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विहँसेगी पूनम की रात

विहँसेगी पूनम की रात

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परनिंदा का स्वाद अनूठा
लेते रहे हैं जीवन भर,
चौथापन भी कहाँ अछूता
पी ही रहे हैं जी भरकर।
हम हैं दूध के धोए ऐसा
समझ लिया है निज मन में,
शक्ति भले ही चली गई हो
नहीं मलाल जर्जर तन में।
स्वार्थ प्रबल होता ही है
कब रुकती है इसकी धारा,
तोड़ चुके कई प्रेम के बंधन
फिर भी नर है कब हारा?
विष की प्यास मिटाते फिरते
लोलुप बुजदिल कायर नर,
अन्त समय सम्मुख दिखता पर
नहीं उन्हें ईश्वर का डर।
ठहरो, पल भर सुन लो मानव
अपने मन की ही कुछ बात,
घना अँधेरा छँट जायेगा
विहँसेगी पूनम की रात।
रजनीकांत।
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