भारतीय सभ्यता संस्कृति का परिचायक नमस्ते

भारतीय सभ्यता संस्कृति का परिचायक नमस्ते

-अशोक “प्रवृद्ध”

कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव के सर्वश्रेष्ठ उपायों में शामिल- सामजिक दूरी की अतिआवश्यकता के इस काल में लोगों के आपस में मिलने पर की जाने वाली अभिवादन की भारतीय नमस्कार प्रथा अर्थात नमस्ते करने की भारतीय परम्परा की श्रेष्ठता सम्पूर्ण विश्व में सिद्ध हो रही है। पाश्चात्य जगत में भी कोरोना वायरस, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इबोला, वेस्ट नाइल, सार, निपाह, जीका आदि त्वचा रोगों की स्थिति में भी संक्रामक रोग को एक सीमा तक फैलने से रोकने के लिए भारतीय अभिवादन का ढंग अर्थात तरीका अब वैज्ञानिक व युक्तिसंगत माना जाने लगा है। आपस में मिलने पर गले मिलना, माथा या हाथ चूमना, चरण स्पर्श करना आदि प्रेम व श्रद्धा प्रकट करने आदि प्रक्रियाओं की अपेक्षा सभी परिस्थितियों में हाथ जोड़कर नमस्ते करने की भारतीय मुद्रा सर्वाधिक निरापद व श्रेष्ठ साबित हुआ है। अभिवादन हेतु हाथ जोड़कर नमस्ते करने की परिपाटी भारत में आदि काल से ही प्रचलित है। वैदिक मतानुसार सृष्टि के आरम्भ में 1,97,29,40,121 वर्ष पूर्व तो कुछ विद्वान के अनुसार 1,96,08,53,121 वर्ष पूर्व परमात्मा के श्रीमुख से निकली वेदों के साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद, आरण्यक, रामायण, महाभारत आदि वैदिक ग्रन्थों एवं पौराणिक ग्रन्थों में नमस्ते शब्द का ही उल्लेख मिलने से स्पष्ट है कि नमस्ते, नमस्कार करने की प्रथा विश्व में सर्वाधिक पुरानी है और सहस्त्राब्दियों पूर्व से भारत में ऋषि-मुनि, मित्र-शत्रु, सज्जन-दुर्जन, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध समस्त जन दूसरे के अभिवादन के लिए हाथ जोड़कर नमस्ते, नमस्कार करते रहे हैं। बाद में लोगों के वैदिक ज्ञान से दूर होने पर अनेक पन्थ, मजहब, संप्रदाय आदि चल पड़ने पर चलाने वालों ने अभिवादन के विभिन्न प्रकार गढ़ लिए।

भारतीय संस्कृति में मुख्य रूप से तीन शब्द- नमस्ते. नमस्कार और प्रणाम, दूसरों के अभिवादन से जुड़े हुए हैं, परन्तु इन तीनों शब्दों के अर्थ में अंतर भी है। संस्कृत भाषा के शब्द नमस्ते में दो पद- नमः +ते हैं, जिसका अर्थ है- मैं आपका मान (मान्य) करता हूँ अर्थात मैं आपका सत्कार करता हूँ। इस प्रकार स्पष्ट है कि नमस्ते एक शब्द मात्र नहीं वरन यह एक पूर्ण वाक्य है। नम:+ते अर्थात मैं आपका मान्य करता हूँ, नमन करता हूँ, मैं आपके हृदय में विद्यमान दिव्य आत्म तत्त्व के प्रति नतमस्तक हूँ। संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार नमः पद अव्यय अर्थात विकार रहित है। इसके रूप में कोई विकार अथवा परिवर्तन नहीं होता, लिंग और विभक्ति का इस पर कुछ प्रभाव नहीं होता। नमस्ते का साधारण अर्थ सत्कार अर्थात मान होता है। भारतीय संस्कृति में आदरसूचक शब्दों में नमस्ते शब्द का प्रयोग ही उचित तथा उत्तम माना गया है, क्योंकि दो व्यक्तियों के मिलने पर उन दोनों का भाव एक-दूसरे का मान करने का होता है। ऐसे अवसर पर मानसूचक शब्द ही उचित है। इसी प्रकार नमस्कार शब्द भी संस्कृत के दो शब्दों नमः व कार के मेल से बना है। नमन अर्थात सत्कार अथवा आदर और कार का अर्थ है- करने वाला। बड़ों का आदर सत्कार करना, घर आए अतिथियों का आदर व अभिवादन करना शिष्टाचार का परिचायक है। इस प्रकार नमस्कार का अर्थ हुआ नमन करने वाला। प्रणाम शब्द प्र व नम शब्द से मिलकर बना है। प्र अर्थात अच्छी प्रकार या अच्छे भाव से आपको नमन करता हूँ।

