छीजते सम्बन्धों के दरवाजे पर
हर साल यह रेशमी धागा
दस्तक देने चली आती है
कहती है- बांध लो भाई !!
वह सत्तर बरस की बूढ़ी बहन
मृत्यु से जूझती , सिर पर सहती
तेज धूप
जा रही होती है नैहर की सुनसान गलियों में
ढहती हुई दीवारों
नोनिया लगे ईंटों से कहने
बांध लो भाई !!
वह ढूंढती है खण्डहर हुए
चेहरों के भीतर
अपने बाप की प्यारी मुस्कान
और
भौजाइयों के आंचल में
मैया का दूब धान
मधुमेह से ग्रस्त बूढ़ी बहन
निर्लज्जों के मुँह में डालती है मिठाई।
खा लो भाई !!
बहन के दरबाजे पर
जिसने बिताए थे कई साल
कई महीने , और कई कई दिन
उनके पास अब नहीं है
बहन के लिए - पल छिन
फिर भी यह तिरिया
छोड़ती नहीं हठ
कह कर आती है
यह मेरा आना अंतिम है भाई ।
बांध लो भाई
खा लो मिठाई।
© ज्योतीन्द्र मिश्र
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