अदरा के पुड़ी
मार्कण्डेय शारदेय
1994 से त हम पटने के हो गइलीं।बाकिर; ओकरा पहिले त डुमराँवे के रहलीं।जब-जब अदरा नछतर चढ़ेला, तब-तब डुमराँव बहुते इयाद आवेला।बचपन से बड़ भइला तक के बहुते चित्र नाचे लागेलें।लइकाईं में जब अबहीं रहे-सहेके कवनो लूरो ना रहे, प्राइमरी आ मिडिल में पढ़त रहीं, जनेउओ ना दियाइल रहे, तबो बाबाजी के लइका के नाम प आगया-बिजे आवे त ब्राह्मण-भोज में जात रहीं।
अदरा में त कहहीं के ना रहे।हमनी किहाँ जसही ई नक्षत्र चढ़ल कि पंडीजी के माँग अधिक, पूर्ति कम।बात ई जे शायदे कवनो घर होखी, जेकरा किहाँ सत्यनारायण-कथा ना होखी।चाहे अमीर होखे भा गरीब।शायदे कवनो परिवार होखी जे अपना किहाँ ब्राह्मण के जूठन ना गिरवाई।माने; कम-से-कम एकहू ब्राह्मण के भोजन करवइबे करी।खूब ना त पुड़ी आ एकही सब्जी-तरकारी आ मीठा में हलुआ, आम, दही खियइबे करी।आदर ओतने, श्रद्धा ओतने आ प्रेम ओतने।तुलसी के पतई, छोट भा बड़।ई अइसन मान्यता रहलि जे अनचलुओ चल देसु। बालक ब्राह्मण में बाल गोपाले लउकसु।आखिर; भावे में नू भगवान होलें!
खैर; इयाद आवता जे अदरा में हमरा किहाँ पुड़ी के छिलबिल भइल रहत रहे।गरीबी रहलि, तबो केहू पुड़ी खाइल ना चाहे।हमरा-जइसन नन्हमुटियो पंडित रोजे चार-पाँच जगे कथा कहे जाउ।पहिले त कमजोर परिवार के लोग दछिना में दू आना, चार आना से आठो आना देसु। एक रुपया से दू रुपया तक देबेवाला बहुते कम रहन।पटने में पहिले पहिल हम सत्यनारायण कथा के दछिना एकावन पइले रहीं।ना त डुमराँव में पचीस रुपया से अधिका हमरा के केहू ना देले होई।तबो; जवन मिलो, उहे आन्हर सियार के महुआ मिठाई रहे।प्रसन्नता रहे जे बगली में अभाव में पइसा के प्रभाव रहे।आखिर; धनमदो त कुछ हइये नू ह! दरबे से सरबे, चहबे से करबे।
हँ; घरे-घर कथा होइबे करे, ना चाहतो खायेके परबे करे। काहेंकि; केहू ना चाहे जे बिना खियवले ब्राह्मण के जाये दीं।भले कहाउ जे हाथ सूखा त ब्राह्मण भूखा।बाकिर; केहू कवना पेटे खाई! एक जगे, दू जगे; खूब त तीन जगे खाई।खाई का; नाँव करी, यजमान के सन्तोष खातिर।कहीं कुछो विशेष सवदगर भा नीमन लउकल त एगो पुड़ी जुठार लेलस, ना त छाना बन्हवा लेलस।ऊ गइल घरे।अब घर के लोग खाउ, चाहे बीगो।खाउ, चाहे बीगो; एसे जे हम अपना घर में सबसे छोट पंडित।माने; प्रासंग्य।प्रासंग्य एसे जे ‘अमरकोश’ में अमर सिंह नया-नया प्रशिक्षु बैल, जेकरा कान्ही प काठ के प्रासंग रखल जाला, ओकर नाम प्रासंग्य देले बाड़ें। मध्यमा कइला के बाद भा पहिलहूँ बाप-भाई के बुझाइल जे इनिको के नाधल जाउ, त कतनो छान-पगहा तुराईं, नथाइये गइलीं, नधाइये गइलीं।जब हमरा लेखा आदिमी दू-तीन जगे से छाना ले आवे त हमरा अलावा बाबूजी आ तीनगो भाइयो रहन।हमरा से बड़ त चारगो रहनजा। बाकिर; बड़का भइया बहुत पहिले से अलगा रहन त उनुकर गिनिती का करीं! हँ; मझिला-सँझिला भइया त ट्यूशने पढ़ावे में अधिक रहे लोग, एसे ऊ दूनो कमे कथा बाँचे जासुजा। बाबूजी के बाद हमरा से बड़ दानी बाबा के नामो अधिका रहे आ कामो।ऊ कर्मकांड आ ज्योतिषे में मन लगवले रहन।एसे उनुकर ख्याति बाबुओजी से अधिके रहल।कहेके मतलब जे जतना जगे से हम छाना लियाईं, ओकरा से अधिका जगे से ऊ लोग।अगर दस-बारहो जगे से छाना आइल त मेहरारू लोग कतना खाई! एके चीझु रोजे-रोज खात उबियाइये नू जाई! केहू के दियाई त दियाई ना त फेकइबे नू करी!
