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पूरी दुनिया मे सबसे ज्यादा आपके पुराणिक देव गणपति का ध्वजा फहरता है ।

पूरी दुनिया मे सबसे ज्यादा आपके पुराणिक देव गणपति का ध्वजा फहरता है ।

क्षीरोदं पौर्णमासीशशधर इव यः प्रस्फुरन्निस्तरङ्गं 
चिद्व्योम स्फारनादं रुचिविसरलसद्बिन्दुवक्रोर्मिमालम्।
आद्यस्पन्दस्वरूपः प्रथयति सकृदोङ्कारशुण्डः क्रियादृग्
दन्त्यास्योऽयं हठाद्यः शमयतु दुरितं शक्तिजन्मा गणेशः॥


संकलन अश्विनीकुमार तिवारी 
सर्वप्रथम चिद्शक्ति से स्फुरित होता हुआ क्षीर समुद्र पौर्णमासी चन्द्र के समान जो निस्तरंग स्फुरित हो रहा है , जहां कि इस चिद्व्योम में नादतत्व का फैलाव हो रहा है , जो तेजोमयी बिन्दुमाला धारण किये हुए हैं , आदि शिवशक्ति का स्पन्द जिनका स्वरुप है , ॐकार रूपी शुण्ड से जिनकी क्रियाशक्ति प्रकट हो रही है , दन्त जिनके मुख से निकला हुआ है , शक्ति से उत्पन्न  होने वाले जो गणेश है वे हमारे क्लेशों को दूर करें...
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

पूरी दुनिया मे सबसे ज्यादा आपके पुराणिक देव गणपति का ध्वजा फहरता है । जापान में भगवान गणेश को पूजा जाता है जिन्हें वहां Kangi-ten (歓喜天) कहा जाता है जापान में बुद्धिज़्म के Shingon Sect (सम्प्रदाय) में भगवान गणेश मुख्यरूप से पूजे जाते है । । इन गणपति को वहां bodhisattva Avalokiteshvara के नाम से भी जाना जाता है । जिनके अन्य नाम है - 
Shō-ten (聖天) , Daishō-ten, Daishō Kangi-ten (大聖歓喜天),
Tenson (天尊) , Kangi Jizai-ten (歓喜自在天), Shōden-sama , Vinayaka-ten ,
Binayaka-ten (毘那夜迦天), Ganapatei (誐那缽底) and Zōbi-ten (象鼻天).

बर्मा में पुराणिक देव गणेशा को Maha Peinne (မဟာပိန္နဲ) के नाम से जाना जाता है । थाईलैंड में भगवान गणेश को Phra Phikhanet or Phra Phikhanesuan के नाम से जाना जाता है ।  श्री लंका में गणेश को Aiyanayaka Deviyo  के नाम से जाना जाता है । सिंघल द्वीप में गणेश को Gana deviyo के नाम से जाना जाता है । 
इसके अतिरिक्त चीन , कम्बोडिया , वियतनाम सहित सभी बौद्ध देशो में गणेश पूजे जाते है जापान में लगभग सभी शहरों में गणेश के मंदिर है । बुद्धिस्ट और पुराण पुस्तको में गणेश को विनायक के नाम से जाना जाता है । सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है मित्रो कि दुनिया के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले देश इंडोनेशिया में भी पुराणिक देव गणपति का डंका बोलता है , यहां की 20000 की करेंसी पर गणेश की फ़ोटो है । 
✍🏻 हिमांशु शुक्ला

नेपाली एवं तिब्बती वज्रयानी बौद्ध अपने आराध्य तथागत की मूर्ति के बगल में गणेश को स्थापित करते हैं।
 