उल्लेखनीय है कि वर्तमान भारत में भी राम-राम, जय गोपाल, जय राम, जय कृष्ण, आदेश, दंडवत, पालागन, गोड़लागी आदि मानयुक्त शब्द प्रचलित हैं, और संसार भर में अनेक सांप्रदायिक शब्द मान-अर्थ में प्रयुक्त किए जाते है, परंतु भावार्थ से विरुद्ध होने के कारण प्रयुक्त किये जाने वाले ये सांप्रदायिक शब्द का प्रयोग ठीक नहीं। सनातन वैदिकों में ॐ, श्रीराम, श्रीकृष्ण, मुस्लिमों में सलाम, वन्दगी, जैनियों में जय जिनेन्द्र,ईसाईयों में गुड मोर्निंग, इवनिंग व नाईट आदि कहकर अभिवादन किये जाने की परम्परा है, परन्तु इन शब्दों में एक-दूसरे के मान भाव है ही नहीं। ये सभी शब्द आदर-सत्कार प्रकरण से विरुद्ध होने से ठीक नहीं और त्याज्य है। नम: शब्द के अनेक शुभ अर्थ है यथा, पालन-पोषण, अन्न, जल, वाणी और दण्ड अर्थों का भी ग्रहण होता है। नमस्ते शब्द वेदोक्त है। वेदादि सत्य शास्त्रों, उपनिषद, आरण्यक, पुराण और रामायण, महाभारत आदि इतिहास ग्रन्थों में सर्वत्र नमस्ते शब्द का ही प्रयोग पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में नमस्ते कहकर ही एक दूसरे का अभिवादन किया जाता था। कालांतर में नमस्ते की भांति ही करबद्ध होकर नमस्कार भी कहा जाने लगा और फिर प्रणाम भी।

