Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

अपराध का विकास क्या घर से?

अपराध का विकास क्या घर से?

- योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र)

9 जुलाई, 2020 की सुबह टेलीविजन पर दिखाई पड़ा कि कानपुर के पास के बिकरू गाँव का विकास दुबे, जिसने 2/3 जुलाई, 20 को 8 पुलिसकर्मियों की नृशंस हत्या कर दी थी और उसके बाद वह भागा-भागा फिर रहा था, को उज्जैन के महाकाल मंदिर से निकलते समय पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उसे थाने ले जाया गया। रास्ते में वह जोर से बोला कि 'मैं विकास दुबे हूँ कानपुरवाला,' जिसपर पुलिस के एक जवान ने उसके कंधे पर एक चपत भी लगाई। यह दृश्य देखकर मन खिन्न हो गया कि अपनी करणी के चलते सरेआम दुबे चपत खा रहा है!
दुबे की गिरफ्तारी की खबर सब जगह फैल गई थी, इसलिए उसके बारे में और जानकारी पाने की इच्छा सबको हो गई। रात में उत्तर प्रदेश की पुलिस दुबे को लेकर कानपुर को चली और सुबह होने पर टेलीविजन से ही खबर मिली कि पुलिस मुठभेड़ में दुबे मारा गया। यह घटना एक खब़र तो है ही, पर साहित्य में भी इसकी गूँज होनी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है।


राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने 'जयद्रथ बध' काव्य में लिखा है 
' अधिकार खोकर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है; न्यायार्थ अपने बंधुओं को दंड देना धर्म है'। 


आज इसी परिप्रेक्ष्य में विकास के अपराध की कहानी देखते हैं, तो उसके मारे जाने के बाद, उसके घर के ही लोग मान बैठे हैं कि वह दण्ड ही पाने का ही पात्र था। उसके पिता ने तो पूछे जाने पर छूटते ही कह दिया कि उसका (विकास का) मारा जाना ठीक ही है! उसकी पत्नी से भी विकास के मारे जाने की चर्चा की गई तो उन्होंने भी विकास के मारे जाने को सही ही ठहराया। उसके घर /गाँव/ पड़ोस के गाँव के अन्यलोगों ने भी विकास के मारे जाने को सही कदम ही कहा। इतना ही नहीं जब पुलिस विकास के मकान को तोड़ रही थी, तो उसकी माँ ने भी पुलिस के कार्य को सही कहा और इतना-भर चाहा कि उसके छोटे बेटे के मकान को नहीं तोड़ा जाय, क्योंकि वह विकास के कामों से जुड़ा हूआ नहीं था। यह उस मां ने कहा जिसके बारे में कहा गया है


'माता न कुमाता हो सकती है, हो पुत्र कुपुत्र भले कठोर। 
सब देव देवियां एक ओर, ऐ माँ मेरी तूँ एक ओर।'


