भर मुंह में रसगुल्ले (कविता)
अभी कल तक जो लोग-
लगाते रहे आरोप पर आरोप,
आज वे सब मिलकर गले-
कह रहे हैं--एक साथ चलें।।
कहीं न कहीं-
कुछ न कुछ बात है जरूर,
बर्ना एक जगह आया क्यों-
परस्पर विरोधी धुर,
शायद नया चाल हो कुछ-
कि अब किसको छलें।।
या फिर उनलोगों को डर है-
खोने को अपना पद,
तभी तो जमावड़ा लगाकर-
पिटवा रहे हैं खुदका भद,
असमय में आखिरी क्यों?
एक दूसरे के दिल मचले।।
जो आदमी है रहा सूम-
क्यों हिलाने लगा दुम,
जो चेहरा नहीं चाहते थे देखना-
वे गाने लगे तराने हम तुम,
दोनों उछल रहे है-
भर-भर मुंह में रसगुल्ले।।
--:भारतका एक ब्राह्मण.
© संजय कुमार मिश्र 'अणु'
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