द्वापर युग के महान विभूति महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास-अशोक “प्रवृद्ध”
महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित करने वाले विशाल बुद्धि के स्वामी नित्य नमनीय महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास महर्षि पराशर और माता सत्यवती के पुत्र थे। द्वापर युग की महान विभूति, महाभारत, अट्ठारह पुराण, श्रीमद्भागवत गीता, ब्रह्मसूत्र, मीमांसा जैसे अद्वितीय साहित्य दर्शन के प्रणेता वेदव्यास का जन्म आषाढ़ मास की पूर्णिमा की तिथि को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में कालपी में यमुना के किसी द्वीप में हुआ था। जन्म के समय इनका रंग श्याम, काला होने के कारण इन्हें कृष्ण और द्वीप में जन्म होने के कारण द्वैपायन- कृष्ण द्वैपायन की संज्ञा प्राप्त हुई। कहीं- कहीं उनके तपस्या करने से काले रंग के हो जाने का उल्लेख भी है। ये वसिष्ठ मुनि के वंशज थे। वसिष्ठ के पुत्र थे शक्ति, शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास। व्यास ने जबाली ऋषि की पुत्री वाटिका से विवाह किया था। उनका शुक नाम का एक पुत्र भी था, जिन्होंने आगे चलकर योगी शुकदेव नाम से प्रसिद्ध होकर राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई थी। कतिपय पौराणिक ग्रन्थों में वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद के संस्थापक ऋषि पराशर के पुत्र वेदव्यास की पत्नी को आरुणी नाम से सम्बोधित किया गया है। लेकिन इससे उत्पन्न इनके पुत्र का नाम भी शुकदेव ही बताया गया है। वेदव्यास के पांच विद्वान शिष्य- पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तुमुनि और रोम हर्षण थे। जन्म लेते ही युवा हो जाने वाले कृष्ण द्वैपायन पैदा होते ही अपनी माता सत्यवती को उनके स्मरण करते ही उनके समक्ष उपस्थित हो जाने की बात कह और आज्ञा लेकर तपस्या करने चले गये थे। कृष्ण द्वैपायन धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर के जन्मदाता थे और विपत्ति के समय सदैव छाया की भांति पाण्डवों का साथ भी दिया करते थे। द्वापर युग की अनेक घटनाओं के साथ ही महाभारत की क्रमानुसार घटित घटनाओं के साक्षी रहे वेदव्यास अपने आश्रम से ही हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना प्राप्त कर लेते थे, अर्थात हस्तिनापुर की समस्त गतिविधियों की सूचना उन तक पहुंचती थी, और वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी दिया करते थे। अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आने पर माता सत्यवती उनसे विचार- विमर्श हेतु स्वयं उनके आश्रम तक आती थी, अथवा उन्हें हस्तिनापुर के राजमहल में बुलवा लेती थी। महाभारत आदिपर्व 56/52 के अनुसार उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रन्थ की रचना की थी-
त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनोमुनि:।
महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम्।।
-महाभारत आदिपर्व 56/52
