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भारत विखण्डन के बीज और इतिहास की पाठ्यपुस्तक

भारत विखण्डन के बीज और इतिहास की पाठ्यपुस्तक


संकलन अश्विनीकुमार तिवारी 
मैं इतिहास की वर्तमान पाठ्यपुस्तकों को थोथा थोथा गहि रहे और सार सार उडाय के दृष्टिगत देखता हूँ। एनसीईआरटी की कक्षा बारह की इतिहास पुस्तक से विमर्श को आरम्भ करते हैं। बारहवीं अर्थात स्कूली शिक्षा का आखिरी वर्ष, कला विषय ले कर पढ रहे छात्रों के लिये उनकी उच्चतम कक्षा। प्राचीन भारत के इतिहास में क्या छोडा-क्या पढाया यह विषय गौण है क्योंकि जो पढाया जा रहा है उसमें भी बुनियादी जानकारियाँ छोड दी गयीं हैं। नीलाद्रि भट्टाचार्य द्वारा लिखी गयी कक्षा-12 इतिहास पाठ्य पुस्तक की भूमिका कहती है – “कक्षा छ: से आठ तक हमने आपको इतिहास के प्रारम्भिक युग से ले कर आधुनिक समय तक की जानकारी प्रदान की।....यह किताब हडप्पा संस्कृति से आरम्भ होती है तथा भारतीय संविधान के निर्माण पर समाप्त होती है। इसमें पाँच हजार वर्षों का सामान्य सर्वेक्षण नहीं बल्कि कुछ विषेश विषयों का गहन अध्ययन किया गया है”। इस प्रस्तावना से ही स्पष्ट है कि क्या पढाना है और क्या छोड दिया जाना इसके पीछे बहुत माथापच्ची हुई है। उदाहरण के लिये मोहनजोदाडो पढा जायेगा लेकिन पूर्व वैदिक और उत्तर वैदिक समय विलोपित कर दिया जायेगा फिर हम सीधे मौर्यों के युग में प्रवेश कर जायेंगे। ठीक है आपने चतुराई से पाठ्यपुस्तक का नामकरण ही “भारतीय इतिहास के कुछ विषय” रखा है अत: मन-मर्जी आपकी। तथापि जब आप चयनित विषय ही पढा रहे हैं तो उसमे भी समग्रता क्यों नहीं? 

संदर्भित पाठ्य पुस्तक हडप्पा के बाद सीधे सोलह महाजनपदों से आरम्भ करती है। तो क्यों हैं ये सोलह महाजनपद? क्या सभी एकतंत्र ही थे? आप गर्जना करते हैं कि हम संविधान की निर्मिति तक बारहवीं कक्षा के बच्चों को पढाने जा रहे हैं। ठीक है, हम आज लोकतंत्र हैं अत: हमारा संविधान कैसे बना पढाया ही जाना चाहिये। क्या हम पहली बार लोकतंत्र बने थे?  हम कब से लोकतंत्र थे इसकी जानकारी से पूर्व यह उल्लेखित करना चाहूंगा कि एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं की पुस्तक “विश्व इतिहास के कुछ विषय” आपको यूरोप की पहली युनिवर्सिटी कौन सी थी, इस्लामी और यूरोपीय राष्ट्रों में क्या आरम्भिक शासन पद्यतियाँ थीं, कब क्या वैज्ञानिक प्रगति हुई इसकी भी जानकारी प्रदान करेगा लेकिन यह सब इसी श्रंखला की बारहवी की पुस्तक के भारतीय संदर्भों में विलोपित मिलेगा, क्यों? आपने वैदिक युग को चयनित विषयों में नहीं लिया फिर महाभारत को महाकाव्य मान कर उसके आधार पर सामाजिक विभेदों पर विमर्श सामने रखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? आप बच्चों को वर्ण व्यवस्था पढा रहे हो तो स्पष्ट तौर पर सामने रखा जाना चाहिये कि कैसे कर्म आधारित व्यवस्था जन्म आधारित बनी। बीच से ऐसे चुनिंदा संदर्भ को उठा कर पढाया जाना बदलते हुए समाज और क्रमिकता से समाप्त होती जातिव्यवस्था के बीच जहरीले प्रसंग हैं और दुर्भाग्य से पाठ्यपुस्तक लिखने वालों का ध्यान नयीं गया अथवा विचारधाराओं के वशीभूत ऐसा जानबूझ कर किया गया पता नहीं? पाठ्यपुस्तक को तक्षशिला क्यों नजर नहीं आयी, चाणक्य का अर्थशास्त्र क्यों नहीं दिखा या कि इस दौर के चरक-सुश्रुत जैसे विद्वान कैसे अपने शोध से बडे बदलाव ला रहे थे आदि महत्वपूर्ण नहीं लगे लेकिन यह पढाना आवश्यक लगा कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन का अंगूठा क्यों और कैसे काटा अथवा चाण्डालों के कर्तव्यों की सूची क्या है? यदि वैदिक युग पढाया नहीं जाना था तो फिर यज्ञ और विवाद जैसे विषय क्यों लिये गये? क्या ऐसा करने से इतिहास के विद्यार्थी आधी अधूरी जानकारी ले कर पूर्वाग्रहग्रसित नहीं हो जायेंगे? क्या ऐसा आरोप नहीं लगाया जाना चाहिये कि कतिपय विषय जान बूझ कर उठाये गये हैं और कुछ को सोच-समझ कर छोडा गया है? सोचिये तो कि क्या भारत विखण्डन के जो वर्तमान परिदृश्य हैं उसके जनक हमारी पाठ्यपुस्तके ही हैं?

