कोयल की कूक

कोयल की कूक

वसंत आया भी और वसंतोत्सव होली के समापन के साथ अब धीरे धीरे जाने की तैयारी कर रहा है। इस वसंत के मौसम में लोगों ने तरह तरह से वसंत ऋतु का गुणगान किया और रंग अबीर से होली खेलकर आनंद मनाया। वसंत के आगमन के एक प्रतीक कोयल के कूक का तो कवियों और साहित्यकारों ने जमकर चर्चा किया। परंतु सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इस मौसम में कितने लोगों ने कोयल का कूक सुना।
हाँ, यह सच्चाई है कि अब कोयल की कूक का अतीत में सुना हुआ मधुर आवाज केवल कविता और लेख में ही विराजमान रह गया है। अन्यथा कोयल पक्षी के भी धीरे धीरे विलुप्त होने के साथ उनका मधुर स्वर भी प्रायः विलुप्त हीं होता जा रहा है। शहर में तो यह मधुर आवाज लगभग नहीं के बराबर है, परंतु अब गाँव देहात में भी कोयल की कूक कम हीं सुनाई पड़ता है।
इसका मुख्य कारण है गाँव देहात में भी बाग बगीचे का कट जाना और उजाड़ हो जाना। कोयल पक्षी का आशियाना बाग बगीचा ही हुआ करता था। वसंत ऋतु के आगमन के साथ बाग बगीचे से सुबह सुबह भोर बेला में कोयल की कूक सुनाई पड़ने लगता था और यह मधुर आवाज रूक रूक कर सारे दिन पुरे वसंत ऋतु तक सुनाई देता था। वसंत ऋतु में आम की अमराई मंजर और कोयल की कूक को भला कैसे भुलाया जा सकता है।
काश, मानव को अब भी सद्बुद्धि होती तो वह इस विलुप्त होती कोयल प्रजाति के पक्षी को बचाने की कोशिश करता और इसके मधुर आवाज को सुनकर आनंदित होता। हमें यह भुलना नहीं चाहिए कि कोयल और वसंत ऋतु का एक अद्भुत संयोग है। 
 जय प्रकाश कुवंर
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