महाभारत ग्रन्थ का लेखन भगवान गणेश ने महर्षि वेदव्यास से सुन-सुनकर किया था। मान्यता है कि महर्षि वेदव्यास बोलते गए और श्रीगणेश इस ग्रन्थ को लिखते गए। महाभारत में अंकित कृष्ण द्वैपायन से सम्बन्धित आख्यान का वर्तमान में प्रचलित जातीय परम्परा से तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि कृष्ण द्वैपायन स्वयं वर्ण संकर थे। अर्थात वह एक अविवाहित मल्लाह की कन्या से एक ऋषि के वीर्य से उत्पन्न हुए थे। स्वयं सत्यवती ने इस घटना को अपने होने वाले पति महाराज शांतनु से भी छुपा कर रखा था। यह ठीक था कि ऋषियों की संगति में रहने से तथा धर्मशास्त्र और वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन से वे महाज्ञानी हो गये थे, परन्तु जीवन भर उनके मन मस्तिष्क पर अपने जन्म का संस्कार बना रहा था। साथ ही महाभारत में वे अपनी माता की सन्तान की उच्छृंखलताओं को ही तो लिख रहे थे। इसलिए महाभारत की कथा लिखने में कहीं- कहीं अतिश्योक्ति अथवा अयुक्तियुक्त व्यवहार की सराहना भी दिखाई देती है। फिर भी महाभारत में उन्होंने इतिहास की छिटकन के साथ ही तत्कालीन समाज, राष्ट्र और राज्य की व्याख्या की है, जिससे उस काल की अवस्था व समाज को समझने में सहायता मिलती है।
उल्लेखनीय है कि महाभारत की कथा का वह काल भारत में एक महान संकट का काल था। एक विदेशी संस्कृति का वैदिक संस्कृति से महान तथा भयंकर संघर्ष हुआ था। उसमें वैदिक संस्कृति तथा धर्म की विजय हुई थी। इन सभी विवरणियों को व्याख्या सहित और उसके कारणों का वर्णन वेदव्यास ने महाभारत में बहुत खूबसूरती से किया है। कौरवों और पांडवों में युद्ध भारतीय और अभारतीय संस्कृतियों और धर्मों के संघर्ष का प्रतीक था। इसमें भारतीय संस्कृति की विजय हुई थी। इसलिए कृष्ण द्वैपायन ने इस ग्रन्थ का नाम जय रखा था, अर्थात भारतीयता की जय की यह कथा थी। बाद में उनके शिष्यों ने इसमें और भी बहुत कुछ मिला दिया तो इसका नाम महाभारत रख दिया गया। दरअसल उस काल में भी सांस्कृतिक संघर्ष चलते थे, और उस संघर्ष के विषय में लिखना तत्कालीन विद्वानों के लिए आवश्यक था। वास्तव में महाभारत लिखने का उद्देश्य ही भारतीय और अभारतीय संस्कृतियों में संघर्ष के विषय में लिखना और उसके अंतर और संघर्ष का परिणाम बतलाना ही था।
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा दिव्य दृष्टि से देख इन्होंने जान लिया था कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जायेगा। और एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ्य से बाहर हो जायेगा। इसीलिए द्वापर युग में ही धर्म का ह्रास होते देख इन्होंने आदिकाल से ही श्रुति के रूप में चली आ रही परमेश्वरोक्त ग्रन्थ वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया। जिसके कारण वेदव्यास की संज्ञा इन्हें प्राप्त हुई और ये कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास बन गए। मान्यता है कि प्रत्येक युग में धर्म का एक-एक चरण लुप्त होता जाता है यह देखकर तथा मनुष्यों की आयु, शक्ति, बुद्धि और युग की अवस्था को देखकर लोक पर अनुग्रह की इच्छा से भगवान व्यास ने वेदों का विस्तार किया था। वेदों के विभाग करने के पश्चात ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया और इनके प्रचार- प्रसार की व्यवस्था कराई। उन्होंने इस ज्ञान का अध्ययन अपने पुत्र शुकदेव को भी कराया। अष्टादश पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास के शिष्यों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवें वेद के रूप में महाभारत की रचना की, और अपने शिष्यों को महाभारत का उपदेश दिया। श्रीमद्भागवत गीता विश्व के सबसे बड़े महाकाव्य महाभारत का ही एक अल्प अंश है। उनकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण