्यान, जप और पूजन करने पर भक्तों का कर्म जनित बन्धनों से मोक्ष हो जाता है। ध्यानयोग से समस्त पापों का नाश होता है। जप और ध्यान ही योग का स्वरूप है। शब्दब्रह्म (ॐकार एवं वेद)-से प्रकट हुआ द्वादशाक्षर मन्त्र वेद के समान है। ध्यान से मनुष्य सब कुछ पाता है। ध्यान से वह शुद्धता को प्राप्त होता है, ध्यान से परब्रह्म का बोध होता है तथा संगण स्वरूप में चित्तवृत्ति की एकाग्रता रूप योग भी ध्यान से ही सम्भव होता है ध्यानयोग दो प्रकार का होता है। एक सालम्ब (सवशेष) और दूसरा निरालम्ब (निर्विशेष)। सगुण साकार विग्रह नारायण का दर्शन सालम्ब ध्यान है। दूसरा जो निरालम्ब ध्यान है, वह ज्ञानयोग के द्वारा बताया गया है। वह सबका आलम्ब है। रूपरहित, अप्रमेय तथा सर्वस्वरूप जो सनातन तेज है, जिसका प्रकाश कोटि-कोटि विद्युतों के समान है, जो सदा उदयशील एवं पूर्णतम है, जो निष्कल, सकल एवं निरंजन मय है, आकाश के समान सर्वव्यापक है, सुखस्वरूप एवं तुरीयातीत है, जिसकी कहीं उपमा नहीं है, वही परमेश्वर का निराकारस्वरूप निरालम्ब ध्यान योग के द्वारा चिन्तन करने योग्य है। वह द्वन्दोवों से रहित एवं साक्षी मात्र है। शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है। अपने तेज से उपमा रहित और अगाध है। उसी को तुम अंगीकार करो।

भगवान् नारायण का सूर्य मस्तक है, पृथ्वी लोक हृदय है तथा रसातल चरण है। वे मूर्तामृर्त स्वरूप से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में स्थित हैं। भगवान् विष्णु ही ब्रह्मरूप से ज्ञानयोग के आश्रय हैं। वे ही समस्त प्राणियों की सृष्टि और पालन करते हैं तथा वे ही सबका संहार करते हैं। वे सर्वदेवमय हैं। सनातन काल से ही भगवान् विष्णु बारह मासों के अधिपति हैं। इसलिये सम्पूर्ण मासों, समस्त दिनों और सब प्रहरों में श्रीहरि का स्मरण करने वाला पुरुष संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है।

यह कथा जिस किसी (अनधिकारी) -के सामने नहीं कहनी चाहिये। जो नित्य भक्त, जितेन्द्रिय तथा शम (मनोनिग्रह) आदि गुणों से युक्त हो, उससे यह कथा कहनी चाहिये। भगवान् विष्णु का भक्त शृद्र हो या ब्राह्मण, उसे भी यह कथा सुनाने योग्य है। पार्वती ! मेरी भक्ति से तुम शीघ्र योगसिद्धि प्राप्त करो और ज्ञानसे प्राप्त होने योग्य सर्वोत्कृष्ट भगवान् नारायण के स्वरूप को समझो। योग का अभ्यास सदा करना चाहिये। विशेषत: चातुर्मास्य में योग की साधना करने वाला पुरुष अपने सब पापों का नाश करता है। जो योगी दो घड़ी भी अपने कानों को बंद करके अपने मन को ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित करता है, वह पापों से मुक्त हो जाता है। जिसके घर में एक भी योगी पुरुष एक ग्रास अन्न भी भोजन कर लेता है, वह अपने सहित तीन पीढ़ियों का अवश्य उद्धार कर देता है। यदि ब्राह्मण योगी हो तो वह दर्शन से भी अवश्य सब प्राणियों की पापराशि का संहार कर देता है। यदि ब्रह्मपरायण उत्तम कर्मो वाला श्रेष्ठ शूद्र योग का अभ्यास करता है, सद्गुरु में भक्ति रखता है और नियमित आहार करते हुए जो योगी परब्रह्म की समाधि में स्थित होता है, वह भगवान् विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है। भगवान् श्रीहरि की प्रीति से मनुष्य उनके स्वरूप में लीन हो जाता है। पार्वती ! यह योग ज्ञान की सिद्धि प्रदान करनेवाला है। सनकादि आचार्यों तथा मुक्ति की इच्छा वाले देवेश्वरों ने भी इसका सेवन किया है। सर्वप्रथम योगियों के जो सदा ज्ञान की सम्पत्ति होती है, उस ज्ञान सम्पत्ति से गृहीत होकर मनुष्य योगी होता है। तदनन्तर योगी के आगे अणिमा आदि सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं, परंतु श्रेष्ठ योगी उनमें मन नहीं लगाता। योग से सम्पूर्ण दानों और यज्ञों का फल प्राप्त होता है। योग से सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति होती है। कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो योग से प्राप्त न होती हो। योग से हृदय की गाँठ नहीं रहने पाती। योग से ममता रूपी शत्रु नहीं पैदा होता। योगसिद्ध पुरुष का मन कोई भी लुभा नहीं सकता। भगवान् विष्णु स्वयं ही इस चराचर जगत् में व्याप्त हैं। योगेश्वरों के परम उपास्य उन भगवान् को अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थित जानकर मनुष्य इस मायामय जगत् का मोह उसी प्रकार छोड़ देता है, जैसे सर्प अपनी केंचुल को त्याग देता है।

संदर्भ:👉 श्रीस्कन्द महापुराण

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