पत्नीःस्वर्ग या नर्क
(पुष्पा पाण्डेय)
आये दिन सोशलमीडिया पर पत्नी-विरोधी तरह-तरह की बातें पढ़ने-देखने को मिलती रहती हैं। असलियत में ये सिर्फ पत्नी-विरोधी नहीं, बल्कि नारी-विरोधी बातें होती हैं, जो पुरुष सत्तात्मक विकृत मानसिकता का जीता-जागता प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। अभी हाल में एक व्यक्ति ने लिखा था कि पत्नी-परित्याग से ही पुरुष का कल्याण और उत्थान हो सकता है। इसके लिए गौतम बुद्ध, तुलसी आदि से लेकर वर्तमान में नरेन्द्र मोदी तक का उदाहरण दिया था उन्होंने। पत्नी-पाणिग्रहण का परित्याग करने वाला कहकर, अटलजी और योगी आदित्यनाथ को भी घसीटा था उन महाशय ने। उनके कहने का सीधा अर्थ ये था कि पत्नी पुरुष के बन्धन और पतन का कारण बनती है सदा। जिन लोगों ने पत्नियों का त्याग किया, उनका हर तरह से विकास हुआ है। पुरुष इस कामना से विवाह करता है कि एक स्त्री का साथ मिलकर जीवन स्वर्ग बनेगा, किन्तु होता ठीक इससे विपरीत है प्रायः। जीवन स्वर्ग के वजाय नर्क और गर्क बन कर रह जाता है और पुरुष का जीवन धोबी के गधे जैसा होकर रह जाता है, जो निरंतर भरण-पोषण का बोझ ठोने को विवश होता है, परन्तु उसे न घर में सुख-चैन मिलता है और न घर से बाहर ही। परिणाम ये होता है कि वह किसी और की खोज में भटकने लगता है- किसी प्रेमिका (गर्लफ्रैंड) की खोज में। जहाँ उसे थोड़ी देर के लिए सुख-चैन-राहत मिलती प्रतीत होती है। आये दिन विवाह के तुरत बाद ही तलाक तक की नौबत आ जाती है। इसका कारण होता है आधुनिका पत्नियों का नकचढ़ी स्वभाव। आये दिन तरह-तरह की तुकी-बेतुकी फरमाइशों की फ़ेहरिश्त होती है। माता-पिता, भाई-बहनों आदि प्रियजनों से दूर खींचने का प्रबल प्रयास भी होता है आधुनिक पत्नियों का। सुख-शान्तिमय परिवार विखरने लगता है। माता-पिता को वृद्धाश्रम की तलाश करनी पड़ती है। आदि-आदि ऐसे अनेक बातें, अनेक तर्क दिए जाते हैं उन पुरुषों द्वारा।
जरा इन बातों की गहराई में जाएं। ऊपर दिये गए उदाहरणों की मूल बातों पर ध्यान दें। पत्नी के स्वरुप को पहचानें। पत्नी के धर्म-कर्म पर विचार करें। पत्नी के अधिकार और कर्त्तव्य को समझें-जानें, तो हो सकता है कि मन में आने वाले ये संकीर्ण कुविचार तिरोहित हो जाएं।
गौतम की पत्नी यशोधरा को ही लें। गौतम के प्रस्थान के पश्चात यशोधरा के मन के उद्गार को याद करें- ‘सिद्धि हेतु स्वामी गए यह गौरव की बात,किन्तु चोरी-चोरी गए यही बड़ा आघात, सखी वे मुझसे कह कर जाते....।’ इन पंक्तियों को पढ़कर क्या आपको ऐसा लगता है कि गौतम के जीवन में विकास में बाधक बनती उनकी यशोधरा ? ये तो गौतम की भूल थी, या अपने मोहजाल से भय था उन्हें, जो नींद में गाफ़िल पत्नी (पति परायणा, प्रेयसी) का परित्याग (धोखेपूर्वक) करके पलायन करने पर विवश किया। सच पूछा जाये तो गौतम कर्त्तव्य-च्युत साबित होते हैं यहाँ, क्यों कि सप्तपदी के सात वचनों की अवमानना ही नहीं, सीधे अवहेलना किया उन्होंने। अपमान किया उन्होंने शास्त्र-नियमों का। अब जरा तुलसी पर विचार करें। ज्ञात प्रसंग साफ जाह़िर करता है कि प्रारम्भ में तुलसी अति कामी प्रवृत्ति के पुरुष थे। काम-पीड़ित पुरुष सदा अन्धा(विवेकहीन)होता है। सर्प को रस्सी और मुर्दे को लकड़ी समझने की नासमझी कोई पागल या वुद्धिहीन व्यक्ति ही कर सकता है। ईश्वर द्वारा दिये गये पांच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियों में किसी का उपयोग नहीं किया तुलसी ने। और जब ये दस का प्रयोग ही नहीं हुआ तो इनको सम्भालने वाला ग्यारहवां इन्द्रिय— मन कैसे साथ देता सही दिशा में चलने में ! और मन ही विकल (वेचैन) हो तो फिर वुद्धि कैसे कामयाब होगी ! और जब वुद्धि ही साथ न दे तब विवेक वेचारा क्या करेगा ? रत्नावली ने सिर्फ इतना ही किया— रामबोला के कुण्ठित विवेक को, निम्न बुद्धि को, चंचल-विचलित मन को ठोंकर देकर सुधारने का प्रयास करती है, यह कह कर कि ‘जो प्रेम तुम मुझ हाड़-मांस की नश्वर काया पर दिखा रहे हो, उसका हजारवां हिस्सा भी अनश्वर राम के प्रति दिखाते तो तुम्हारा कल्याण हो जाता। ’ रत्नावली के इन चन्द शब्दों ने ही कठोर चाबुक सा प्रहार किया तुलसी के कामी-कोमल मन पर और सच पूछें तो इस प्रहार ने ही रामबोला को तुलसीदास बना दिया। तुलसी के महाकल्याण में सच पूछें तो रत्नावली का ही योगदान है। असली भूमिका है। वह न होती तो शायद तुलसी का जीवन नारकीय कामी पुरुष का जीवन होकर रह जाता।
सती-साध्वी पति परायणा स्त्रियों की गौरव-गाथा से वेद, पुराण, उपनिषदादि ग्रन्थ पटे पड़े हैं। जिन्हें किसी प्रकार का संशय हो, उन्हें इनका धीरज पूर्वक अध्ययन-मनन करना चाहिए। पत्नियों ने सदा पति का कल्याण ही चाहा है। रावण की पत्नी मन्दोदरी इसका ज्वलन्त उदाहरण है,जो बारम्बार समझाती है- धर्म-विमुख पति को सन्मार्ग पर जाने को प्ररित करती है। पत्नियां सदा पतियों की प्रेरणा-स्रोत रही हैं। छाया की तरह दुःख-सुख में साथ देती रही है। सती शाण्डिली का एक अद्वितीय उदाहरण है जो कुष्ठव्याधि ग्रस्त, वेश्यागामी पति को भी त्यागती नहीं, वरन् उसके आदेशों का पालन करती है। अन्धेरे रास्ते में माण्डव्य ऋषि से टकराकर,शाप ग्रसित होने पर ,उसने सूर्य के रथ को ही रोक दिया था, ताकि सूर्योदय ही न हो और उसका शापित सुहाग उजड़ने से बचे। सती सावित्री का तो कहना ही क्या। पूरे इतिहास में वह अकेली स्त्री है, जिसने बुद्धि पूर्वक यम से भी छीन लिया था अपने सुहाग को। अहिल्या, तारा, द्रौपदी, अनसूया, उर्मिला, माण्डवी, श्रुतकीर्ति, सीता आदि सैकड़ों उदाहरण हैं आदर्श पत्नियों के। पत्नी सिर्फ पत्नी होती है- कुलवधू होती है। पति ही नहीं,पूरे कुल की मान-मर्यादा की रक्षिका होती है। पुरुष के कुल-परम्परा की संवाहिका होती है। सच पूछें तो उसका अपना होता ही क्या है ? अपना भरापूरा परिवार ही नहीं, नाम-गोत्र तक छोड़कर आती है पति के कुल में।