ही उनको भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में उनकी जन्म तिथि आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। वैसे तो व्यास नाम के कई विद्वान हुए हैं, परन्तु चारों वेदों के प्रथम व्याख्याता व्यास ऋषि की पूजा आषाढ़ पूर्णिमा के दिन की जाती है। इस दिन वेदों का ज्ञान देने वाले आदिगुरू व्यास की स्मृति को बनाए रखने के लिए अपने-अपने गुरुओं को व्यास जी का अंश मानकर उनकी पूजा करने की परम्परा है। इस दिन केवल गुरु की ही नहीं अपितु कुटुम्ब में अपने से जो बड़ा है, अर्थात माता-पिता, भाई-बहन आदि को भी गुरुतुल्य समझ श्रद्धा भाव से पूजते हैं।
पुराणोक्तियों के अनुसार प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु, व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं। प्रथम द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, द्वितीय में प्रजापति, तृतीय द्वापर में शुक्राचार्य, चतुर्थ में बृहस्पति वेदव्यास हुए। इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। ऐसा माना जाता है कि वेद व्यास नाम वास्तविक नाम के बजाय एक उपनाम अथवा शीर्षक है क्योंकि कृष्ण द्वैपायन ने चार वेदों को संकलित किया था। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार महर्षि वेदव्यास स्वयं ईश्वर के स्वरूप थे। उनकी स्तुति करते हुए कहा गया है-
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।।
अर्थात् - व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। वसिष्ठ के पुत्र थे शक्ति, शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास।
पौराणिक मान्यता अनुसार सद्गुरु की कृपा से ईश्वर का साक्षात्कार भी संभव है और गुरु की कृपा के अभाव में कुछ भी संभव नहीं है। व्यास का शाब्दिक संपादक, वेदों का व्यास अर्थात विभाजन भी संपादन की श्रेणी में आता है। कथावाचक शब्द भी व्यास का पर्याय है। कथावाचन भी देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप पौराणिक कथाओं का विश्लेषण भी संपादन है। भगवान वेदव्यास ने वेद के ऋचाओं को संकलन कर चार भागों में बांटा, 18 पुराणों और उपपुराणों की रचना की।
ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद महाभारत की रचना आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है।
वैदिक विद्वानों के अनुसार वेदांत दर्शन - ब्रह्मसूत्र के रचयिता बादरी ऋषि के पुत्र महर्षि वादरायण हैं, लेकिन पुरातन ग्रन्थों में पराशर नन्दन व्यास को महाशाल शौनकादि कुलपतियों तथा गुरुओं के भी परम गुरु साक्षात वादरायण माना गया है। पुराणों में व्यास परमपूज्य घोषित किये गए हैं। यतिधर्म समुच्चय में कहा है-
देवं कृष्णं मुनिं व्यासं भाष्यकारं गुरोर्गुरूम।
कतिपय विद्वानों के अनुसार कृष्ण द्वैपायण वेदव्यास वेद, पुराण, महाभारत, वेदान्त-दर्शन (ब्रह्मसूत्र), सैंकड़ों गीताएँ, शारीरिक सूत्र, योगशास्त्र के साथ ही कई व्यास स्मृतियों के रचयिता हैं। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान का सम्पूर्ण विश्व विज्ञान एवं साहित्यिक वाङ्मय भगवान व्यास का उच्छिष्टत है। इसीलिए कहा गया है-
व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम् ।
