भाषा की सीमा एवं मौन की गहराई
"दुनिया की कोई भाषा नहीं जो पृथक व्यक्तियों के निगूढ़तम मर्म के बीच वास्तविक सेतु का काम कर सके।"
यह पंक्ति एक गहन सत्य को उजागर करती है—भाषा, जो संप्रेषण का सबसे सशक्त माध्यम मानी जाती है, अपने भीतर एक सीमितता भी लिए होती है। हम शब्दों से भाव प्रकट करते हैं, लेकिन हर अनुभूति को शब्द नहीं दिए जा सकते।
हर व्यक्ति के अनुभव, उसकी पीड़ा, प्रेम या अंतरंग भावनाएँ इतनी निजी होती हैं कि उन्हें पूरी तरह समझ पाना, औरों के लिए असंभव-सा हो जाता है। हम सुनते हैं, पढ़ते हैं, बोलते हैं—पर क्या वास्तव में हम किसी के भीतर की हूक, उसकी मौन वेदना या उसकी निर्मल अनुभूति को पूरी तरह आत्मसात कर पाते हैं?
यहीं पर मौन भाषा से बड़ा माध्यम बन जाता है। कभी-कभी एक स्पर्श, एक नज़र, या सिर्फ़ साथ बैठा मौन वह कर जाता है, जो शब्दों की भीड़ नहीं कर पाती।
यह विचार हमें सिखाता है कि दूसरों को समझने के लिए केवल संवाद नहीं, संवेदना की आवश्यकता होती है। हमें केवल सुनना नहीं, अनुभवना आना चाहिए। तभी हम वास्तविक मानवीय संबंधों के सेतु बना सकते हैं—भाषा के पार, आत्मा से आत्मा तक।
इसलिए जब अगली बार कोई मौन रहे, तो उसके मौन में छुपे अर्थ को पढ़ने की कोशिश करें—शब्दों के परे जाकर। वहाँ, शायद, मानवता की सबसे सच्ची भाषा आपका इंतज़ार कर रही होगी।
"सनातन"
(एक सोच , प्रेरणा और संस्कार)
पंकज शर्मा
(कमल सनातनी)
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