दिनकर का उदय भोर के साथ
चिड़यों की चहक, मुर्गे की बांग,
चक्षु खुले मजदूर के
और व्याकुल हो उठे हाथ।
मरीच की औज ने भरा जोश,
वातावरण मचल उठा,
परिवेश हुआ मदहोश।
रजनी की दूर हुई नमीं,
सौंधी-सौधी मिट्टी की महक सी थमीं,
और किरण-पुंजों ने पिलाई गर्मी
पेड़-पौधे पत्ते तब
समीर संग हिलने लगे।
जमीं पर बिखरी छटा,
नमीं से अंधेरा हटा
पवन और रोशनी दवा सी लगी,
धरा से अंकुर फूटने लगे।
मजदूरों ने छेड़ी तान,
बाल-बूढ़े, युवा-जवान,
ले साथ अपना जीवन अपने उर
नंगे पैर सब चलने लगे।
तन से स्वेदज से बहने लगी धार,
बदन को चीर निकली बयार,
काया को छेड़
भूमि पर ऐसे पड़े
जैसे नगराज पर
हिम मोती से पिघलने लगे।
दीनता की आग से
चक्षु क्षुधा मिटती नहीं,
फिर हताहत हुई तरुणाई
कलेवर हुआ छत-विक्षत,
तकदीर में कंगाली, पीने को पसीना,
उदर की आंते सब
जल जैसे उबलने लगे।
तपिस का दौर मद्यम हुआ
और किरण ताने ठंडी हवा,
राहत की श्वास मिली,
संग सहचर-सखा गली-गली,
कुटिया में रात बिताने,
मजदूर वापिस तब चलने लगे।
दवा की कमीं महसूस हुई,
हाथ पैर में पड़े छाले,
हाथ-पैसा-रुपया-कौड़ी नहीं,
किश्मत के मकान पर पड़े ताले,
पड़ें ठंडे पैर जैसे ही वसुंधरा पर,
मजदूर के पैर फिर जलने लगे।
मजदूर के पैर फिर जलने लगे।
राजेश कुमार लखेरा, जबलपुर।
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