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हाहाकार करती प्रकृति

हाहाकार करती प्रकृति

क्यों काट रहे हो पेड़ों को क्यों दोहन जारी है।
हाहाकार करती प्रकृति अनिष्ट की तैयारी है।
वृक्ष विहीन धरा हो रही संतुलन गड़बड़ा रहा।
तप्त धूप धरा त़पती जर्रा जर्रा लड़खड़ा रहा।

कहीं सूखा बाढ़ कहीं पर सूख रही फुलवारी है।
हरियाली के दर्शन दुर्लभ कुदरत की लाचारी है।
गर्मी से बेहाल पंछी सब ठौर ठिकाना दूर हुआ।
हसीं नजारा मनभावन सपना चकनाचूर हुआ।

पर्वत काटे खान खोदी सरिता नीर दूषित किया।
कारखानी धुंआ छोड़ वातावरण प्रदूषित किया।
नष्ट हो रही वनस्पतियां औषधि का भंडार जहां।
पशु पक्षी डोल रहे सब छोड़ आसरा जाएं कहां।

जंगल बीच बसी कॉलोनियां गाड़ी मोटर दौड़ रहे।
वृक्षों का कहीं नाम नहीं भावी किस्मत फोड़ रहे।
कहर बरसे कुदरत का वक्त रहते संभल जाओ।
जीना ये दुभर हो ना जाए मिलकर पेड़ लगाओ।


रमाकांत सोनी सुदर्शन


नवलगढ़ जिला झुंझुनू राजस्थान

रचना स्वरचित व मौलिक है
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