आनंद
का आषाढ़ जब चींटी भयभीत हो
अश्विनी तिवारी, कैमूर बिहार
ऋतु
परिवर्तन और प्रकृति के चक्र के निर्धारण के पीछे मानव को कई प्राणियों से
प्रेरणाएं भी मिली हैं। बारिश को ही लीजिये, घाम
के दौर में जब उमस बढ़ती है, बच्चों ही क्या हमारे बदन में
घमौरियां फूट पड़ती है और चींटियां निकल पड़ती है सुरक्षित स्थान की ओर।
कभी देखा
है ?
चींटियां
कहां रहती है, यह हमसे ज्यादा अच्छी तरह कोई
चींटीखोर (पेंगोलिन) ही जानता है लेकिन आषाढ़ मास में वे जगह बदलने लगती है तो
हमें उनकी रेंगती कतारें दीख जाती है। उनके मुंह में सफेद-सफेद चीनी के कण जैसे
अंडे होते हैं।
यह बारिश
के आगमन के लक्षण है। "सद्यो वृष्टि" यानी तत्काल बरसात के संकेत के रूप
में यह तथ्य इतना प्रभावी और अचूक है कि अनेक किताबों में लिखा गया है। मयूर
चित्रकम् से लेकर गुरुसंहिता और घाघ व सहदेव की उक्तियों तक यह संकेत मिल जाता है।
वराहमिहिर
इस संकेत के लिए गर्ग और नारद का ऋणि है : विनापघातेन पिपीलिकानामण्डोप
संक्रान्ति...। इसका मतलब है कि बेवजह चींटिंयां बिलों से बाहर अंडे लेकर निकल
पड़ें और महफूज होने को आतुर लगें तो जल्द बारिश का योग जान लेना चाहिये।
है न आषाढ़
की एक बड़ी घटना लेकिन हम में से कितने इसे महत्वपूर्ण मानकर आगे कहते है ?
देहात में जरूर किसानों को इससे बड़ा संकेत मिल जाता है, आप जानते हैं न।
जय जय।
अाषाढ़
: वर्षा योग पर विचार के दिन
हमारे
यहां ज्येष्ठ की पूर्णिमा के बीतने और आषाढ़ लगने पर जिस भी नक्षत्र में बारिश
होती,
उस के आधार पर पूरे चौमासे में वर्षा की न्यूनाधिकता का अनुमान
लगाया जाता था। यह वर्षा संबंधी नक्षत्रों में बारिश का समय 27 दिन की अवधि का 'प्रवर्षण काल' के नाम से जाना जाता था। गर्गसंहिता, जो अब विलुप्त
हो चुकी है (श्रीकृष्ण चरित्र वाली 16वीं सदी की वर्तमान
में उपलब्ध रचना से अलग, संभवत: शुंगकाल में लिखित
गर्गसंहिता) में यही कहा गया है कि ज्येष्ठ के बीत जाने पर प्रतिपदा तिथि से आगे
की तिथियों पर, मूल नक्षत्र को छोड़कर परिवेश में होने वाले
निमित्तों को देखकर वर्षा का अनुमान किया जाना चाहिए। गर्ग संहिता का यह श्लोक
वराहमिहिर की बृहत्संहिता की भटोत्पलीय विवृत्ति में उपलब्ध है -
ज्येष्ठे
मूलमतिक्रम्य मासि प्रतिपदग्रत:।
वर्षासु
वृष्टिज्ञानार्थं निमित्तान्युपलक्षयेत्।।
बाद में,
इसके साथ पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के अनुसार वर्षाफल देखने की परंपरा
जुड़ी क्योंकि तब तक यह मान लिया गया था कि पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र वर्षा का अनुमान
देने वाला नक्षत्र है। उस समय एक हाथ के बराबर व्यास वाले और एक हाथ गहरे गोलाकार
कुण्ड से जल का मापन किया जाता था। इसमें करीब 50 पल प्रमाण
जल जमा होता था। यह 50 पल एक आढ़क (करीब 4 किलो) कहा जाता था और 4 आढ़क के बराबर एक द्रोण
होता था।
वराहमिहिर
सिद्ध करते हैं कि उनसे पहले जिन दैवज्ञों, मुनियों
ने वर्षा के अनुमान के लिए अपनी धारणाएं दी थी, वे कश्यप,
देवल और गर्ग थे। कश्यप मुनि का मानना था कि जिस प्रदेश में
प्रवर्षण काल में बारिश होती, तो वह पूरे देश के लिए
विचारणीय होती थी। देवल कहते थे कि इस काल में यदि दस योजन तक बारिश हो तो उत्तम
बारिश होती है और गर्ग, वसिष्ठ व पराशर मानते थे कि 12 योजन तक किसी नक्षत्र में बारिश हो जाए तो बेहतर वृष्टि जाननी चाहिए। यह
भी विचार था कि प्रवर्षण काल में पूर्वाषाढ़ा आदि जिस किसी नक्षत्र में बारिश होती