दरअसल गणेश सुख-समृद्धि, रिद्धि-सिद्धि, वैभव, आनन्द, ज्ञान एवं शुभता के अधिष्ठाता देव हैं। संसार में अनुकूल के साथ प्रतिकूल, शुभ के साथ अशुभ, ज्ञान के साथ अज्ञान, सुख के साथ दुःख घटित होता ही है। प्रतिकूल, अशुभ, अज्ञान एवं दुःख से परेशान मनुष्य के लिये गणेश ही तारणहार हैं। वे सात्विक देवता हैं और विघ्नहर्ता हैं। वे न केवल भारतीय संस्कृति एवं जीवनशैली के कण-कण में व्याप्त हैं बल्कि विदेशों में भी घर-कारों-कार्यालयों एवं उत्पाद केन्द्रों में विद्यमान हैं। हर तरफ गणेश ही गणेश छाए हुए हैं। मनुष्य के दैनिक कार्यों में सफलता, सुख-समृद्धि की कामना, बुद्धि एवं ज्ञान के विकास एवं किसी भी मंगल कार्य को निर्विघ्न सम्पन्न करने हेतु गणेशजी को ही सर्वप्रथम पूजा जाता है, याद किया जाता है। प्रथम देव होने के साथ-साथ उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है, लोकनायक का चरित्र है।

गणपति (गणेशजी) जन्म ,सर का कटना और गजानन (हाथी के सर का जुड़ना) --

हम सभी उस कथा को जानते हैं, कि कैसे गणेशजी हाथी के सिर वाले भगवान बने । जब पार्वती शिव के साथ उत्सव क्रीड़ा कर रहीं थीं, तब उन पर गीली मिट्टी लग गयी । जब उन्हें इस बात की अनुभूति हुई, तब उन्होंने अपने शरीर से उस गीली मिट्टी को निकल दिया और उससे एक बालक बना दिया| फिर उन्होंने उस बालक को कहा कि जब तक वे स्नान कर रहीं हैं, वह वहीं पहरा दे ।
जब शिवजी वापिस लौटे, तो उस बालक ने उन्हें पहचाना नहीं, और उनका रास्ता रोका । तब भगवान शिव ने उस बालक का सिर धड़ से अलग कर दिया और अंदर चले गए ।
#यह देखकर पार्वती बहुत हैरान रह गयीं । उन्होंने शिवजी को समझाया कि वह बालक तो उनका पुत्र था, और उन्होंने भगवान शिव से विनती करी, कि वे किसी भी कीमत पर उसके प्राण बचाएँ ।
तब भगवान शिव ने अपने सहायकों को आज्ञा दी कि वे जाएँ और कहीं से भी कोई ऐसा मस्तक ले कर आये जो उत्तर दिशा की ओर मुहँ करके सो रहा हो । तब शिवजी के सहायक एक हाथी का सिर लेकर आये, जिसे शिवजी ने उस बालक के धड़ से जोड़ दिया और इस तरह भगवान गणेश का जन्म हुआ।

1- #भगवान_गणेश की कहानी में विचार के तथ्य।
क्यों पार्वती के शरीर पर मैल था?

पार्वती प्रसन्न ऊर्जा का प्रतीक हैं । उनके मैले होने का अर्थ है कि कोई भी उत्सव राजसिक हो सकता है, उसमें आसक्ति हो सकती है और आपको आपके केन्द्र से हिला सकता है । मैल अज्ञान का प्रतीक है, और भगवान शिव सर्वोच्च सरलता, शान्ति और ज्ञान के प्रतीक हैं ।

2- #क्याभगवानशिव, जो शान्ति के प्रतिक थे, इतने गुस्से वाले थे कि उन्होंने अपने ही पुत्र का सिर धड़ से अलग कर दिया? और भगवान गणेश के धड़ पर हाथी का सिर क्यों? 

तो जब गणेशजी ने भगवान शिव का मार्ग रोका, इसका अर्थ हुआ कि अज्ञान, जो कि मस्तिष्क का गुण है, वह ज्ञान को नहीं पहचानता, तब ज्ञान को अज्ञान से जीतना ही चाहिए । इसी बात को दर्शाने के लिए शिव ने गणेशजी के सिर को काट दिया था ।

3 - #हाथीकासिर_क्यों ?
हाथी ‘ज्ञान शक्ति’ और ‘कर्म शक्ति’, दोनों का ही प्रतीक है। एक हाथी के मुख्य गुण होते हैं – बुद्धि और सहजता। एक हाथी का विशालकाय सिर बुद्धि और ज्ञान का सूचक है। हाथी कभी भी अवरोधों से बचकर नहीं निकलते, न ही वे उनसे रुकते हैं| वे केवल उन्हें अपने मार्ग से हटा देते हैं और आगे बढ़ते हैं – यह सहजता का प्रतीक है । इसलिए, जब हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं, तो हमारे भीतर ये सभी गुण जागृत हो जाते हैं, और हम ये गुण ले लेते हैं|

