भाषा
कुछ लोग जब करते हैं
आपस में वार्तालाप
चर्चा खुद की हो
या किसी और की
उनके वाक्यों में कुछ शब्द
होते हैं ओछे ,अमर्यादित ,असहज
जो बोले जाते हैं निःसंकोच
उनके लिए वे शब्द
बन गये हैं औपचारिक
ऐसे शब्द पा रहे हैं विस्तार
अब हर कहीं
जिसमें खोती जा रही है
लोगों की मातृ जुबान
राह से गुजरते हुए
मैं सुन लेता हूँ अक्सर
उन शब्दों को
तब सोचता हूँ भारी मन से--
भाषा, जो सिर्फ साधन ही नहीं
वैचारिक आदान- प्रदान का
बल्कि माध्यम है हमारी अस्मिता,
सामाजिक- सांस्कृतिक पहचान का
यदि भाषा घिर जायेगी
अपशब्दों की परिधि के बीच
तो रुक जायेगा भाषा का विकास
मनुष्य लौट जायेगा
आदिम अवस्था के उस नाद की तरफ
जब लोग थे भाषा विहीन
कहलाते थे असभ्य।
-- वेद प्रकाश तिवारी
(देवरिया) उ०प्र०)
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