तो प्रश्न उठता है कि क्या अवश्य पढाया जाना चाहिये था? कक्षा बारहवी की इतिहास पुस्तक भारतीय लोकतंत्र के निर्माण तक की व्याख्या करने के लिये बनायी गयी है तब क्यों छात्रों को यह न बताया जाये कि विश्व को लोकतंत्र हमने ही दिया है? पाठ्यपुस्तक में उल्लेख है कि  - “अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन था लेकिन गण और संघ के नाम से प्रसिद्ध राज्यों में कई लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का प्रत्येक व्यक्ति राजा कहलाता था। भागवान महावीर और भगवान बुद्ध इन्हीं गणों से सम्बंधित थे”। जी हाँ द्रोणाचार्य और द्रोपदी पर कई पन्ने जानकारी जुटाने वाली हमारी पाठ्यपुस्तक भारतीय प्राचीन लोकतंत्र को इतनी ही अहमियत देती है। इन पंक्तियों को पढ कर कोई समझ जाये कि किसी लोक आधारित शासन व्यवस्था की बात हो रही है तो विद्यार्थी अति-मेधावी ही होगा। क्या प्राचीन भारतीय गणताज्यों को संक्षेप में ही सही पढाया नहीं जाना चाहिये था जबकि हम आगे के पाठ में आधुनिक संविधान की व्याख्या भी करना चाहते हैं?  क्या जिन जनपदों का नामोल्लेख पाठ्यपुस्तक में है वे राजाधीन और गणाधीन दोनो ही प्रकार की शासन व्यवस्थाओं वाले नहीं थे? राजा के आधीन शासन अर्थात एकतंत्रात्मक शासन प्रणालियों की तो एनसीआरटी की पाठ्यपुस्तक में सविस्तार व्याख्या है अत: केवल गणराज्यों की बात करते हैं जिसकी कल्पना के लिये आधुनिक लोकतंत्र को सामने रख कर समझा जा सकता है। उन समयों के गणतंत्र में हर कुल से एक व्यक्ति प्रतिनिधि के रूप में चुना जाता था और वह राजा कहलाता था। महाभारत के सभापर्व में ‘गृहे गृहे ही राजान:” का उल्लेख है। बाद के समयों में वैशाली के गणतंत्र को बौद्ध और जैन साहित्यों में उल्लेख के कारण अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुई? बहुसंख्यक का शासन संदर्भित शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में तो अनेको बार किया गया है। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों।  पाठ्यपुस्तक कें जब महाभारत पढा ही रहे थे तो यही बता देते कि वृष्टि, भोज, अंधक, कुक्कुर, शूर आदि में बंटे यादव संघों और गणराज्यों को एकीकृत करने में कृष्ण को सफलता हासिल हुई। कृष्ण गणप्रमुख चयनित हुए थे? 

