पचरुखिया आम
गाँव से पश्चिम धन खेतों में
ऊँची ऊँची मोटी मेड़,
मोटी मोटी डालों वाला
था अपना पचरुखिया पेड़।
सूनसान में लदे आम से
पर भयभीत किया करता,
दादा जी से सुनी कहानी
कौन नहीं डरता रहता?
रात की बात पुरानी हो गई
दिन में बैठे रहते प्रेत,
लम्बी लम्बी टाँगें उनकी
छूती रहतीं नीचे खेत।
कथा सुनाकर सत्यदेव की
लौट रहे थे दादा जी,
रात अँधरिया जाड़े की थी
ओढ़े हुये लबादा जी।
मंत्र उचरते सप्तशती के
कदम बढ़ रहे घर की ओर,
पर रुक रुक कर ही चलते थे
चारों तरफ अँधेरा घोर।
इसी बीच पीछे से कोई
नाक दबा कर यूँ बोला,
बाबा जी हम भी भूखे हैं
देदो बस अपना झोला।
दादा जी भी तंत्र सिद्ध थे
बोले सब आगे आओ,
लो प्रसाद लौटो सब वापस
जाओ मिलजुल कर खाओ।
बचपन वाला मन भी अपना
कथा रोज कह जाता है,
कभी कभी एकांत क्षणों में
हम सब को हर्षाता है।
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