भारतीय सभ्यता- संस्कृति के परिचायक भारत के राष्ट्रीय अभिवादन नमस्ते की सही मुद्रा है -व्यक्ति के दोनों हाथों का छाती के सामने आकर दूसरे व्यक्ति के लिए जुट जाना और उसी समय व्यक्ति के मस्तक का झुक जाना। नमस्ते की यह मुद्रा करने वाले की शालीनता और विनम्रता को प्रदर्शित करती है, वहीं उसके अहंकारशून्य व्यवहार की भी झलक देती है। व्यक्ति की इस अवस्था का सामने वाले व्यक्ति पर बड़ा सकारात्मक व मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। नमस्ते करने वाले व्यक्ति के झुकने के समान ही नमस्ते लेने वाला भी झुकता है, हाथों को एक साथ छाती के पास लाता है और मस्तक झुकाकर विनम्रता के साथ दूसरे की नमस्ते का उत्तर देता है। इससे उन दोनों के मध्य सभी प्रकार के अहंकार की दीवार का विनाश होता है। ध्यातव्य है कि मानव मस्तिष्क अर्थात मस्तक की भी यह अपनी ही विशेषता है कि वह जिससे राग महसूस करता है, उसे देखते ही मुखरित हो उठता है, और मुखरित हो उठने से अर्थात खिल जाने से चेहरे की भावभंगिमा भी दूसरे को प्रभावित और आकर्षित करने वाली बन जाती है। जबकि जिस व्यक्ति से घृणा होती है, उसे देखते ही मस्तिष्क, मस्तक में बल पड़ने लग जाते हैं, माथे पर सलवटें आ जाती हैं। इसे ही माथा ठनक जाना भी कहा जाता है। इस अवस्था से व्यक्ति के चेहरे की भावभंगिमा बिगड़ जाती है, उस पर घृणा और द्वेष के भाव स्पष्ट दिखायी देने लगते हैं। संसार के हर व्यक्ति का अपना एक आभामंडल है। परन्तु इस आभामंडल को करबद्ध होकर नमस्ते कर अपने मनोनुकूल किया जा सकता है। प्रसन्नतापूर्वक नमस्ते करते ही सामने वाला व्यक्ति पहले से कुछ हल्का होता है, और उसका आभामंडल यदि आपके प्रति किसी प्रकार की घृणा से भरा हुआ होने पर भी नमस्ते की सकारात्मक ऊर्जा से संचरित हो उठता है। उसमें से नकारात्मकता के सारे तत्व निकल जाते हैं और व्यक्ति आपके साथ कुछ आत्मीयता के साथ बात करने लगता है। हाथ जोड़कर नमस्ते या नमस्कार अथवा प्रणाम करने से दोनों हाथों का आपस में स्पर्श व दबाव बनता है। हथेलियों का दबाव बनने से पूरे शरीर पर प्रैशर पड़ता है, जिससे रक्त की गति सही होती है। इससे यह पूरे शरीर के लिए हितकर सिद्ध होती है।मान्यता है कि विद्या, आयु में वृद्ध पुरुषों का नित्य अभिवादन और सेवन अर्थात सेवा करने का स्वभाव रखने वाले की अवस्था, विद्या, कीर्ति और बल इन चारों की नित्य उन्नति हुआ करती है।

स्वतः प्रमाण ईश्वरोक्त ग्रन्थ वेद में नमस्ते शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। जैसे- शिवो नामासि स्वधितिस्ते पिता नमस्तेऽअस्तु मा मा हिंसी: । यजुर्वेद के सोलहवें अध्याय के मन्त्र 21, 27,32 आदि में नमस्ते व नमो शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। सोलहवें अध्याय का प्रारम्भ ही परमात्मा रूद्र को नमन के लिए नमस्ते शब्द के साथ हुआ है – नमस्ते रूद्र मन्यवे। -यजुर्वेद 16/1 । वेद में परमेश्वर के नमन के लिए भी नमस्ते शब्द का ही प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद 2- 2-1 में परमात्मा को नमन करते हुए कहा गया है-

दिव्य देव नमस्ते अस्तु । - अथर्ववेद 2-2-1।

अथर्ववेद में संसार के सृष्टा परमात्मा के नमन के लिए नमस्ते का प्रयोग अनेकशः स्थानों पर किया गया है-

विश्वकर्मन नमस्ते पाह्यस्मान ।। – अथर्ववेद 2/35/4 ।

तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: । – अथर्ववेद 10/7/32 ।

यजुर्वेद में भी भगवान के नमन के लिए नमस्ते शब्द ही प्रयुक्त हुआ है । यजुर्वेद 36/21 में ऐश्वर्यसम्पन्न ईश्वर को नमस्ते किया गया है-

नमस्ते भगवन्नस्तु।

वेदों में राष्ट्राध्यक्षों, बड़ों के लिए भी नमस्ते शब्द प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद 1/10/2 में राष्ट्रपते के लिए नमस्ते शब्द प्रयोग किया गया है-नमस्ते राजन।इसी प्रकार अथर्ववेद में नमस्ते शब्द का प्रयोग दण्डदाता न्यायाधीश के लिए -तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे। - अथर्ववेद 6/28/3 तथा उपदेशक और अध्यापक के लिए -नमस्ते अधिवाकाय । -अथर्ववेद 6/13/2 कहकर किया गया है। देवी अर्थात स्त्री के लिए भी वेदों में नमस्ते शब्द प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में माननीया महनीया माता आदि देवियों के लिए नमो, नमस्ते शब्द ही प्रयूक्त हुआ है-

