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श्रम की गरिमा

श्रम की गरिमा

श्रम की गरिमा है महद ,
जस नभ धरणी आकार ।
जीवन ऊॅंची जस रे बंदे ,
मानव जीवन है साकार ।।
अथक श्रम करे कृषक ,
निज क्षेत्र नित जोते बोए ।
उदर भरे जो जगत का ,
जगत पिता कहावे सोए ।।
रुपया कमात ये जगत है ,
रुपया खा पावत न कोय ।
ऊॅंच नीच हर बोल जग का ,
सहन करत कृषक तोय ।।
श्रमिक का भी श्रम देख ,
जिसका श्रम है बहुमूल्य ।
श्रम का कोई तुलना नहीं ,
श्रम अपने आप अतुल्य ।।
श्रम शब्द न तुच्छ होत ,
न श्रम से कुछ मूल्यवान ।
श्रम की गरिमा समझ ले ,
जग में होत वही महान ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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