ढोल गंवार शूद्र पशु नारी - मूल या अपभ्रंषित चौपाई-मनोज मिश्र

ढोल गंवार शूद्र पशु नारी - मूल या अपभ्रंषित चौपाई-मनोज मिश्र

आज कल इस चौपाई पर देश के उत्तर क्षेत्र में काफी हंगामा हो रहा है। राजनीतिक दल अपने अपने राजनीतिक चश्मे से इस चौपाई का अर्थ निकाल रहे हैं। विरोध करने वाले इसका साधारण अर्थ ले रहे हैं कि ताड़ना का अर्थ प्रताड़ना है। तो भाई अगर ताड़ना ही प्रताड़ना है तो प्रताड़ना शब्द की आवश्यकता ही क्यूँ हुई। यह बात ही इस तथ्य को रेखांकित करती है कि ताड़ना और प्रताड़ना अलग अलग शब्द हैं और उनका अर्थ भी अलग अलग ही है। जहां एक का अर्थ नज़र रखना है वहीं दूसरे का अर्थ मार पीट करना है। ताड़ना और प्रताड़ना में बहुत अंतर है। प्रताड़ना शब्द पर ध्यान देंगे तो इसका अर्थ अत्याचार, उत्पीड़न तथा बल प्रयोग के द्वारा कष्ट देना है। चर्चा में यह कहते हुए कई बार सुना होगा कि वह बहुत चतुर व्यक्ति है उसने फ़ौरन ताड़ लिया। वास्तव में ताड़ना शब्द का सम्बन्ध पैनी नजर एवं सूक्ष्म दृष्टि से है न कि प्रताड़ना से।
अतः यह सारा विवाद बेमानी है और सिर्फ और सिर्फ समाज को विभाजित करने के उद्देश्य से तूल दिया जा रहा है।
कहा तो यह भी गया है कि मूल रामायण में यह चौपाई इस प्रकार थी -
ढोल गंवार क्षुब्ध पशु रारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।।
इस बारे में साक्ष्य भी प्रस्तुत किया गए हैं और यह काफी उचित भी प्रतीत होता है अगर हम ताड़ना को मार पीट करना मान लें। इस चौपाई के कालांतर में तद्भव रूप में आज की चौपाई में बदलना कोई बड़ी बात नहीं होगी। उपरोक्त चौपाई भारत से फिजी और सूरीनाम गए गिरमिटिया मजदूरों के कोष से मिली है। ऐसी किवदंती है कि तुलसीदास जी ने अपनी मूल रामायण को गंगा में विसर्जित कर दिया था और आज जो भी उपलब्ध है वह उसका श्रुत अनुवाद ही है अतः विसंगतियों का आना कोई अपवाद न होगा।
अगर हम विविध भावार्थः पर गौर करें तो पाएंगे कि ताड़ना का अर्थ पीटना के साथ दृष्टि रखना भी होता है जो सबसे उपयुक्त है। चाहे ढोल हो गंवार हो या शूद्र हो या नारी हो या पशु सभी पर नज़र रखना आवश्यक है ऐसा इसलिए क्यूंकि अगर ढोल बेसुरा बजे तो शोर है, गंवार पर दृष्टि नहीं रखी जाए तो वह अपनी मूर्खता से अनर्थ कर सकता है। इसी प्रकार पशु को अगर दृष्टि में न रखा जाय तो वह अपना और अपने मालिक का अहित कर सकता है, जंगल में भाग सकता है, पुनः स्त्री की स्थिति समाज मे हमेशा से ही कमजोर रही है जो आज भी है। मनुस्मृति तक ने कहा है कि उसकी रक्षा हेतु उसके सभी आयु चरणों मे संरक्षा हेतु किसी न किसी का होना आवश्यक है। मुगल काल मे जब अकबर जैसे महिमामंडित शासक मीना बाजार लगा कर स्त्रियों का हरण करते थे उस समय स्त्रियों की दशा पर दृष्टि रखना सर्वथा उचित ही था।
