वीणापाणि वाग्देवता सरस्वती

वीणापाणि वाग्देवता सरस्वती

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
आज वसन्त-पञ्चमी है --वीणापाणि वाग्देवता सरस्वती की आराधना का पर्व।
हाँ, यह भी निवेदन कर दूँ कि यहाँ मैं प्रस्तुत विषय पर शास्त्रीय गंभीर विवेचन से बचने की ही भरसक कोशिश करूँगा। मगध पर वैदिक एवं हिन्दू-धर्म विषयक
संदर्भ-विशेष पर आलेख के प्रसंग में एक पढ़े-लिखे मूर्ख की दुष्टतापूर्ण प्रतिक्रिया को लक्ष्य कर ऐसी ही नसीहत मैंने पाई है, चुनांचे सरस्वती पर महज संदर्भ-संकेतात्मक शैली में किंचित् प्रकाश डालूँगा। अज्ञ, विशेषज्ञ और ज्ञानलवदुर्विदग्ध--इन तीन तरह के लोगों में 'ज्ञानलवदुर्विदग्ध 'यानी पल्लवग्राही अल्पज्ञ को समझाना अत्यंत दुष्कर होता है; आदमी तो आदमी उससे ब्रह्मा भी पनाह माँगते हैं। भर्तृहरि ने गलत नहीं कहा है--"अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः। ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति। ।"उस बेहूदे को यह भी बोधगम्य न हुआ कि 'मगध '-शीर्षक वह आलेख मगध के इतिहास का विवेचन न था, अपितु वैदिक-पौराणिक आलोक में मगध की हिन्दू-धर्म विषयक मान्यता का परिप्रेक्ष्य था। अब गोली मारिये इस बात को।
अब माँ सरस्वती पर थोड़ी बात करें। सरस्वती वीणापाणि हैं।उनकी वीणा का नाम है-'कच्छपी '।कतिपय विशिष्ट वीणाएँ खास नामों से प्रसिद्ध हैं, यथा नारद की वीणा का नाम है 'महती' ,विश्वावसु की वीणा का 'बृहती',तुम्बुरु की वीणा का नाम 'कलावती 'है।
' वीणा ' नादमयी है। नाद का ही स्थूल रूप है शब्द। जगत्प्रपंच मन्त्रात्मक परिप्रेक्ष्य में नाद किंवा शब्द का ही प्रसर है (प्रसरः सृष्टिरूपो विकास:)।सरस्वती का वीणापाणित्व इस तथ्य का भी संकेतक है। यह एक गंभीर विषय है और मैं पहले ही गंभीरता से बाज आने की बात कह चुका हूँ।
वाग्देवता सरस्वती 'हंसवाहिनी 'हैं। हंस जीवतत्त्व (जीवात्मा)का प्रतीक है। हंऔर सः--दो पंख हैं जीवरूपी हंस के। केवल प्राण कहने से ही उपलक्षणया अपानादि का भी बोध हो जाता है। तन्त्र-विद्या में 'हंसः 'प्राण-बीज या जीव-बीज मंत्र के रूप में प्रथितहै। हम जब साँस छोड़ते हैं, तो 'हं 'ध्वनि होती है और जब लेते हैं, तो 'सः '।
इस प्रकार दिन रात में 21600 बार प्राण-मन्त्र 'हंसः 'का जाप्य अपने-आप होता रहता है। लयक्रमानुसारी साधना में यही विलोम 'सोऽहम् 'में परिणत होकर अंततः ब्रह्मसाक्षात्कार किंवा आत्मसाक्षात्कार में फलित हो जाता है।
सरस्वतीवाही हंस मानसरोवर =मानस =मन में संतरणशील है। मन इन्द्रियों में प्रधान और इन्द्रियों की लगाम है। उपलक्षणया यह देह का बोधक है। मानसरोवर का निर्मल जल अमृत है। बृहदारण्यक उपनिषद् की श्रुति है--"पञ्चम्यां आहुतावापः देहवचसो भवन्ति।"आपः अर्थात् जल की देह-रूप में परिणति उक्त है। इस प्रसंग में श्वेताश्वतरोपनिषद् की श्रुति एतद्विषयक तत्त्व-मर्म का सुष्ठु उद्घाटन करती है--
"एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये
स एवाग्नि:सलिले संनिविष्ट:।
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। ।"
इस भुवन के मध्य में एक हंस है वही जल में (पञ्चमाहुतिरूप देह में)स्थित अग्नि है। उसी को जानकर पुरुष मृत्यु के पार हो जाता है। इससे भिन्न मोक्षप्राप्ति का कोई और मार्ग नहीं है।
छान्दोग्योपनिषद् में आया है--"अन्नं वै मन:सोम्य आप:प्राण:तेजो वाक्। "अस्तु, देह मानसरोवर (सलिल, जल)है, प्राण या जीव हंस है और उस पर आरूढ हैं तेजःस्वरूपा वाग्देवता (सरस्वती)। पाणिनि-शिक्षा में वाणी की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया यों बताई गई है--
"आत्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्। ।"
आत्मा बुद्धि से अर्थों को समेट कर मन को बोलने की आकांक्षा से समुपेत करता है तथा मन देहस्थ अग्नि पर आघात कर मारुत (प्राण-वायु)को प्रेरित करता है। इस प्रकार मनुष्य का बोलना, वाणी की अभिव्यक्ति संभव होती है।
अब और उपबृंहण से बचते हुए वाग्देवता सरस्वती के ध्यान से मैं इस आलेख का उपसंहार करता हूँ--
"चतुर्मुखमुखाम्भोजवनहंसवधूर्मम
मानसे रमतां नित्यं सर्वशुक्ला सरस्वती। "
"नीहारहारघनसारसुधाकराभां
कल्याणदां कनकचम्पकदामभूषाम्।
उत्तुङ्गपीनकुचकुम्भमनोहराङ्गीं
वाणीं नमामि मनसा वचसां विभूत्यै। ।"
--सामरहस्योपनिषद् -('देवता ' संस्कृत में स्त्रीलिंग है)
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