जीवन के सफर में‌‌ ,रुद्दर बाबा|

जीवन के सफर में‌‌ ,रुद्दर बाबा|

‌भारत साधना का महानतम स्थान है,जहां युगों से ऋषियों ने अनेक विद्याओं के अन्वेषण तथा अनुसंधान से लोक हित के अनंत कार्य किए। शास्त्र के साथ शस्त्र,मंत्र के साथ तंत्र की उद्भावना और विनियोग का संयोग आर्ष परम्परा की देन है।
‌इस थरती पर एक से एक मान्त्रिक और तान्त्रिक हुए जिन्होनें अपने चमत्कार से इतिहास को चमत्कृत किया। गयाजी का परिवेश और परित: भूमि पृथक नहीं रही।श्मशान सिद्धि कर्ण पिशाच सिद्धि और न जाने कितनी सिद्धियां बहलाती रही हैं।
‌गयाजी से पश्चिम लगभग 28कि मी पर गुरारू स्टेशन से 8कि मी वायव्य कोण पर एक गांव है मंगरौर।दस मीटर चौडी़,15मीटर गहरी टेढ़ी मेढ़ी बरसात में बलखाने वाली और गरमी में सदा नीरा नेरा नदी पास ही बहती है आज भी। गांव तो बहुत छौटा है पर आज इसकी ख्याति कलकत्ता बंबई तक फैल गयी है।
‌कहते हैं न,एक सपूत गुणवंत हो जाए तो संसार जगमगाता है। एक रूदर ने इलाके में नाम किया ऐसा कि दूर-दूर से लोग आने लगे। बचपन से उसे रूदर ही कहा जाता था पर उसका स्कुलिया नाम था रूद्र नाथ मिश्र।बचपन में ही माता पिता का टूअर हो गया था।मुझे आज भी याद है जब मेरे गांव के पोखरा पर वाले स्कूल में बड़े थैले में एक स्लैट मात्र लिये डोरी वाले पैंट पहने जैसे तैसे आ जाता था।
तब पांच- छ: किमी में तीसरे तक यही स्कूल था।एक ही गुरूजी थे। बरसात में पानी पोखरे में लवा लव भर जाता‌ है। ढाई तीन मीटर लम्बे अनजान‌ पौधे किनारे किनारे उग जाते जिसकी टहनियों का उपयोग दंड देने के लिए या डराने के लिए‌‌ गुरूजी किया करते। रूदर को क्या किसी को भी यहां के दंडविधान मोगलीडंडा, कुरसी बैठउआ से स्कूल आने में तनिक भी रुचि नहीं रहती।वह तो घर के निर्दय पुरुषों का दुराग्रह कि धरा पकड़ा कर पहुंचा दिया जाता। रूदर बेचारा कभी कभी श्यामसुंदर चा के साथ गरगराता पहुंचता। उसपर छडी़ और गुरूजी की नकली डरावनी सूरत का असर नहीं होता।मानो मारिए कितना मारेंगे ।
किसी त‌रह तीन साल कट तो गया‌ पर रूदर
तो अभागा पहले ही स्कूल आने‌ से बचता रहा।
समय ने लंबी‌ पारी खेली। हम लोग गया में रहने लगे।
एक दिन मेरे‌ अ‌नन्य मित्र अर्जुन प्रसाद मेरे पास आए। कहने लगे ,उनके बड़े भाई का लड़का पंद्रह बीस दिनों से लापता है, खोज‌ बीन हुई इस्तहार भी निकलवाया।कहीं पता न चला।
सुनते हैं ,गुरारू के पास एक गांव में कोई रूदर बाबा रहते हैं।देखते सुनते हैं,कलकत्ता बंबई ‌से भी लोग उनके पास आते हैं ।
उनके पास चलना चाहते हैं शायद कुछ उपाय बता दें -अर्जुन बोले।
ठीक है,चला जाए। कल सुबह गया‌से मुगल‌सराय‌पैसेंजर‌ है। उसी से‌ चला जाए ।कल हमलोग स्टेशन पर मिलें। दूसरे दिन हम इसमाइलपुर आ‌ गये। उन दिनों पैदल चलने के‌ सिवा‌ कोई‌ उ‌पाय‌ नहीं था। विचार हुआ कि पहले अपने गांव‌ कनौसी चलें। वहां से भैया‌ को साथ लेकर मगरौर चल देंगे। यही हुआ। गांव पहुँचे तो भैया‌ आश्चर्य‌ करने‌‌ लगे ।अचानक कैसे? सारी बातें‌ बता दीं ,कहा ठीक है ,चलते हैं।इन दिनों उसका यश बहुत‌ हो रहा है। यह वही रूदर है जो ‌पोखरा पर के‌ स्कूल में कभी आता और कभी धरा पकड़ा कर आता।बचपन इसका जितना कष्ट‌‌ में बीता भगवान‌ दुश्मन को भी‌ न‌ दे। गांव के बाहर‌‌ जो मंदिर है उसी‌ में पड़ा‌‌ रहता।
शाकद्वीपी ब्राहमण होने के नाते बच्चा हो या बूढ़ा‌ लोग‌ बाबा बोलते हैं ।कुछ लोग तो मजाक‌‌ के रूप में ठूल करते--ऐं बाबा,हम बजार‌ जाइत ही,हमर कममा हो जाएत ? हां ‌,हो‌ जैतो। और सच में जब काम हो जाने पर कुछ खाने का‌ सामान लाकर देता।इस तरह यह सगुनियां बाबा बन गया । इतना तो‌ तय है कि इसे‌ देवी की कृपा प्राप्त थी। एक दुखद पहलू‌ यह भी कि किशोर अवस्था में गांव के ही मनचलों ने सूर्य को एकटक देखते‌ रहने की चुनौती दे दी।बस वह भी लग गया।नतीजा,दोनों आंखें चनक गयीं। संसार में अन्धकार पसर गया।
भारी मन से मैंने पूछ लिया--फिर उनका काम कैसे चलता‌ है?
बोले, जानते नहींं अजगर के दाता राम। उस में देवी के प्रति पहले से भी अपार श्रद्धा बढ़ी। किसी को साथ लेकर विंध्यवासिनी देवी,कामाख्या आदि तक हो आए। गयाजी की मंगला गौरी तो प्रत्येक मंगलवार को जाड़ा ,गर्मी ,बरसात जाते ही।इस तरह देवी मंदिर में गुड़रू के बाबू नूनू सिंह का सहयोग मिलता। कुछ तांत्रिकों से भी संपर्क हुआ।स्वान्त: सुखाय साधना पारमार्थिक बनने लगी। देवास लगने लगा, भीढ़ बढ़ने लगी ,जिसको लाभ मिला वह प्रचार का साधन बन गया।
इस तरह गप करते हम लोग मंगरौर पहुंचकर उनके देवास स्थल गये। वे वहां थे नहीं ।मैंने सोचा जब यहां आ ही गये हैं तो जरा श्यामसुंदरचा से मिल ले।हमारे घर हर काज प्रयोजन में जेवारी गोतिया के नाते जरूर आते । चले पर राह में ही किसी ने बताया अब वे दुनिया में नहीं हैं। लौट ही रहे थे कि रूदर मिल गये।मुझको तो शायद नहीं पहचाना पर भैया से लिपट गये । मेरी ओर इशारा करते हुए कहा यह रामजी हैं ।
हां। हां जो गयाजी चले गये थे।आइए,आइए, देवास तरफ जा रहे हैं।
हम लोग भी इसी काम से आए हैं।
देवास स्थल एक फूस की झोपड़ी ,दरबाजा नहीं ,बाहर से खुला।
बीस-पच्चीस लोग आपस में खूसुर फुसुर कर रहे थे।
लगता है विगत दिनों में दूर से आए लोगों के बारे में बाते करते हों।
रूदर दोनों हाथों को विभिन्न मुद्राओं में दीवारों के साथ छत की ओर सांकेतिक वार्ता की तरह कुछ करते दिखे मानो दिगबंधादि प्रक्रिया से गुजरते हों। फिर जमीन में तर्जनी से कुछ लिखते कोष्ट बनाते दिखाई पडे़। लेकिन क्या लिखा गया,सब अपश्य था।
कुश की एक चट बिछा बैठ गये। शिर ऊपर किया।फिर सामने एक कटोरा रखा।कटोरे के अंदर बाहर कुछ बुदबुदाते हुए हाथ से साफ किया। किसको डलिया लगाना है, लाइए।झट से अर्जुन ने कागज की पुड़िया में बंधा चावल डाल दिया। रूदर दो मिनट तक चावल उछालते रहे फिर बोले,डलिया पूरब से आई है।शहर का है घर का दरवाजा दक्खिन गली में खुलता है।डलिया लापता का है।जीव है।बारह -पंद्रह साल का है।किसी के साथ गया है ।अभी दक्खिन में है। मिल जायगा ।हनुमत आराधना करें।
दूसरा---जोर से बोला।
दूसरी डलिया पर विचार शुरू हुआ।
हां,ई डलिया चोरी ‌का‌ है।धातु का सामान गया है।घर में ही है।‌दोनों हाजिर है।
अजीब बात है।चोरी हुई और घर में है? यह कैसी‌ बात! लेकिन इतना सुनते ही दो महिलाएं आपस में झगड़ पड़ीं,गाली-गलौज पर उतर आईं। साथ में आया पुरूष सुलह में लगा‌ था। पता चला‌ झगड़ने वाली औरतें उसकी पत्नियां थीं ।आंगन घर बांट कर दोनों अलग अलग रहती‌ थी।बड़ी का कटोरा‌ था जिसे‌ चुराकर छोटी अपने पास छिपाकर रख ली थी।
इसके बाद एक और डलिया खुली।अब की खेत‌ से फसल चोरी का‌ मामला‌ था।रूदर ने‌ कहा--मुद्दयी,मुद्दालय‌ दोनों हाजिर है।जो साथ आए‌ थे उनमें से एक ने बड़े गुस्साए लहजे में पूछा हम चोराए हैं?रूदर बोले, नहींं लेकिन अव्वल‌मुद्दालय आप हैं आपने ही‌ काटने का आदेश‌ दिया था। अब ‌तो लाठी निकालने की बात होने लगी।
भैया बोले, अब हम लोग‌ घर चलें,यहां रहना ठीक नहीं बस हम लौट गये।उसी रात हम गया आ गये।
अर्जुन के घर में कितनी हनुमत आराधना हुई होगी पता नहीं पर‌ लगभग तीन चार माह बाद अर्जुन के मंझले‌ भाई के पास खबर‌ आई कि लापता बच्चा बंबई के एक केयर सेंटर में है ले जाइए। लोग गये। ले आए।
एक दिन नूनू बाबू से भेंट हुई। रूदर के बारे में पूछा।बेचारे रोने लगे।बोले हत्यारों‌ ने ‌मार डाला। सच‌ जो कहता था ।कभी उसने किसी को जीव‌हिंसा के लिए नहीं कहा। सात्विक साधना‌ का वह साधक नहीं रहा।

डा रामकृष्ण/ गया
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