भूमिगत जल, वृहत्संहिता और कटी पतंग
अंकल सैम छाती ठोक कर आपको बतायेंगे कि कैसे धरती फोड और आकाश फाड कर जो भी ज्ञान संभव है, उन्होंने हासिल किया है। बडी बडी सेटेलाईट अब आसमान से नीचे आँख़ें गडाये तकती रहती हैं और बताती हैं कि कहाँ कहाँ धरती के भीतर पानी मिलेगा। ठीक है कि विज्ञान जितना विकसित होगा, उसके आकलन उतने ही सटीक होंगे। तथापि यह विवेचना आवश्यक है कि जब आसमानी आँखें नहीं थी तब क्या धरती के भीतर झांकने की कोई कोशिश नहीं हुई? कूप-तडागों वाला भारत कब से यह जानता था कि धरती की भीतरी सतहों में कहाँ कहाँ जल उपलब्ध हो सकता है तथा कहाँ से और कैसे उसको बाहर निकाला जा सकता है? हमारी पाठ्यपुस्तकें इस विषय पर बहुत नीरस हैं तथा सीधे जल चक्र से आरम्भ होती हैं। कुल मिलाकर वही गोल गोल कि पानी से भाप निकलती है फिर बादल बन कर बरस जाती है। बरसो जितना जल हो बल हो, लेकिन मालूम तो हो कि पानी फिर जमीन के भीतर प्रवेश कैसे करता है, कहाँ छिपा बैठा रहता है और उसकी तलाश के मुख्यविन्दु क्या हो सकते हैं। हमने बडे बडे शब्द चुन लिये हैं जैसे जियोलॉजी, जियोमॉर्फोलॉजी और हाईड्रोलोजी जिनके समन्वयन से आज प्रयास किया जाता है कि जमीन के भीतर का ज्ञान हासिल हो। सगर्व यह सब मॉडर्न साईंस का हिस्सा और देन माना गया है। हमारी पाठ्यपुस्तकें तो ख़ुदा खैर करे छुईमुई का पौधा हैं कि किसी ज्ञान-विज्ञान के संदर्भ की समयावधि मध्यकाल से नीचे सरकी तो फिर अक्षरों का रंग भगवा मान लिया जाता है और मिथक मिथक का कोलाहल मचने लगता है। यही कारण है कि किसी स्कूल में पढने वाले किसी बच्चे को यह नहीं पता होगा कि ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी में वाराहमिहिर नाम का एक भारतीय गणितज्ञ और खगोल शास्त्री था जिसने जमीन के भीतर झांकने का प्रयास किया और भूमिगत जल को के कर अपने ग्रंथ वृहत्संहिता के उदकार्गल अध्याय में लगभग सवा सौ श्लोको के माध्यम से ऐसी जानकारियों को संकलित किया जो आज भी विज्ञान की दृष्टि में सिद्ध मानी जाती हैं।
बुतरस घाली एक समय संयुक्त राष्ट्र के महासचिव रहे थे जिन्होंने चिंता जाहिर करते हुई कहा था कि पानी के लिये लडा जायेगा तीसरा विश्वयुद्ध। अगर ऐसा ही है तो हमारी क्या तैयारी है? क्या एक सौ पच्चीस करोड की यह जनसंख्या जो कि निरंतर बढती जा रही है, वर्तमान में उपलब्ध जल-संसाधनों पर निर्भर रह सकेगी? आज हम भू-जल पर बहुत अधिक निर्भर हो गये हैं जिससे हालात यह कि पाताल सूखता जा रहा है। अब भी हम बडी बडी मशीनों को ले कर धरती की धडकन सुनने निकलते हैं और बार बार ऐसा होता है कि अनुमान धरे रह जाते हैं और गहरे-गहरे गड्ढे खोद कर भी भीतर बूंद भी नहीं मिलता। इसे संज्ञान में लेते हुए सोचिये कि पाँचवी-छठी सदी में कैसे वाराहमिहिर ने मृदा के रंग, वनस्पतियों, पत्थर और उसके प्रकार, क्षेत्र, देश आदि के अनुसार किस स्थान पर भूमिगत जल की उपलब्धिता हो सकती है, इसका विवरण प्रदान किया है। विज्ञान की भाषा में धरती की सतह के नीचे, चट्टानों के कणों के बीच के अंतरकाश या रन्ध्राकाश में मौजूद जल को भूमिगत जल कहते हैं। मीठे पानी के स्रोत के रूप में यह एक प्राकृतिक संसाधन है। जलभर (Aquifer) धरातल की सतह के नीचे चट्टानों का एक ऐसा संस्तर है जहाँ भूजल एकत्रित होता है और मनुष्य द्वारा नलकूपों से निकालने योग्य अनुकूल दशाओं में होता है। वृहत्संहिता न केवल भू-जल को पारिभाषित करती है अपितु जलभर के विभिन्न आयामों पर भी जानकारी उपलब्ध है।