विकास के बारे में एक-से-एक कहानी हवा में तैर रही है।
वह ऋचा पाडेय नाम की एक लड़की को चाहने लगा और उससे शादी करना चाहा, तो लड़की के माता-पिता ने यह रिश्ता मंजूर नहीं किया तो वह लड़की के पिता के पास चला गया और पिस्तौल सटाकर धमकी दे आया कि इसका अंजाम वह समझ लें। बाद में वह लड़की को भगाकर ले गया और शादी कर ली। उसको जो चीज भा जाती थी तो वह उसे लेकर रहता था और ना करनेवालों को बड़ी बेरहमी से पीटता था और यहाँ तक की अपने कम्पाउंड में लगे नीम के पेड़़ पर लटका के फांसी तक दे देता था। 
उसका इतना खौफ था कि थाना में एफ.आई.आर. भी उसकी मर्जी से ही दर्ज होती थी।
जमीन खरीदने/हड़पने का जुनून उसके सर पर सवार था। उसने विदेश में भी संपत्ति खरीद रक्खी थी। उसके गाँव बिकरू में घर के सामने एक बहुत बड़ा कुआं भी देखने को मिला, जिसका जीर्णोद्धार भी सरकारी खर्च पर हुआ था, लेकिन किसीको उससे पानी लेने का अधिकार विकास ही देता था और अगर किसी ने बिना उसकी इज़ाजत के पानी ले लिया तो उसको निर्ममता पूर्वक दण्ड देता था। एक बार गाँव के और कुओं का पानी सूख गया था तो उस कुएँ से सबको पानी लेने नहीं देता था और इस बड़े कुएँ से वही पानी ले सकता था, जिसको वह इज़ाज़त देता था। गाँव के युवकों का उसने एक गैंग बना लिया था और उससे सभी तरह के अपराध वह करवाता था और एवज में हफ्ता- वसूल करता था। उसकी नृशंसता की कहानी से जो जुड़े हैं, उसमें प्रमुख रूप में थे श्रम-संविदा बोर्ड के अध्यक्ष, राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त - संतोष शुक्ला जिसकी हत्या 2001 में उसने थाने में ही कर दी तथा उसके 19 साल बाद 2/3 जुलाई की रात बिकरू गाँव में सीओ बिल्हौर, देवेन्द्र मिश्र की हत्या शिर में गोली मारकर और कुल्हाड़ी से पैर काटकर कर दी गई। इस संबंध में एक विस्मय का विषय है कि अपनी जान बचाने के लिए जो तीन पुलिसकर्मी विकास के साथी के भूसाघर में छिपे हुए थे, उनको भी उसने मरवा दिया। इसके पहले अपने पूर्व प्रधानाध्यापक की भी दया की मिन्नत करने के वाबजूद भी हत्या कर दी। बाद में पुलिस ने गाँव के घर से और साथी के भी घर से पुलिस से लूटा हुआ एक एके 47 और एक इन्सास राईफल भी बरामद किया। 
जैसी कि अखबार की खबर है विकास ने कुल 11 हत्याएँ की। उसके अपराध की कहानी अनेक हैं, लेकिन ऐसा उसे करने कैसे दिया गया। अगर बचपन से ही उसके हिंसक व्यवहार पर रोक लगती तो वह आज जो गोली का शिकार हुआ है, वह नहीं होता।
अपराध पर अगर शुरू में ही रोक लगा दिया जाय तो वह पनप नहीं सकता! 


तब अपराध है क्या इसकी भी विवेचना करनी आवश्यक है।
'अपराध या दंडाभियोग (crime) की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में की गई है; यथा,
'दंडाभियोग समाजविरोधी क्रिया है;
समाज द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना दंडाभियोग है;
यह ऐसी क्रिया या क्रिया में त्रुटि है, जिसके लिये दोषी व्यक्ति को कानून द्वारा निर्धारित दंड दिया जाता है। अर्थात अपराध कानूनी नियमों कानूनों के उल्लंघन करने की नकारात्मक प्रक्रिया है जिससे समाज के तत्वों का विनाश होता है।'
'अपराध विज्ञान का दंडदायित्व से इतना ही संबंध है कि यह अपराधी को समझने की चेष्टा करता है। उसे पहचानना इसकी परिधि से बाहर है। इसका सिद्धांत इस तथ्य पर आधारित है कि कोई परिस्थिति से पराभूत होकर ही अपराध की ओर अग्रसर होता है। यथा, अर्थ या नैतिक संकट किसी को दूसरे की संपत्ति का अपहरण करने को प्रोत्साहित कर सकता है। विक्षिप्तता या मानसिक असंतुलन भी अपराध को प्रश्रय देते हैं। अत: वैज्ञानिक उपचारों के प्रयोग से तथा परिस्थिति को अनुकूल कर अपराधी को अपराध से विरत करना चाहिए। अन्य शब्दों में यह विज्ञान "दंड" के स्थान में "सुधार" का समर्थन करता है। अमरीका में इस सिद्धांत की मान्यता बढ़ रही है। भारत या इंग्लैंड में इसका बहुत कम प्रभाव जनता या न्यायालय पर पड़ा है।'
अत: पुलिस-विकास दुबे मुठभेड़ ऐसे लोगों की आँख खोलती है, जो इस तरह के कार्य करने पर आमदा रहते हैं या जो इस तरह के कार्य को प्रश्रय देने में नहीं हिचकते!


माता वही जो विदुषी हो, दे जन्म उत्तम सन्तान;
पिता वही उत्तम जो दे, जन्म अहिंसक सन्तान।

-योगन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र)
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