यही कारण है कि कृष्ण द्वैपायण वेदव्यास के जन्म दिन आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का विशेष महत्व माना गया है। महर्षि वेदव्यास को कौरव, पाण्डव आदि सभी गुरु मानते थे। इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। महर्षि वेदव्यास ने स्वयं भविष्योत्तर पुराण में गुरु पूर्णिमा के बारे में लिखा है-
मम जन्मदिने सम्यक् पूजनीय: प्रयत्नत:।
आषाढ़ शुक्ल पक्षेतु पूर्णिमायां गुरौ तथा।।
पूजनीयो विशेषण वस्त्राभरणधेनुभि:।
फलपुष्पादिना सम्यगरत्नकांचन भोजनै:।।
दक्षिणाभि: सुपुष्टाभिर्मत्स्वरूप प्रपूजयेत।
एवं कृते त्वया विप्र मत्स्वरूपस्य दर्शनम्।।
अर्थात- आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को मेरा जन्म दिवस है। इसे गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन पूरी श्रृद्धा के साथ गुरु को कपड़े, आभूषण, गाय, फल, फूल, रत्न, धन आदि समर्पित कर उनका पूजन करना चाहिए। ऐसा करने से गुरुदेव में मेरे ही स्वरूप के दर्शन होते हैं।
महर्षि कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास के जन्म से सम्बन्धित कथा महाभारत और फिर अनेक पुराणों में अंकित है। कथा के अनुसार अति प्राचीन काल में गंगा के क्षेत्र में पर्वत नाम का एक राजा रहता था। एक बार उसने बलपूर्वक एक सुंदर अप्सरा शुक्तिमति को अपने भवन में बंदी बना लिया। उसके इस पकड़े जाने और बलात्कार किए जाने का समाचार चेदि राज बसु को मिला तो उन्होंने पर्वत से युद्ध किया और शुक्तिमति को छुड़ा लिया। शुक्तिमती के पर्वत से दो जुड़वा सन्तान उत्पन्न हुई, एक लड़का और एक लड़की। लड़की का नाम गिरीका हुआ। गिरिका जब बड़ी हुई, तो चेदिराज बसु (वशु) ने उससे विवाह कर लिया। कतिपय पुराणों में इन्हें सुधन्वा संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। महाराज चेदिराज अपने विमान में भ्रमण करने की बड़ी रूचि रखते थे। एक बार वे एक विमान में भ्रमण करते हुए बड़ी दूर निकल गए। दूर एक उद्यान में घूमते हुए, वहां के पुष्पों के मकरंद और सुगंधि से कामोद्दीपन होने से उनका वीर्य स्खलित हो गया। महाराज वशु ने जिनका विमान में भ्रमण करने से उपरिचर नाम पड़ गया था, अपने वीर्य को व्यर्थ जाने से बचाने के लिए उसको यंत्रों द्वारा अर्थात विधि पूर्वक सुरक्षित कर अपने विमान चालक श्येन द्वारा अपनी पत्नी गिरीका के पास भेज दिया। श्येन विमान में वीर्य लेकर राजधानी की और वेग से जा रहा था कि मार्ग में एक अन्य विमान से दुर्घटना हो गई, और वह सुरक्षित वीर्य गिर पड़ा। नीचे जल स्थल था और वहां ब्रह्माजी से श्रापित आद्रिका नाम की एक अप्सरा के हाथ में वह वीर्य पड़ गया। उसने उसको धारण कर लिया। इससे उसको दो संतान हुई। आद्रिका देवलोक से दण्डित और निष्कासित इस जल स्थल में मछेरों के बीच रहती हुई अति घृणित जीवन व्यतीत कर रही थी। वह उन मछेरों में वेश्या के रूप में रहती थी। देवलोक से निर्वासित होने से वीर्य सिंचन की क्रिया जानती थी। इसी कारण वह सुरक्षित वीर्य को पहचान गई और यह समझ गई कि यह किसी बड़े व्यक्ति का ही वीर्य होगा। उसको धारण कर सन्तानवती बन गई। उसको सन्तान होने में कष्ट होने लगा तो उसका पेट चीरकर सन्तान निकाली गई। यह दो बच्चे थे। एक लड़का और दूसरी लड़की। दाशराज, जो उन निषादों का राजा था, ने लड़की का पालन किया। और और लड़की का नाम सत्यवती रखा। बाल्यकाल से ही वह मछेरों में रहती थी। मछली उनका भोजन था। इसलिए उन सबके शरीर में से मछली की गंध आती थी। फिर भी सत्यवती अपने को एक राजा के वीर्य से अप्सरा की लड़की समझ मछेरों से विवाह के लिए तैयार नहीं होती थी। लेकिन कोई भला पुरुष शरीर में से निकलने वाली गंध के कारण उसके समीप नहीं फटकता था। एक दिन सत्यवती नौका में महर्षि पराशर को लेकर गंगा पार ले जा रही थी, तो महर्षि उस पर आसक्त हो गए और उससे संसर्ग करने की इच्छा व्यक्त की। सत्यवती ने उनसे संयोग में आपत्ति तो नहीं की, लेकिन वह विवाह कर ऋषि पत्नी बनने की इच्छा रखती थी। महर्षि ने उसे पत्नी बनाना तो स्वीकार नहीं किया, लेकिन उन्होंने आश्वासन दिया कि यदि गर्भ ठहर गया तो वह सत्यवती की रक्षा करेंगे। उन्होंने यह भी वचन दिया कि इस गर्भ का किसी को पता नहीं चलेगा। सत्यवती मान गई। नौका में महर्षि पराशर ने सत्यवती के साथ संभोग किया तथा गंगा के बीच एक द्वीप पर सत्यवती की रक्षा का प्रबंध कर दिया। द्वीप में सत्यवती के गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस पुत्र को महर्षि पराशर ले गए। उन्होंने उसका पालन पोषण कर और उसे शिक्षा दीक्षा देकर विद्वान बना दिया। वही बाद में महर्षि कृष्ण द्वैपायन के नाम से विख्यात हुए। पराशर ने सत्यवती पर एक और उपकार किया उन्होंने चिकित्सा की और सत्यवती के शरीर की दुर्गंध को निकालकर शरीर में एक विचित्र प्रकार की सुगंधि भर दी। इस सुगंधि के कारण ही सत्यवती का देवव्रत के पिता शांतनु से विवाह संभव हो सका। और शांतनु ने सत्यवती को उसके पुत्र को हस्तिनापुर की गद्दी की उतराधिकारी बनाने का वचन दिया और जिसे पालन करने का देवव्रत ने आश्वासन दिया, वह तो जगत प्रसिद्ध एक पृथक कथा ही है ।
राजा वशु उपरिचर की यह कथा महाभारत में भी कुछ अंतर के साथ वर्णित है। महाभारत आदि पर्व के 63 वें अध्याय में अंकित राजा वसु उपरिचर की कथा के अनुसार इंद्र की आज्ञा से राजा वसु ने चेदि देश का आधिपत्य स्वीकार किया था। वे अत्यंत धर्मात्मा राजा थे। इंद्र ने इस भय से कि कहीं वे स्वर्ग प्राप्त न कर लें उन्हें पृथ्वी पर ही ऐश्वर्य भोग और प्रभाव उपलब्ध करा दिया था। उन्हें स्फटिक से बना एक विमान भी दिया गया था। जिस पर राजा वसु इच्छानुसार आकाश मार्ग से भ्रमण करते थे। इसी कारण उनका नाम उपरिचर अर्थात ऊपर चलने वाला पड़ गया। कथा है कि उनका वीर्यपात हो गया और उन्होंने उस स्खलित वीर्य को संरक्षित कर अपने विमान चालक के माध्यम से कर अपनी पत्नी के पास उसे धारण कर लेने के लिए भेजा। परन्तु विमान चालक से वह संरक्षित वीर्य गिर पड़ा और उनके उस वीर्य को यमुना स्थित मत्स्य द्वारा निगलने पर उस मत्स्य से एक पुत्र और एक पुत्री उत्पन्न हुए। पुत्र आगे चलकर मत्स्य राज बने जिन्हें राजा उपरिचर ने स्वीकार कर लिया था, किन्तु पुत्री जिसके शरीर से मछली की गंध आती थी। उसे दाश राज को ही दे दिया था कि वे उसे पुत्रीवत पालित करें। यही युवा होने पर सत्यवती या मत्स्यगंधा कहलायी। उपरिचर के ही एक पुत्र वृहद्रथ कालान्तर में मगध देश के शासक बने। कथा के अनुसार एक बार नाव द्वारा पराशर मुनि को यमुना नदी पार कराते समय मत्स्यगंधा के रूप सौन्दर्य को देखकर उस पर मोहित हो पराशर ऋषि ने उससे संसर्ग का प्रस्ताव किया। थोडा ना-नुकुर के बाद सत्यवती के मान जाने पर पराशर ने उसके शरीर से निकलने वाली गंध को दूर करने के लिए गंध के स्थान पर सुगंध का वर दे दिया और उससे संसर्ग किया। उनके संयोग से सत्यवती योजनगंधा बन गई और उसने एक पुत्र को जन्म दिया जो बाद में व्यास ऋषि बने। वे काले होने से कृष्ण और यमुना के द्वीप पर पले होने के कारण द्वैपायन कहलाये। उन्होंने वेदों का विस्तार किया था इस कारण उन्हें वेद व्यास कहा गया।