वृहत्संहिता के उदकार्गल में भूजल सम्बंधित जो व्याख्या प्रस्तुत की गयी है उसपर संक्षिप्त दृष्टि डालते हैं। ग्रंथ कहता है - पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्त्तयैव क्षितावपि प्रोन्नतनिम्नसंस्थाः अर्थात - जिस प्रकार मानव शरीर में नाड़ियाँ होती हैं उसी प्रकार पृथ्वी में भी विभिन्न ऊँची-नीची शिराएँ होती हैं। एकेन वर्णेन रसेन चाम्भश्चयुतं नभस्तो वसुधाविशेषात्, नानारसत्वं बहुवर्णतां च गतं परी यं क्षितितुल्यमेव अर्थात आकाश से बरसता सब जल स्वाद में एक सा होता है। परन्तु भूमि की विशेषता से वह अनेक वर्ण और स्वाद का हो जाता है। उसकी परीक्षा भू्मि के समान ही करनी चाहिए। अर्थात् जैसी भू्मि होगी वैसा जल भी होगा। यही नहीं यदि ऐसा स्थान है जहाँ पानी मिलने की संभावना न्यूनतम है तब हमारी तलाश कैसी होनी चाहिए इसे एक श्लोक से समझें कि - यदि वेतसोSम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात्, सार्धे पुरुषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र अर्थात जलहीन देश में वेदमजनूँ नामक पेड़ के पश्चिम में तीन हाथ दूर, डेढ़ पुरुष नीचे जल होता है। वहाँ पश्चिमी शिरा बहती है। 120 अँगुल का एक पुरुष है अर्थात जब एक पुरुष अपने हाथ ऊपर खड़े करे तब उसका सम्पूर्णता में अनुमापन। इसी अनुमाप पर उदकार्गल में बहुत सी गणनायें की गयी हैं। उदाहरण के लिये - चिह् नमपि चार्ध पुरुषे मंडूकः पाण्डूरोSथ मृत्पीता, पुटभेदकश्च तस्मिन् पाषाणो भवति तोपनधः अर्थात आधा पुरुष खोदने पर वहाँ श्वेत मेंढक निकलता है, फिर पीले रंग की मिट्टी होती है, उसके बाद परतदार पत्थर होता है जिसके नीचे पानी होता है।
पेड-पौधों और जीवजगत के व्यवहार का बहुत सूक्ष्म विवेचन ग्रंथ के इस अध्याय में किया गया है। यह श्लोक देखें कि - जम्बूवृक्षस्य प्राग्वल्मीको यदि भवेत्समीपस्थः, स्माद्दक्षिणपाशर्वे सलिलं पुरुषद्वये स्वादु अर्थात यदि जामुन के पेड़ से पूर्व दिशा में पास ही सर्प की बाँबी हो तो उस पेड़ से तीन हाथ दक्षिण में दो पुरुष नीचे मधुर जल होता है। ऐसा ही यह श्लोक देखें कि - भार्ङ्गी विवृता दन्ती शूकरपादीश्च लक्ष्मणा चैव, नवमालिका च हस्तद्वयेSम्बु याम्ये त्रिभिः पुरुषैः अर्थात भांरगी, निसोत दंती (दत्यूणी), सूकरपादी, लक्ष्मण, मालती वनस्पति जहाँ हो तो उनसे दो हाथ दक्षिण में तीन पुरुष नीचे पानी होता है। इसी तरह भू-विज्ञान की भी गहरी समझ वाराहमिहिर के शास्त्र से परिलक्षित होती है जब वे लिखते हैं - यत्र स्निग्धा निम्ना सवालुका सानुनादिनी वा स्यात्, तत्रर्धपञ्चमैर्वारि मानवैः पञ्चभिर्यदि वा अर्थात चिकनी नीची बालु रेत हो और पैर रखने से ध्वनि हो तो साढ़े चार या पाँच पुरुष नीचे पानी होता है। इसी तरह का याह उदाहरण देखें कि - मृन्नीलोत्पलवर्णा कापोता चैव दृश्यते तस्मिन्, हस्तेSजगन्धिमत्स्यो भवति पयोSल्पं च सक्षारम् अर्थात पहले नीलकमल सी, फिर कबूतर वर्ण की मिट्टी दिखाई देती है। इसके एक हाथ नीचे मछली निकलती है, उसमें चकोर जैसी दुर्गन्ध होती है, वहाँ थोड़ा और खारा पानी निकलता है। इतना ही नहीं कैसे पत्थर होंगे तो भूजल का स्तर क्या होगा जैसे उद्धरण भी प्राप्त होते हैं जैसे - अहिराजः पुरुषेSस्मिन् धूम्रा धात्री कुलत्थवर्णोSश्मा, माहेन्द्री भवति शिरा वहति सफेनं सदा तोयम् अर्थात पहले पुरुष खोदने पर बड़ा सर्प, फिर धुएँ जैसी भूमि, फिर कुलथी के रंग के पत्थर के नीचे आव पूर्व की आती है, उसमे से सदैव झागदार पानी आता है।