वैज्ञानिक खंडन जोड़ने पे पोस्ट लंबी हो जाएगी इसलिए इसका वैज्ञानिक खंडन अलग से फिर कभी...
✍🏻अजेष्ठ त्रिपाठी

विकिपीडिया में गणेश जी पर आलेख में मैंने पढ़ा कि गणेश जी की  "खोज"  कालिदास के बाद हुई क्योंकि  "कुमारसम्भव"  में गणेश जी का उल्लेख नहीं है ।
वहाँ मैंने जोड़ दिया कि  "कुमारसम्भव"  शब्द का संस्कृत में अर्थ है  "(गणेश जी के ज्येष्ठ भ्राता) कुमार का जन्म" । ज्येष्ठ भ्राता का जन्म होते ही कथा समाप्त है । छोटा भाई (गणेश जी) का जन्म ही नहीं हुआ था तो  "कुमारसम्भव"  में उनका उल्लेख कैसे होता ? मेरे वाक्य को हटा दिया गया और मुझे कहा गया कि विकिपीडिया में मैं अपने विचार नहीं जोड़ सकता, किसी  "प्रोफेसर"   समकक्ष व्यक्ति के विचार ही उद्धृत कर सकता हूँ । कालिदास के बाद गणेश जी की  "खोज"    सम्बन्धी बकवास उन लोगों ने किसी तथाकथित हिन्दू लेखक की पुस्तक से उद्धृत की थी । तब मैंने यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा से एक पूरा अध्याय ही उद्धृत कर दिया जिसमे महादेव जी के पूरे परिवार का सबके नामसहित वर्णन और उनकी पूजा के मन्त्र थे । यह तथ्य दो सौ सालों के झूठे प्रचार का खण्डन करता था जिसके अनुसार शङ्कर जी और गणेश जी अनार्यों के देवता थे क्योंकि वेदों में उनकी चर्चा नहीं है । झट से मेरे वाक्य को हटा दिया गया और मुझे उत्तर मिला कि मैत्रायणी संहिता का उपरोक्त अध्याय "प्रक्षिप्त"  है (अर्थात बाद में जोड़ा गया है)। मैंने जवाब दिया कि किसी भी वेद में कोई प्रक्षिप्त मन्त्र होने की बात संसार के किसी भी  "विद्वान"  ने कभी नहीं कही, अतः यह तुम्हारा व्यक्तिगत विचार है । यदि मैं अपने विचार विकिपीडिया में नहीं जोड़ सकता तो तुम भी नहीं जोड़ सकते । मैत्रायणी संहिता में प्रक्षिप्त अंश होने का उद्धरण किसी प्रोफेसर की किताब से लेकर आओ, वरना मैं विकिपीडिया की पञ्चायत बिठाऊँगा (arbitration committee) । तब जाकर उस आलेख में मेरे वाक्य जुड़ पाये । इस पूरे फालतू की बहस में मेरा एक महीना नष्ट हुआ (मैंने अनेक प्रमाण दिए जिन्हें उन लोगों ने प्रमाण मानने से इनकार कर दिया)। ऐसा मेरे सभी लेखों के साथ हुआ ।  Dieter Bachmann के नेतृत्व में नस्लवादी भारत-विरोधियों के एक गिरोह ने विकिपीडिया के भारत सम्बन्धी सभी लेखों को निगरानी में रखा है और विकिपीडिया के मालिक से उन लोगों का तालमेल है । हार्वर्ड विश्वविद्यालय के हिन्दू-विरोधी  तथाकथित इंडोलॉजिस्ट प्रोफेसर माइकल वित्जेल के ये लोग चेले हैं, विकिपीडिया में इस गिरोह के अधिकाँश लोगों ने छद्म नाम रखे हैं । Dieter Bachmann जैसे अनेक लोग लगभग पूरा वक्त विकिपीडिया के भारत सम्बन्धी लेखों की निगरानी में ही लगाते हैं, जो सिद्ध करता है कि इन लोगों को पाश्चात्य विश्वविद्यालयों के माइकल वित्जेल जैसे प्रोफेसरों की कृपा से खर्चा-पानी मिलता है । एक-एक वाक्य ठीक कराने में मुझे कई सप्ताह नष्ट करने पड़ते थे । ये लोग अप्रामाणिक बकवास भी जोड़े तो मैं काट नहीं सकता था, क्योंकि काटते ही वह बकवास तत्क्षण पुनः जोड़ दी जाती थी और तीन बार से अधिक काटने का नियम विकिपीडिया में नहीं है । पश्चिम के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों ने घोषणा सालों पहले की है कि किसी भी शोध कार्य में विकिपीडिया को उद्धृत नहीं किया जा सकता ।  विकिपीडिया में बहुत से लेख अच्छे भी हैं, किन्तु भारत-सम्बन्धी सारे लेखों पर हिन्दू-विरोधियों के गिरोह का कब्जा है । विकिपीडिया के कई हिन्दू सदस्य मुझे निजी ईमेल द्वारा प्रोत्साहित करते थे , किन्तु विकिपीडिया के मञ्च पर वाद-विवाद में कोई हिन्दू भी मेरा पक्ष नहीं लेता था (योग्यता ही नहीं थी, जबकि मेरे विरोधियों में हार्वर्ड, ऑक्सफ़ोर्ड, जैसे विश्वविद्यालयों के  प्रोफेसरों और शोधकर्ताओं का गिरोह छद्म नाम से सक्रीय था)।
✍🏻आचार्य विनय झा