विवाहिता पत्नी से प्रेमिका की तुलना किसी भी रुप में करना महामूर्खता ही है। प्रेमिका सिर्फ धन-ऐश्वर्य के तल पर साथ दे सकती है, वो भी क्षणिक। प्रेमिका सिर्फ और सिर्फ सुख की संगिनी हो सकती है, क्यों कि उसका सम्बन्ध ही शरीर के तल पर हुआ करता है। दुःख आते ही मुँह मोड़ लेती है। उसे सिर्फ धन-यौवन से सरोकार होता है। क्या कभी कोई उदाहरण मिला है कि किसी प्रेमिका ने वृद्धावस्था तक साथ दिया हो ? किन्तु पत्नी आजीवन साथ निभाने को कृतसंकल्पित होती है। शास्त्रों ने पत्नी के छः रुप सुझायें हैं— अर्द्धांगिनी, कामिनी, मंत्री, भगिनी, माता और दासी। धर्म-साधना में वह अर्द्धांगिनी की भूमिका में होती है, तो शैय्या-सुख में कामिनी की। परामर्श दात्री तो पत्नी सा कोई अन्य हो ही नहीं सकता। स्नेह रखने में वह बहन की तरह है, तो पालन-रक्षण में माता की तरह। दासीवत होकर, पत्नी जिस तरह की निःस्वार्थ सेवा कर सकती है, वैसा कोई अन्य क्या करेगा?
वर्तमान में पत्नियों के विरोध में जो बातें देखने-सुनने में आती हैं, वो वस्तुतः पश्चिमी सभ्यता की देन कही जा सकती है,जहां परिवार और कुल जैसी परम्परा का ही बिलकुल अभाव है। वहां सिर्फ ‘लव’ है, जो ‘प्रेम’ की गरिमा से काफी दूर का शब्द है। पश्चिम में तो ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं जहां अभी-अभी शादी करके,चर्च की सीढ़ियां उतरते पति की निगाह किसी और औरत पर पड़ती है और पलट कर नवविवाहिता को त्याग कर दूसरी स्त्री की ओर खिंचा चला जाता है। इस क्षणिक डांवाडोल लव का क्या भरोसा, जो दो-चार सीढ़ियों तक का भी साथ न दे पाये ? प्यार और प्रेम में गहरा फ़र्क है। प्यार शरीर के स्तर पर हो सकता है,जहां सिर्फ और सिर्फ वासना की दुर्गन्ध है, जब कि प्रेम मन ही नहीं,उससे भी ऊपर,आत्मा के स्तर की अदृष्य वस्तु है,जहां सिर्फ सुगन्ध ही सुगन्ध है।
किन्तु हाँ, इसके लिए आधुनिक स्त्रियों और पुरुषों - दोनों को समझना होगा - पति-पत्नी के अटूट रिश्ते की महत्ता को समझना होगा। पश्चिम की देखादेखी गटर के पानी की तरह बहना नहीं होगा, बल्कि गंगोत्री से चली गंगा की भाँति समुद्र से मिलन की आकांक्षा और सत्प्रयास रखना होगा। अन्यथा आये दिन दोनों पक्षों से शिकवे-शिकायतें तो होती ही रहेंगी, एक दूसरे का छीछालेदर करते रहेंगे। इसमें हमारी भारतीय संस्कृति का घोर अपमान है। पतिव्रता धर्म के साथ-साथ एकपत्नी परायणता को भी झुठलाया नहीं जा सकता। जीवन-यान के दोनों पहियों को संतुलित होकर, संयमित होकर चलना होगा। इसी में परिवार, समाज और राष्ट्रहित निहित है।
पुनर्मिलन
की प्रतीक्षा में....पुष्पा पाण्डेय
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