"सूर्य की छाया : संज्ञा की कथा"
(पौराणिक महाकाव्य- कविता)रचना:----
डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
धरती जब सोई अंधकार में, नभ में फैली कालिमा,
उजियारे की ज्योति बन उतरे, सूर्यदेव परम प्रतिमा।
दक्षपुत्री संज्ञा रूपवती, पावन थी वह भावना,
ब्याही गई प्रभु सूर्य से, प्रारंभ हुई एक यामिनी कथा।
उष्ण था तेज सूर्य का, सह न सकी संज्ञा उस ताप को,
रची प्रतिछाया संवर्णा, सौंपा घर और पातिव्रत्य लो।
कह दिया - “गोपन रखना राज़, बनना मेरी छाया तू,
कभी स्मरण करोगी मुझे, दौड़ी चली आऊँगी तू।”
स्वयं बनी वह घोड़ी, छोड़ चली हिम की घाटी को,
तप में लीन, निराहार हुई, जपती रही प्रभु के जाप को।
दक्ष भी बोले - “स्त्रीधर्म है संग पति के ही रहना,
पिता के घर की शरण सती को शोभा नहीं है लेना।”
इधर संवर्णा बनी गृहलक्ष्मी, भर दी घर में संतानें,
पुत्र पाँच और कन्याएं दो, बढ़ी सूर्यवंश की कहानियाँ न्यारे।
पर शनि, संज्ञा की संतान, कर बैठा बाल्य में उद्दंड व्यवहार,
भूख लगी जब माता से माँगा, पर पूजा पूर्व नेवैद्य का विचार।
संवर्णा ने किया इंकार, शनि ने दिखाया क्रोध वहाँ,
लात उठाई माता पर, वह क्षण बना विधि का विधान।
शाप मिला — “पैर तेरा होगा विकृत, सीधा न रह पाएगा,”
चौंक पड़ा सारा लोक, क्या माँ भी ऐसा शाप दे पाएगा?
शनि ने सब कहा पिता से, सूर्यदेव को हुआ संदेह,
ध्यान लगाया अंतर्दृष्टि से, जाना रहस्य का अब लेख।
कहा — “यह संज्ञा नहीं, कोई छाया है गृह में आई,”
संवर्णा काँपी भय से, सत्य की कथा स्वयं सुनाई।
सूर्यदेव को क्रोध आया, फिर भी करुणा मन में छाई,
बोले — “शनि पुत्र, यह भी माता तुल्य है, मान इसे शाश्वत छाया भाई।
शाप व्यर्थ नहीं होगा, किंतु टेढ़ा होगा तेरा पग,
न बाधक बनेगा जीवन में, पर सदा रहेगा यह मग।”
अब सूर्य निकले खोज में, देखा संज्ञा तप करती निर्जन में,
बनी थी घोड़ी वह ध्यान मग्न, हिमगिरी की शांत नगरी में।
सूर्य ने भी लिया अश्व रूप, पहुंचे प्रिय के पास वे चुप,
संज्ञा ने देखा रूप अश्व का, मन में छा गया प्रभु का स्वरूप।
कहा — “सूर्य ही हो सकते हो, कोई और नहीं पास मेरे,”
बन अश्व भी तुम दीपित हो, दे रहे तप में साथ मेरे।
ऋतुमति थी वह उस वेला में, ध्यानस्थ भी, सहज समर्पण,
नासिका से वीर्य ग्रहण कर, गर्भ धारिणी बनी तपोवन।
अश्विनीकुमार हुए उत्पन्न, वैद्यशास्त्र के आचार्य महान,
प्राणियों के हित हेतु जन्मे, जीवन रक्षक, वेदों के जान।
फिर से संज्ञा लौटी गृह को, सूर्य बने आश्वासक प्राण,
छाया भी पूज्य हुई अब, संज्ञा भी पाए गौरव स्थान।
उपसंहार :--
यह कथा नहीं केवल वर्णन, यह है सन्देश युग-युग का,
धैर्य, तप, प्रेम और धर्म, सब कुछ समाहित इस एक पथ का।
सूर्य तेज हैं, पर स्नेह भी, संज्ञा शक्ति, संवेदना की राह,
शनि न्याय के अधिष्ठाता हैं, छाया और प्रकाश की चाह।
सृष्टि का पोषण सूर्य से ही, प्राण, बुद्धि, कर्म की धार,
और संज्ञा सी नारी तपस्विनी, जीवन की आदर्श पुकार।
तो हे मन! तू भी बन, तेज से संयम की रेखा,धर्म, धैर्य और प्रेम का बन तू भी एक उजास लेखा।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews #Divya Rashmi News, #दिव्य रश्मि न्यूज़ https://www.facebook.com/divyarashmimag
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com