बुद्धि के देवता गुणेश गणेश
बुद्धि भी दो प्रकार की हो जाती है १.सद्बुद्धि २. कुबुद्धि
यही दोनों गणेश जी की पत्नियाँ हैं । जिन्हें ऋद्धि सिद्धि भी कहा जाता है। सद्बुद्धि से ऋद्धि प्राप्त होती है,  कलियुग में कुबुद्धि का प्रयोग करने से सिद्धि शीघ्रता से प्राप्त हो जाती है।
गणेश जी का यज्ञोपवीत व्याल का है,  व्याल से आशय है किसी दुष्ट से,  साँप, व्याघ्र या कोई दुष्ट हाथी। गणेश जी का यज्ञ दुष्टों के दलन से आरम्भ होता है। हाथों में फरसा,  लाठी, डण्डा, ग्रेनेड सब रखते हैं। मूषक अर्थात् चोरों पर सवारी गाँठते हैं। और समस्त आपदाओं का विनाश करते हैं।
गणनाओं का लेखा करते हैं, सफेद खादी भी धारण करते हैं ।
गणों के पति तुम्हारे लिये नमस्कार है। हे निधियों के स्वामी तुम सदा उत्तर रहो।

गणेशं तु चतुर्बाहुं व्यालयज्ञोपवीतिनम् ।।
गजेन्द्रवदनं देवं श्वेतवस्त्रं चतुर्भुजम् ।।
परशुं लगुडं वामे दक्षिणे दण्डमुत्पलम् ।।
मूषकस्थं महाकायं शङ्खकुन्देन्दुसमप्रभम् ।।
युक्तं बुद्धिकुबुद्धिभ्यामेकदन्तं भयापहम् ।।
नानाभरणसम्पन्नं सर्वापत्तिविनाशनम् ।।
गणानां त्विति मन्त्रेण विन्यसेदुत्तरे ध्रुवम् ।।
आखु ཿ   आषु  आहु आहू आहूये आह्वये
मूर्धन्य षकार माध्यन्दिन शाखा में खकारवत् उच्चरित होता है
'स' ध्वनि 'ह' में उच्चरित होने की प्रवृत्ति पूर्व से लेकर पश्चिम तक विद्यमान है।
आखुस्ते पशुरित्यादौ हुकारसदृशो भवेत् ॥

आखुस्ते पशुरिति। न ग्राम्यान्पशून्हिनस्ति। नाऽऽरण्यान्। - तै.ब्रा. १.६.१०.३. * 

आषु को रुद्र के निमित्त पशु माना गया है और यही गणेशवाहन भी बताया गया है।

"आषुतोष" अर्थात् आषु/आखु/आहु से प्रसन्न होने वाले भगवान् आशुतोष ।

भारतवर्षीय पश्चिमी प्रान्त में आह्वये.. आहूये...आहू जिस पशु को कहा जाता है वह पहाड़ी मृग है.. जिसे Gazelle के नाम से भी जानते हैं।
आखु यही है और यह चूहा नहीं है।