जहां तक शूद्र का सवाल है शूद्र भी समाज का सबसे कमजोर तबका है तो अगर उसपर दृष्टि न रखी जाए उसके अहित हो सकता है अतः उसकी भी ताड़ना (दृष्टिगत रखना) करते रहनी चाहिए। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भारत भर में तत्कालीन समय मे उनकी स्थिति दयनीय थी। यह तो सभी को ज्ञात है कि तुलसीदास अकबर के समकालीन थे। राम चरित मानस की रचना का उद्देश्य तत्कालीन वर्गों में विभाजित हिन्दू समाज को एकजुट करने भी था। इतना ही नहीं जो पुजारी वर्ग अपने को शैव और वैष्णव में बांट रहा था उसके लिए भी उन्होंने एकता की कोशिश की। रामायण में भगवान राम शिव की उपासना करते हैं और रामायण भगवान शिव स्वयं माता उमा को सुनाते हैं और कहते हैं कि राम उनके आराध्य हैं। ऐसे महामना के जीवन चरित पर इन दो पंक्तियों की वजह से कीचड़ उछालना कतई उचित नहीं है।
किसी भी पद्य की व्याख्या हमेशा उसके संदर्भ के अर्थ में की जाती है यहां संदर्भ समुद्र के मान को भंग करते हुए उसे झुकाने का है जहां समुद्र अति दीन भाव से भगवान राम को अपने अवगुण गिना रहा है और भगवान से कह रहा है कि हे प्रभु आपने अच्छा ही किया कि मुझे यह सीख दी फिर प्रतीक रूप में वह कुछ वर्गों का उदाहरण देता हैं। यहां राय सिंधुपति की है तुलसी दास जी की नहीं।
मेरी अपनी राय है कि ये दो पंक्तियों तुलसी दास जी की है ही नहीं। राम चरित मानस मूलतः अवधि भाषा मे लिखा गया महाकाव्य है। ये दो पंक्तियां शुद्ध रूप में खड़ी बोली की हैं। आप पूरा मानस पढ़ जाइये आपको हर पंक्ति में अवधि भाषा ही मिलेगी सिर्फ इन दोनों पंक्तियों में नहीं है तो क्या मानस की लोकप्रियता को जनमानस से तोड़ने के लिए इन पंक्तियों के समावेश किया गया है। इसकी संभावना अधिक है। समाज को बांधने का मूल काम हमेशा से ही ब्राह्मणों का रहा है। तुलसीदास स्वयं भी ब्राह्मण थे, तो सबसे आसान है कि इस वर्ग को समाज की नज़रों से गिरा दो। ये तब तक नहीं हो सकता था जब तक आप शूद्रों के अहम को चोटिल न कर दो अतः इसी सिद्धांत पर कार्य हो रहा है। परंतु मानस के पन्ने जलाने वाले ये दुराग्रही यह नहीं जानते कि मानस का सर्वाधिक सम्मान वही तबका करता है जिसे वे शूद्र कहते हैं। तुलसीदास जी ने अपने काव्य में भगवान राम को समाज के निम्न वर्ग से मित्रता करते ही दिखाया है चाहे उनका शबरी के जूठे बेर खाना हो या केवट जो निम्न जाति से आते हैं, को अपना मित्र मानना हो उनकी सहायता लेकर भगवान राम को अनुग्रहीत दिखाया है शायद कम ही लोगों को यह ज्ञात होगा कि भगवान राम के राज्याभिषेक में राम के सखा के रूप में एकमात्र जिन्हें आमंत्रित किया गया था वे केवट ही थे। मानस में ही हनुमान कहते हैं कि - कहहु कवन में परम कुलीना, कपि चंचल सभी विधि हीना।
यही हनुमान भगवान राम के अभिन्न सखा और परम भक्त भी हैं, शायद जटायु, जिनके बताने पर ही सीता माता को कहां ले जाया गया है जानना संभव हो सका, की चर्चा के बिना यह संवाद अधूरा ही रहेगा। जटायु का अंतिम संस्कार भी भगवान राम ने स्वयं ही किया था। ये सभी समाज के वंचित वर्ग के थे जिसे शूद्र कहा जाता है। अगर बाबा तुलसीदास को शूद्रों से परेशानी होती तो उन्होने कभी इनका वर्णन राम चरित मानस में न किया होता। अतः मेरी नज़र में इन दो पंक्तियों को बाद में राम चरित मानस में डाला गया है। भारत की राजनीति हमेशा से ही नकारात्मक ऊर्जा के साथ काम करती है। पर समाज को विभाजित करने की यह कोशिश सफल नहीं होनी चाहिये।
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