पानी भी मिल गया तब कूप-तालाब आधि खोद कर उसका दोहन सुनिश्चित किया जाता है, ऐसे में भी वाराहमिहिर के पास अनेक समाधान हैं। वे खनन में हो रही कठिनाईयों और न टूटने वाले पत्थरों से निजात पाने का उपाय भी निर्धारित करते हैं और लिखते हैं कि - भेदं यदा नैति शिला तदानीं पालाशकाष्ठैः सह तिन्दुकानाम्, प्रज्वालयित्वानलमग्निवर्णा सुधाम्बुसिक्ता प्रविदारमेति अर्थात कूप आदि खोदने के समय शिला निकले और वह फूटे नहीं तो उस पर ढाक और तेंदु की लकड़ी जलाकर उसे लाल करके ऊपर चूने की कलों से मिला पानी छिड़कें तो वह शिला टूट जाती है। एक अन्य उदाहरण देखें कि - तोयं श्रृतं मोक्षकभस्मना वा यत्सप्तकृत्वः परिषेचनं तत्, कार्य शरक्षारयुतं शिलायाः प्रस्फोटनं वह्निवितापितायाः अर्थात
मरुवा पेड़ की भस्म मिलाकर पानी उबालकर उसमें शरका खार मिला कर फिर अग्नि से तपाई शिला के ऊपर सात बार वह पानी छिड़कने से वह शिला टूट जाती है। कूप निर्माण के पश्चात संरक्षण के लिये उल्लेख है कि - द्वारं च न नैर्वाहिकमेकदेशे कार्य शिलासचितवारिमार्गम्, कोशस्थितं निर्विवरं कपाटं कृत्वा ततः पांसुभिरावपेत्तम् अर्थात जल निकलने के लिए एक ओर मार्ग रखना चाहिए जिसे पत्थरों से बाँधकर पक्का करवा दें। उस जलमार्ग का छिद्ररहित मजबूत काठ के तख्तों से ढँककर, ऊपर से मिट्टी दबा दें। प्राप्त भू-जल की शुद्धि के उपाय भी बताये गये हैं - अञ्जनमुस्तोशीरैः सराजकोशातकामलकचूणँ:, कतकफलसमायुक्तैर्योगः कूपे प्रदातव्यः अर्थात अंजन (सुरमा), मोथा, खस, बड़ी तुरई, आमल, कतक (निर्मली) आदि सबका चूर्ण कूप में डाल दें। इसी कडी में यह श्लोक भी देखें कि - कलुषं कटुकं लवणं विरसं सलिलं यदि वा शुभगन्धि भवेत्, तदनेन भवत्यमलं सूरसं सुसुगन्धिगुणैरपरैश्चयुतम् अर्थात यदि जल गंदा, कड़वा, खारा, बेस्वाद या दुर्गन्धित हो तो वह इस चूर्ण से निर्मल, मीठा, सुगंधित और अन्य कई गुणों वाला हो जाता है।
वाराहमिहिर ने भूमिगत जल पर जो शोध प्रस्तुत किया वह विज्ञान की दुनियाँ में अभी ध्यान या विवेचना प्राप्त नहीं कर सका है। हमारी हालत यह कि हम बहुत ऊँचा उड रहे हैं, हवाओं के रुख से हमें आसमान छूने का अहसास भी हो रहा है परंतु भान ही नहीं कि पतंग कबकी मांझे से कट कर अलग हो गयी है। मेरे इस आलेख का पूर्वाग्रह यह नहीं कि पाठ्यक्रम में वाराहमिहिर ही पढाये जायें, अपितु यह है कि क्यों विद्यार्थियों को गर्व प्रदान नहीं किया जाये कि भू-विज्ञान और जल-विज्ञान के अनेक सिद्धांत भारतीयों ने प्रतिपादित किये हैं? प्रश्न तो बहुत से हैं कि विज्ञान के युग का दंभ भरने वाले समय के पास अब भी काले मेघा पानी दे के सिद्धांत पर आधारित खेती की दशा-दिशा ही है जबकि समाधान धूल भरे ताखों पर पडे झख मार रहे हैं।
- ✍🏻राजीव रंजन प्रसाद,
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका
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