हँ; इयाद आवता जे कोइरी टोला के लोग अदरा के उत्सव बड़ रूप में मनावसु।बड़ रूप में एसे जे एगो-दूगो ना; कम-से-कम पाँच भा एगारह पंडितन के भोजन करावसुजा।सभे धनी-मानी रहे।जमीनो-जायदाद से आ रुपयो-पइसो से।कहियो इनिका किहाँ त उनुका किहाँ।अब त बुजुर्ग लोग के नामो स्मरण में नइखे आवत।हँ; एगो रहन शिवपूजन जी।तनी-तनी इयाद परता जे साधु-लेखा दाढ़ी-बार बढ़वले रहसु।ऊ हमरा किहाँ आगयाँ देबे आवसु त ई ना कहसु जे एह दिन हतना आदिमी के भोजन करे आवेके बा।ऊ कहसु लेंवाड़ लेबेके बा।सुनिके बाबुओजी हँससु आ हमनियोका।उनुका गोतिया-देयाद के लोग साफ-साफ भोजन के निमन्त्रण कहसु।
हँ; हमनी किहाँ पहिले आग्याँ भा अगियाँ, ओकरा बाद बिजे के बात रहल।केहू-केहू एके बेरी आगियाँ-बिजे दूनो कहि देउ।मतलब रहे जे जहिया, जवना समय खाये जायेके बा, ओह दिन, ओह समय प खुदे पहुँचेके बा।केहू बिजे खातिर बोलावे ना आ सकी।
हम आगियाँ-बिजे प सोंचींला त स्पष्टे बुझाला जे ई दूनों शब्द आज्ञा-विजय के क्षेत्रीय रूप हवें।बाकिर; आज्ञा-विजय के केन्द्रीय अर्थ भोजन कइसे; बुझात नइखे।एक त आज्ञा, जेकर अर्थ आदेश ह।आज्ञा-आदेश त छोटे के नू दिया सकता! ब्राह्मण-भोजन में ब्राह्मण के निमन्त्रण भा नेउता त बड़ आ पूज्य मानियेके नू दियाला? तब प्रार्थना भा अनुरोध के नू प्रयोग होखेके चाहीं! भइल नू ई बेढंगा प्रयोग! पुनः बिजे प विचार कइल जाउ त खाइल कवन रण ह जेमें जीतल बिजे, विजय कहल गइल! बाकिर; प्रचलन में सँघतिया-नियन ई दूनों शब्द बाड़ें त विचार करहीं के नू परी! त; हमरा बुझाता जे पहिले राजा-महराजा भा कवनो बड़ आदिमी कवनो खुशी के समय गाँव के लोगन के आज्ञा देले होई जे हेह दिन सब लोग आके हमरा किंहाँ भोजन करी। ई सुनिके लोगन के लागन जे निमन्त्रण खातिर आज्ञा> आग्याँ> आग्या> आगियाँ> आगिया> अगियाँ> अगिया; ई शिष्ट प्रयोग ह।बुला; एही से ई सर्वग्राह्य आ सर्वप्रयोज्य हो गइल।‘गीता’ में भगवानो त कहले बाड़ें—
“यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः।
स यत् प्रमाणं कुरुते लोकः तदनुवर्तते”।।(3.21)
अर्थात्; श्रेष्ठ व्यक्ति जवन-जवन आचरण करेलें, लोग ओह-ओह आचरण के उपयुक्त, प्रामाणिक आ शिष्ट मानिके अपनावेलें।
विजय भा बिजे के बारे में सोचला प बुझाता जे क्षुधार्त लोगन के भोजन खातिर बोलावल गइल होई।भा; केहू भोजन देले होई।त; उनुका खातिर पेटभर भोजने जय-विजय भइल होई। आखिर भूख-पियास से प्राण-संकट अइला प अन्न-जल के प्राप्तिये नू सबसे बड़ उपलब्धि हिय! शायद; एही से ई जोड़ी चलि-निकललि।
हँ; एगो अउर जोड़ी एही से जुड़ल बिया—सबहरिये-घरजनवा।ई भले जोड़ी होखे, बाकिर अर्थभेद में दूनों शब्द परस्पर विरोधी बाड़ें।सबहरिये के मतलब परिवार के सब लोग निमन्त्रित बाड़ें। जबकि; घरजनवा के मतलब एक घर के एके आदिमी के आवेके बा।
खैर; अदरा में भोजन खातिर कहीं-कहीं से सबहिये आवे त कहीं से घरजनवो आवे।तबो; केकरा फुर्सत रहे खाये जाये खातिर! हमनी के पुड़ी का ओर त ताके के मने ना करे।जहाँ कथा बाँचे जाउ आदिमी, ओहिजो कसहूँ खा लेउ।जहाँ खाली खाये जायेके रहो, उहाँ तबे घर के केहू जाउ, जब जेकरा ओह दिन कथा ना कहेके रहो भा सम्बन्ध निभावल जरूरी बुझात रहे।
पटना में अदरा के ऊ उत्सव ओइसन ना लउकल, जइसन हमनी किहाँ रहल।एहिजा त लोग अपना किहाँ दलभरुई पूरी, खीर, सब्जी आ आम खा लेलें भा हित-मित्र के बोलाके खा-खियाके नेम-धरम पूरा क लेलें।आजु फेसबुकिया लोग किसिम-किसिम के भोज्य पदार्थन से थरिया सजाके लोगन के ललचावत अदरा मना लेलें।बाकिर; हमरा इयाद आवता जे जसहीं अदरा चढ़ी, कतहूँ से भगनाहा आई।हरियर-हरियर नीबू नियन बुला।ओकर भुजिया बनी।कहाई जे ई खइला से बरसाती बेमारी के असर ना होई, साँप-बिच्छू के जहर के प्रभाव ना रही भा कम रही।अब ऊ मिलता कि ना; पता नइखे।खइलो कतना बरिस बीतल।सुरुतो प नइखे।अब जब-जब अदरा चढ़ेला, तब-तब एह कृषिपर्व के डुमराँईं संस्कृति कचोटे लागेले।पता ना; विकासवाद आ कतने वाद-विवादन के उड़ान में हमरा क्षेत्र के लोग कतना पारम्परिक आ कतना विकसित बा!
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