पुराणों में इस कथा का अति विस्तार हुआ है और कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास के महिमा गान के क्रम में इसे अलंकारिक रंग दे दिया गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने के लिए आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई।उस के अंगों से मत्स्य गंध आने के कारण बाद में उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर नाव खेने का कार्य करने वाली उस युवती को एक बार पराशर मुनि को नाव पर बैठा कर यमुना पार करना पड़ा। पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले - देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ। यह सुन सत्यवती ने कहा, मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या, हमारा सहवास सम्भव नहीं है। यह सुन पराशर मुनि बोले, सुन्दरी! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी। इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी। शेष व्यास के जन्म की कथा पूर्ववत अन्य कथाओं की भांति ही है।
महर्षि कृष्ण वेदव्यास और उनके ज्ञानी, त्रिकालग्य होने के सम्बन्ध में भांति- भांति की कथाएं व मान्यताएं प्रचलित हैं। पौराणिक ग्रन्थों में अंकित कथाओं के अनुसार महाभारत युद्ध के बाद महर्षि वेदव्यास ने अपने ऋषि बल से मृत योद्धाओं को एक रात के लिए पुनर्जीवित कर दिया था। महर्षि वेदव्यास की कृपा से ही धृतराष्ट्र, पांडु व विदुर का जन्म हुआ था। कौरवों का जन्म भी इनके आशीर्वाद से हुआ था। इन्हें सप्त व अष्टचिरंजीवियों में शामिल और आज भी जीवित माना जाता है। महर्षि वेदव्यास ने जब कलयुग का बढ़ता प्रभाव देखा तो उन्होंने ही पांडवों को स्वर्ग की यात्रा करने के लिए कहा था। महर्षि वेदव्यास ने ही संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी, जिससे संजय ने धृतराष्ट्र को पूरे युद्ध का वर्णन महल में ही सुनाया था। पांडवों को द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा भी महर्षि वेदव्यास ने ही सुनाई थी। इसके बाद ही पांडव द्रौपदी स्वयंवर में गए थे। महर्षि वेदव्यास ने तेरह वर्ष पहले ही कौरवों सहित संपूर्ण क्षत्रियों के नाश होने की बात युधिष्ठिर को बता दी थी।
ऐसी मान्यता है कि व्यास आधुनिक उत्तराखंड में गंगा के तट पर रहते थे। यह स्थल महाभारत के पांच पांडवों के साथ ऋषि वशिष्ठ का भी अनुष्ठान घर था। भारत में महर्षि वेदव्यास का मन्दिर काशी से पांच मील की दूरी पर अवस्थित व्यासपुरी में विद्यमान है। महाराज काशी नरेश के रामनगर दुर्ग में भी पश्चिम भाग में व्यासेश्वर की मूर्ति विराजमान् है। जिसे स्थानीय लोग छोटा वेदव्यास के रूप में जानते हैं। मान्यता है कि वेदव्यास की यह सब से प्राचीन मूर्ति है। व्यासजी द्वारा काशी को शाप देने के कारण विश्वेश्वर ने व्यासजी को काशी से निष्कासित कर दिया था। तब व्यासजी लोलार्क मंदिर के आग्नेय कोण में गंगाजी के पूर्वी तट पर स्थित हुए। इस घटना का उल्लेख स्कन्द पुराण के काशी खंड में करते हुए कहा गया है-
लोलार्कादं अग्निदिग्भागे, स्वर्घुनी पूर्वरोधसि।
स्थितो ह्यद्य्यापि पश्चेत्स: काशीप्रासाद राजिकाम्।।
-स्कंद पुराण, काशी खंड 96/201
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