गणेश या विनायक के पूजन  की परम्परा बहुत पुरानी है । प्रथम पूजन इन्हीं का होता है । जैनों ने भी गणपति का पूजन किया ।
गोल्डन रेशिओ ( एक विशिष्ट अनुपात ) की खोज से  इनका सम्बन्ध   है ?  हमारे आकर्षण हेतु कारण होना ही चाहिये !
ॐ ||ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे||

गणपति या गणेश जी का स्वरूप

अङ्घ्रि या अंह्रि 'अकार' है,
उदर 'उकार' है
मूर्द्धा 'मकार' है ।

(शब्दार्थ
अंह्रि= पैर / चरण
उदर= पेट
मूर्द्धा= शिर / मस्तक )

क्षीरोदं पौर्णमासीशशधर इव यः प्रस्फुरन्निस्तरङ्गं 
चिद्व्योम स्फारनादं रुचिविसरलसद्बिन्दुवक्रोर्मिमालम्।
आद्यस्पन्दस्वरूपः प्रथयति सकृदोङ्कारशुण्डः क्रियादृग्
दन्त्यास्योऽयं हठाद्यः शमयतु दुरितं शक्तिजन्मा गणेशः॥

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..... सर्वप्रथम चिद्शक्ति से स्फुरित होता हुआ क्षीर समुद्र पौर्णमासी चन्द्र के समान जो निस्तरंग स्फुरित हो रहा है , जहां कि इस चिद्व्योम में नादतत्व का फैलाव हो रहा है , जो तेजोमयी बिन्दुमाला धारण किये हुए हैं , आदि शिवशक्ति का स्पन्द जिनका स्वरुप है , ॐकार रूपी शुण्ड से जिनकी क्रियाशक्ति प्रकट हो रही है , दन्त जिनके मुख से निकला हुआ है , शक्ति से उत्पन्न  होने वाले जो गणेश है वे हमारे क्लेशों को दूर करें...
-----चिद्गगनचन्द्रिका)
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उमा (पार्वती)  विवाह के बाद  बहुत काल बीत जाने पर  सुतकामा (मन में सन्तान की इच्छा ) होने के कारण एक दिन मन्दर गिरि पर  अपनी सखियों सहित  अपने "टैडी" के साथ खेलने लगीं .
फिर एक दिन उन्होंने अपने टैडी को मोडिफाइ करते हुये उसका मुखड़ा गज के मुख के समान और बड़ा बनाया, उसकी कुछ  और  साज सज्जा भी की , परफ्यूम भी लगाया . और उसको बनाने में कुछ फेविकोल जैसा द्रव्य किन्तु सुगंधित  प्रयोग किया । 
खेल में उस टैडी को बेटा बेटा भी कहा ।
खेल चुकने के बाद  उन्होंने उस अपने टैडी को जाह्नवी (गंगा ) में  डाल दिया ।
इसी प्रकार से फिर पुत्रार्थ एक अशोक वृक्ष के अंकुर की सेवा करते हुये उसे बड़ा किया । उनसे कुछ लोगों ने पूछा कि इस वृक्ष को पुत्र रूप से मानने का क्या प्रयोजन ? तब भगवती ने उत्तर दिया "दशपुत्रसमो द्रुमः" दस पुत्रों के समान एक वृक्ष है ।
भारत के अधिनायक (प्रेसीडेंट कम जनरल) भगवान् शंकर के अनेक गणेश थे । जैसा कि कुछ देशों में किशोरावस्था कुमारावस्था के सैनिक भी होते हैं
वैसा ही एक वीरक /वीरभद्र नाम का बालक भी गणपति था । जिसे देखकर भगवती उमा पार्वती के हृदय में वात्सल्य उमड़ा और  वह वीरक  माँ का मानस पुत्र हो गया ।