नमोsस्तु देवी।– अथर्ववेद 1/13/4,

नमो नमस्कृताभ्य: । -अथर्ववेद 11/2/31 ।

बड़े, छोटे बराबर सब को नमस्ते करने की शिक्षा वेदों में दी गई है-

नमो महदभयो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्य: । – ऋग्वेद1/ 27/ 13,

नमो हृस्वाय नमो बृहते वर्षीयसे च नम: ।– यजुर्वेद 16/ 30,

नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नम: । – यजुर्वेद 16/ 32 ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि वेद में ईश्वर से लेकर समस्त जनों के लिए नमस्ते शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। उपनिषद ग्रन्थों में भी नमस्ते शब्द का प्रयोग सर्वत्र हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्मवादिनी गार्गी महर्षि याज्ञवल्क्य को नमस्ते याज्ञवल्क्याय, कठोपनिषद् में यमाचार्य अपने अतिथि नचिकेता को नमस्ते ब्रह्मन् ! स्वस्ति… कहकर संबोधित करते नजर आते हैं। वाल्मीकि रामायण में महर्षि वशिष्ठ विश्वामित्र ऋषि को नमस्तेऽस्तु गमिष्यामि मैत्रेणेक्षस्व चक्षुषा कहकर मित्रभाव को व्यक्त करते हैं। महाभारत में गान्धार देश के निवासी दुर्योधन के मामा शकुनी युधिष्ठिर का संबोधन नमस्ते भरतर्षभ कहकर तथा युधिष्ठिर भी श्रीकृष्ण का संबोधन नमस्ते पुंडरीकाक्ष कहकर अपना मनोभाव व्यक्त करते दिखते हैं। पौराणिक ग्रन्थों में भी अनेकशः संदर्भों में नमस्ते का ही प्रयोग अंकित है। गरुड़ पुराण में 56 बार, देवी भागवत पुराण में 66 बार, ब्रह्माण्ड पुराण में 95 बार, कूर्म पुराण में 99 बार, शिव पुराण में 148 बार अभिवादन के रूप में नमस्ते का ही प्रयोग किया गया है।महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार और यथायोग्य व्यवहार के अंतर्गत हाथ जोडक़र व मस्तक झुकाये नमस्ते, वन्दनाकरने की मुद्रा को सर्वश्रेष्ठ बताया है और इसे सन 1875 से आर्य समाज में अनिवार्य करते हुए वैदिक अभिवादन की संज्ञा प्रदान की थी। उनकी प्रेरणा से भारतीय प्रचारकों नेअनेक देशों में अभिवादन हेतु नमस्ते करने की भारतीय परम्परा को विशेष प्रसिद्धि दिलाई। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध व बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में वेद प्रचार करने वाले भारतीय विद्वान प्रचारकों ने इंगलैंड, अमेरिका, अफ्रीका, मॉरिशस, त्रिनिदाद, फिजी, गयाना, बर्मा, नेपाल आदि अनेक देशों में नमस्ते की परंपरा का भी प्रचार किया। जिसके कारण सम्पूर्ण विश्व में आज भी भारतीय अभिवादन के रूप में ह्स्तबद्ध नमस्ते करने की भारतीय मुद्रा को ही जाना जाता है। कोरोना काल में अमेरिका, इजराइल व अन्य देशों को भी नमस्ते शब्द भा रहा है।प्रधानमंत्री मोदी ने कई बार नमस्ते ट्रंप कहकर भारत के राष्ट्रीय अभिवादन को श्रेष्ठता प्रदान की।इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू व डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाथ जोड़कर नमस्तेकरने की मनमोहक अदा को संसार देख देख चुकी है। वर्तमान में कोरोना वायरस की विभीषिका को नियंत्रित रखने के लिए विश्व के अनेक देश नमस्ते के परंपरागत ढंग को अपना रहे हैं। भारत की सभ्यता- संस्कृति एवं ज्ञान परंपरा की सर्वश्रेष्ठता को प्रमाणित करने के लिए यह उत्साहजनक उदाहरण है।
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