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दीक्षा

दीक्षा

मार्कण्डेय शारदेय
हमारे यहाँ शिक्षा के साथ-साथ दीक्षा का भी बड़ा महत्त्व रहा है।शिक्षा जहाँ अपरा विद्या (सांसारिक ज्ञान) है, वहीं दीक्षा परा विद्या (आध्यात्मिक ज्ञान)।शिक्षा ही हमें सांसारिक कार्यों के योग्य बनाती है, जिससे हम पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।वहीं परा विद्या दीक्षा हमें अध्यात्म की ओर ले जाती है और परमात्म-साधना का मार्ग प्रशस्त करती है।इसलिए दीक्षा जितना आवश्यक ब्रह्मचारियों, संन्यासियों, वेैरागियों के लिए , उतना ही यह गृहस्थों के लिए भी।इसीलिए तन्त्रसार में कहा गया है:
“अदीक्षिता ये कुर्व्वन्ति जपपूजादिकाः क्रियाः ।
न भवन्ति प्रिये ! तेषां शिलायामुप्तबीजवत् ॥
देवि ! दीक्षाविहीनस्य न सिद्धिर्न च सद्गतिः ।
तस्मात् सर्व्वप्रयत्नेन गुरुणा दीक्षितो भवेत् ॥"
अर्थात्; (शिव पार्वती से कहते हैं) दीक्षारहित लोग जो भी पूजा-पाठ, जप-अनुष्ठान आदि धार्मिक क्रियाएँ करते हैं, वे सभी वैसे ही निष्फल होते हैं, जैसे पत्थर पर बीज बोना।हे देवि! दीक्षाहीन को न तो सिद्धि प्राप्त होती है और न सद्गति ही।इसलिए प्रयत्न कर (सुयोग्य) गुरु से दीक्षा अवश्य ग्रहण करनी चाहिए।

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