(मत्स्य पुराण से अपने शब्दों में )
एक दिन सर्व भाग्य विधाता शर्व ने  माता उमा को  काली-कलूटी  आदि कहकर चिढ़ाया. तो जगदम्बा इतनी रुष्ट हुईं कि जन गण अधिनायक रुद्र के बार बार हाथ जोड़ने और पैर छूने पर भी प्रसन्न नहीं हुईं . और वहाँ से  अपनी माता की सखी के यहाँ चली गईं.
जब वहाँ से पार्वती जी कुछ समय के बाद  घर वापसी करती हैं तो उन्हें प्रवेश करने से  वीरक  ने ही रोका.
वीरक को पार्वती ने शापित तक किया.
अवन्ती प्रान्त के महाकाल वन में  रक्तबीज सदृश  अन्धक से उत्पन्न अन्धकों का संहार रुद्र द्वारा उत्पन्न की गईं मातृकाओं द्वारा हो चुकने पर मूल अन्धक ने जब शंकर भोले की स्तुति की तो उस बलवान अन्धक को भगवान् ने अपना सामीप्य  व गणेशत्व (गणेश का पद )  प्रदान कर दिया ।
पिनाक धारी ने  पिंगल (छन्द शास्त्र वाले ) को भी  गणेशत्व प्रदान किया था . उद्भ्रम और संभ्रम नामक दो गण इनके अधीन थे.
पिंगल का नाम हरिकेश था और ये पूर्णभद्र नाम के यक्ष के पुत्र थे.
इन्होंने अविमुक्त काशी वाराणसी में अपनी साधना की थी.
गणपति की प्रथम वन्दना होती है। गणपति प्रतीक हैं Privacy निजता की सुरक्षा के।
चाहे प्राण जायें शीश कटे किन्तु निजता भङ्ग न हो।
यही कथा है न कि माँ उमा ने कहा कि देखो कोई आने न पाये.
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

लिपि की उत्पत्ति गणपति द्वारा हुई-
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः कविः। स ऋणया (-) चिद्-ॠणया (विन्दु चिह्नेन) ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तमह
ऋत- (Right, writing, सत्य का विस्तार) ऋतस्य धर्तरि।१७॥ (ऋक् २/२३/१,१७)
= ब्रह्मा ने सर्व-प्रथम गणपति को कवियों में श्रेष्ठ कवि के रूप में अधिकृत किया अतः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पति कहा। उन्होंने श्रव्य वाक् को ऋत (विन्दुरूप सत्य का विस्तार) के रूप में स्थापित किया। श्रव्य वाक्य लुप्त होता है, लिखा हुआ बना रहता है (सदन = घर, सीद = बैठना, सीद-सादनम् = घर में बैठाना)। पूरे विश्व का निरीक्षण कर (हित्वा) त्वष्टा ने साम (गान, महिमा = वाक् का भाव) के कवि को जन्म दिया। उन्होंने ऋण चिह्न (-) तथा उसके चिद्-भाग विन्दु द्वारा पूर्ण वाक् को (जिसे हित्वा = अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेखन ) के रूप में धारण (स्थायी) किया। आज भी चीन की ई-चिंग लिपि में रेखा तथा विन्दु द्वारा ही अक्षर लिखे जाते हैं। इनके ३ जोड़ों से ६४ अक्षर (२६ = ६४) बनते हैं जो ब्राह्मी लिपि के वर्णों की संख्या है। टेलीग्राम के मोर्स कोड में भी ऐसे ही चिह्न होते थे।
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत (तैत्तिरीय संहिता,५/२/८/३)
ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार लेखन का आरम्भ हुआ-
नाकरिष्यद् यदि ब्रह्मा लिखितम् चक्षुरुत्तमम्। तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभा गतिः॥ (नारद स्मृति)
षण्मासिके तु समये भ्रान्तिः सञ्जायते यतः। धात्राक्षराणि सृष्टानि पत्रारूढ़ान् यतः परां॥ (बृहस्पति-आह्निक तत्त्व)