प्राचीन गणतंत्र व्यवस्था में गणाध्यक्ष पद के लिये निर्वाचन होता था। गणाध्यक्ष को केंद्रीय परिषद की मदद से राज्य कार्य का संचालन करना होता था। इस परिषद को संथागार कहा जाता था। गणाध्यक्ष संथागार की सहमति के बिना कोई कार्य करने या निर्णय लेने के लिये स्वतंत्र नहीं था। संथागार में किसी बैठक के लिये सदस्यों की एक निश्चित संख्या से अधिक की उपस्थिति अनिवार्य थी। जिसे हम आज की भाषा में कोरम का पूरा होना कह सकते हैं। गणपूरक अधिकारी यह निर्धारित करता था कि संथागार में होने वाली किसी बहस के संचालन के लिये समुचित सदस्य उपस्थित हैं अथवा नहीं। जैसे आजा हमारी लोकसभा में सीट का महत्व है तब आसन का हुआ करता था। सभा भवन में सदस्यों के बैठने की जगह को आसन कहा जाता था, इसपर बैठने वाले सदस्य को आसनपन्नापक कहा जाता था। संथागार में एक निश्चित विषय पर हर एक सदस्य को बोलना होता था। किसी प्रस्ताव के पढे जाने को ‘ज्ञाप्ती का अनुसावन’ कहा जाता था। कभी-कभी प्रस्ताव पाठ कई बार होता था और जो सदस्यगण प्रस्ताव के पक्षधर होते थे वह मौन रहते थे, केवल विपक्ष में मत रखने वाले सदस्य ही अपने अपने तर्क प्रस्तुत करते थे। विवादग्रस्त सवाल पर भिन्न-भिन्न रंगों की श्लाकाओं द्वारा मतविभाजन होता था जिसे ‘छंद’ कहते थे। श्लाकाओं को एकत्र करने वाला अधिकारी ‘श्लाकाग्राहक’ कहलाता था। किसी प्रस्ताव पर मतदान के तीन तरीके प्रचलित थे पहला, जिसमें मतदाता का नाम गोपनीय रखा जा सकता था। दूसरा, सभाध्यक्ष से एकांत में कह दिया जाता था। तीसरा,  रंगीन श्लाकाओं के माध्यम से मतदान किया जाता और उसकी गिनती कर फैसला किया जाता था। संथागार की पूरी कार्रवाई लिपिक द्वारा लिपिबद्ध की जाती थी। एक और बात, गणाध्यक्ष को त्वरित लिये जाने वाले आवश्यक निर्णयों में सलाह देने के लिये संथागार की व्यवस्था साथ साथ अलग मंत्रिमंडल होता था जिनकी नियुक्ति संथागार सदस्यों की सहमति द्वारा की जाती थी। 

यह विवेचना भी आवश्यक है कि क्या उस समय के गणराज्य सफल व्यवस्था थे? कृष्ण द्वैपायन ने महाभारत के शांति पर्व में प्राचीन गणतंत्र की कुछ त्रुटियों को लिखा है। उनके अनुसार गणतंत्र मंष प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी बात कहता है और उसी को सत्य मानता है। इससे पारस्परिक विवाद बढता है। अनेक बार किसी निर्णय पर पहुँचने से पूर्व घोर असहमतियाँ बड़े संघर्ष का रूप ले लेती हैं। छठी शताब्दी ईसापूर्व के इन गणराज्यों में एक सुनियोजित शासन व्यवस्था देखने को मिलती है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि संथागार के सदस्यों की पारस्परिक द्वेष भावना, गुटबंदी, उच्च पदों पर वंशानुगत अधिकारियों की नियुक्ति आदि ने समय के साथ प्राचीन गणराज्यों को कमजोर किया”। संभवत: यही कारण रहा होगा कि गणराज्य फिर साम्राज्यों का हिस्सा बनते चले गये। जनपदों को महाजनपद का आकार लेते, राज्यों को साम्राज्य बनते और उन्हें बिखरते हुए भी इसी दृष्टिकोण से समझा जा सकता है। इस विवेचना को पढने के पश्चात आधुनिक कडियाँ जोडिये कि आज हमारा लोकतंत्र भी तो इसी समस्या से दो-चार हो रहा है। अब प्रश्न यह उठता है कि हम अपने बच्चों को स्वतंत्र विमर्श के नाम पर चुनिंदा शीर्षक तो नहीं पढा रहे जिन्हें किसी खास विचारधारा की मथनी से मथ कर फिर परोसा गया है? विचार कीजिये और सवाल उठाईये कि जो शीर्षक पढाये जा रहे हैं वे एकपक्षीय क्यों और जो छोड दिये क्या वे महत्वपूर्ण नहीं थे? सोचना आरम्भ कीजिये, कहीं देर न हो जाये? 
- ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद, 
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका
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