गणेश जी के ४ रूप-(१) विद्या रूप-विद्या दो प्रकार की है, जो प्रत्यक्ष वस्तु दीखती है, उनकी गणना। जिसकी गणना की जा सके, वह गणेश है। अतः गणपति अथर्वशीर्ष में कहा है-त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्माऽसि....। जो भाव रूप है या नहीं गिना जा सके वह रसवती = सरस्वती है। इनके बीच में पिण्डों के निकट रहने से उनको मिला कर एक रूप होने का बोध होता है-जैसे दूर-दूर के तारों में आकृति की कल्पना, या डौट-मैट्रिक्स प्रिण्टर में अलग -अलग विन्दुओं के मिलने से अक्षर की आकृति। ये विन्दु स्वेद (स्याही फैलने से) मिल जाते हैं अतः स्वेद ब्रह्म या सु-ब्रह्म हैं। अलग अलग पिण्डों का समूह प्रत्यक्ष (दृश्य) ब्रह्म है। ॐ ब्रह्म ह वा इदमग्र आसीत्... तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य सन्तप्तस्य ललाटे स्नेहो यदार्द्र्यमजायत। महद् वै यक्षं सुवेदं अविदामह इति।.. एतं सुवेदं सन्तं स्वेद इति आचक्षते॥१॥ सर्वेभ्यो रोमगर्त्तेभ्यः स्वेदधाराः प्रस्यन्दन्त। ... अहं इदं सर्वं धारयिष्यामि.... तस्मात् धारा अभवन्॥२॥ (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/१-२)
दृश्य जगत् के ४ व्यूह (क्षर, अक्षर, अव्यय और परात्पर, या पाञ्चरार के वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध) हैं और उनसे विश्व का भद्र बना है अतः गणेश पूजा भाद्र शुक्ल चतुर्थी को होती है। विश्व का मूल अव्यक्त रस है, अतः वेदाङ्ग ज्योतिष में प्रथम मास माघ था अतः माघ में होता है। विद्या का वर्गीकरण अपरा-विद्या (= अविद्या) रूप में ५ स्तर का है, अतः सरस्वती पूजा माघ शुक्ल पञ्चमी को है। पुर रूप में दृश्य तत्त्व पुरुष है, अतः गणेश पुरुष देवता हैं। रस रूप केवल क्षेत्र दीखता है, जो स्त्री या श्री है अतः रस-विद्या स्त्री रूप सरस्वती है। दोनों विपरीत रूप संवत्सर के विपरीत विन्दुओं पर ६ मास के बाद आते हैं।
दो प्रकार के विद्या रूपों की स्तुति से तुलसीदास जी ने रामचरितमानस आरम्भ किया है-वर्णानां अर्थ संघानां रसानां छन्दसां अपि। मङ्गलानां च कर्त्तारौ, वन्दे वाणी विनायकौ॥ यहां वर्णों, का संघ प्रथम संख्येय अनन्त है, अर्थ असंख्येय अनन्त हैं और रस या भाव अप्रमेय अनन्त हैं-अनन्त के ये ३ शब्द विष्णु-सहस्रनाम में प्रयुक्त हैं।
(२) मनुष्य रूप-ब्रह्मा द्वारा लिपि निर्धारित करने के लिये जिनको अधिकृत किया गया उनको गणपति, अङ्गिरा, वृहस्पति आदि कहा गया है। ये अलग अलग युगों में भिन्न व्यक्ति थे।
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे, कविं कवीनामुपमश्रवस्तम्।
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नृतिभिः सीद सादनम्॥१॥
विश्वेभ्यो हित्वा भुवनेभ्यस्परि त्वष्टाजनत् साम्नः साम्नः कविः।
मूल लिपि ऋण चिह्न (रेखा----) तथा चिद्-ऋण (रेखा का सूक्ष्म भाग विन्दु) के मिलन से बना था। देवों के लक्षण रूप वर्ण बने, ३३ देवों के लक्षण क से ह तक ३३ व्यञ्जन थे, १६ स्वर मिला कर ४९ मरुत् हैं, तथा ३ संयुक्ताक्षर क्ष, त्र, ज्ञ मिला कर क्षेत्रज्ञ (आत्मा) है। बाकी वर्ण अ से ह तक अहम् (स्वयम्) हैं। विन्दु-रेखा के ३ जोड़े २ घात ६ = ६४ प्रकार के चिह्न बना सकते हैं, प्राचीन चीन की इचिंग लिपि, टेलीग्राम का मोर्स कोड या कम्प्यूटर की आस्की लिपि। अतः ब्राह्मी लिपि में ६४ वर्ण हैं। आकाश में छन्द माप से सौर मण्डल का आकार ३३ धाम है-३ पृथ्वी के भीतर और ३० बाहर, इनके पाण ३३ देवता हैं। ब्रह्माण्ड (गैलेक्सी) का आकार ४९ है, प्रत्येक क्षेत्र १ मरुत् है, उसका आभा-मण्डल या गोलोक की माप ५२ है अतः इस प्रकार के देव रूप वर्णों का न्यास या नगर देवनागरी कहलाता है।
स ऋणया चिदृणया ब्रह्मणस्पतिर्द्रुहो हन्तमह ऋतस्य धर्तरि॥१७॥ (ऋक् २/२३/१, १७)
देवलक्ष्मं वै त्र्यालिखिता तामुत्तर लक्ष्माण देवा उपादधत.... (तैत्तिरीय संहिता ५/२/८/३)
(३) राज्य प्रमुख रूप-देश के लोगों का समूह गण है, उसका मुख्य गणेश या गणपति है। जैसे हाथी सूंढ़ से पानी खींचता है उसी प्रकार राजा भी प्रजा से टैक्स वसूलता है। मनुष्य हाथ से काम करता है अतः यह कर हुआ। हाथी का काम सूंढ़ से होता है, अतः वह भी कर हुआ। सूंढ़ क्रिया जैसा टैक्स वसूलते हैं, अतः टैक्स भी कर हुआ। कर वसूलने वाला या हाथी कराट है-
तत् कराटाय च विद्द्महे हस्तिमुखाय धीमहि , तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।
(कृष्ण यजुर्वेदः - मैत्रायणी शाखा - अग्निचित् प्रकरणम् -११९ -१२०)
(४) विश्व रूपमें गणेश-प्रत्यक्ष पिण्डों का समूह गणेश है। पिण्ड रूप में स्वयम्भू मण्डल में १०० अरब ब्रह्माण्ड हैं, हमारे ब्रह्माण्ड में १०० अरब तारा हैं और इनकी प्रतिमा रूप मनुष्य के मस्तिष्क में १०० अरब कलिल (सेल) हैं, जो लोम का मूल होने से लोमगर्त्त कहे जाते हैं। जितने लोमगर्त्त शरीर में हैं उतने ही १ वर्ष मॆं हैं, ऐसा काल-मान भी लोमगर्त्त कहलाता है जो १ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग है। यह मुहूर्त्त को ७ बार १५ से विभाजित करने पर मिलता है। पुनः १५ से विभाजित करने पर स्वेदायन है, जो बड़े मेघ में जल विन्दुओं की संख्या है या उनके गिरने की दूरी (इतने समय में प्रकाश प्रायः २७० मीटर चलता है, उतनी दूरी तक हवा में वर्षा बून्दें अपना रूप बनाये रखतीं हैं--
पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो लोके॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२)
एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानि नक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ ब्राह्मण १०/४/४/२)
पुरुषो वै सम्वत्सरः॥१॥ दश वै सहस्राण्यष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृत्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति पञ्चदशकृत्वः एतर्हीणि। यावन्त्येतर्हीणि तावन्ति पञ्चदशकृत्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृत्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः तावन्तो ऽनाः। यावन्तोऽनाः तावन्तो निमेषाः। यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोकाः वर्षन्ति। (शतपथ ब्राह्मण, १२/३/२/५)
अतः गणेश को खर्व (१०० अरब) कहते हैं-खर्व-स्थूलतनुं गजेन्द्र वदनं ...। यहां खर्व का अन्य अर्थ कम ऊंचाई का व्यक्ति भी है।
पूरा विश्व ब्रह्म का १ ही पाद है-पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि (पुरुष सूक्त ३)। बाकी ३ पाद का प्रयोग नहीं हुआ अतः वह ज्यायान (भोजपुरी में जियान = बेकार) है। वह बचा रह गया अतः उसे उच्छिष्ट गणपति कहते हैं।
विश्व के सभी पिण्ड ब्रह्माण्ड, तारा, ग्रह, उपग्रह गोलाकार हैं, अतः गणेश का शरीर भी गोल बड़े पेट का है। भौतिक विज्ञान में जितने भी भिन्न दिशा के बलों का संयोग (त्रि-विक्रम) है, वह दाहिने हाथ की ३ अंगुलियों से निर्देशित होता है अतः इसे दाहिने हाथ के अंगूठे का नियम कहते हैं। स्क्रू या बोतल की ठेपी (ढक्कन) दाहिने हाथ से घुमाने पर ऊपर उठता है। गणेश की सूंढ भी इस दिशा में ( बायीं तरफ) मुड़ी है, उस दिशा में ठेपी घुमाने पर वह ऊपर उठेगा।
✍🏻अरुण उपाध्याय
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