है, प्रसव काल में उसी नक्षत्र में फिर बरसात होती है और यदि
न हो तो प्रसव काल में भी सूखा ही रहता है।
प्रवर्षण
काल में हस्त, पूर्वाषाढ़ा, मृगशिरा, चित्रा, रेवती या
धनिष्ठा नक्षत्र में बरसात हो तो पूरे सोलह द्रोण बारिश होती है... ऐसे कई अनुमान
हैं जो अनुभव आधारित रहे हैं। उस काल का अपना वर्षा विज्ञान था। मयूरचित्रकम्,
संवत्सरफलम्, घाघ भड्डरी, डाक वचनार, गुरुसंहिता, काश्यपीय
महासंहिता, कृषि पराशर, गार्गिसंहिता
आदि में ढेर सारे प्रमाण दिए गए हैं।* यानी कि यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है।
बारिश
के पूर्वानुमान का मास : आषाढ़
ज्येष्ठ के
बाद आषाढ़ मास को बारिश के योग परीक्षण का अवसर माना गया है। ज्योतिर्विदों ने
ज्येष्ठ पूर्णिमा के बाद पूर्वाषाढ़ा आदि 27
नक्षत्रों यानी लगभग इतने ही दिनों तक बारिश कैसी और कब होती है, उसके अनुसार वर्षाकाल पर विचार करना अभीष्ट माना है।
यूं तो
पूर्वकाल में बारिश के हाल को जानने और बताने की दैवज्ञों में दीवानगी ही थी। वे
मेघ गर्भधारण से लेकर उनके 195 दिन तक पकने
और बरसने पर चातक की तरह ध्यान लगाए रखते थे और अपनी बात को सच्ची सिद्ध करने को
कमर बांधे रखते थे। यदि वराहमिहिर की माने तो बारिश के हाल के अध्ययन के लिए तब तक
गर्ग, पराशर, काश्यप और वज्रादि के
शास्त्र और उनके निर्देश कंठस्थ होते थे और दैवज्ञ दिन-रात मेघों पर ध्यान लगाए
रहते थे जिनके लिए वराहमिहिर ने 'विहितचित्त द्युनिशो"
कहा है।
एेसे
मानसून अध्येता वराह के इलाके से लेकर मेवाड़ तक आज भी इक्का-दुक्का मिल जाते हैं
और 'गरभी' कहे जाते हैं जिनमें कुछ के तुक्का तीर की तरह
लग भी जाते हैं। हालांकि वे वराह जैसे शास्त्र नहीं पढ़े होंगे।
आषाढ़ में
नक्षत्रों के अनुसार भी कितनी और कहां बारिश होती है,
इसके अनुसार आने वाले वर्षणकाल में कहां कितना पानी गिरेगा ?
यह कहने की रोचक परंपरा रही है। कश्यप ने एक प्रदेश में ही पर्याप्त
वर्षा के आधार पर अच्छी वर्षा की गणना की बात कही तो देवल ने 10 योजन तक बारिश को अनुमान का आधार बनाने का विचार दिया। गर्ग, वसिष्ठ व पराशर ने 12 योजन तक वृष्टि होने पर
वर्षाकाल में उत्तम बरसात बताई। इस प्रकार तीन तरह की धारणाएं 6वीं सदी तक थीं और वराह ने इनका न केवल अनुसरण किया बल्कि उन मतों काे
यथारूप महत्व भी दिया। बृहत्संहिता ही नहीं, समाससंहिता और
पंचसिद्धांतिका में ये विश्वास जनहित में प्रस्तुत किए।
ये विचार
प्रवर्षणकाल को लेकर लिखे गए और आषाढ़ मास यह कालावधि है :
आषाढादिषु
वृृष्टेषु योजन द्वादशात्मके।
प्रवृष्टे
शोभनं वर्षं वर्षाकाले विनिर्दिशेत्।। (गर्गसंहिता प्रवर्षणाध्याय)
हां,
यह भी आषाढ़ के प्रवर्षण नक्षत्र की बढ़ाई वाली बात ये है कि वही
नक्षत्र प्रसव काल में भी बरसता है। तो है न आषाढ़ आनंददायी ! बहुत कुछ बता और
सीखा सकता है लेकिन कब, जबकि हम ध्यान लगाए रहें। हां,
इस संबंध में कुछ अपना अनुभव भी हो तो बताइयेगा।
जय-जय।
पृथ्वी
के नाना रूप और वर्जनाएं
विक्रमीय
संवत्सर में आषाढ़ मास की कई परंपराएं प्राचीन स्मृतियों की संधारक है और उन
मान्यताओं का बने रहना विश्वास से कहीं अधिक वैज्ञानिक भी हो सकता है। जेठ के समापन
और आषाढ़ के आरंभ के 3-3 दिन पृथ्वी के
ऋतुमती होने के माने जाते हैं। यह मत मुनि पराशर का है जिनका कृषि शास्त्र पुष्कर
से लेकर उदयगिरि तक पालनीय रहा है।
प्राचीन
काल में ये छह दिन इतने खास माने गए थे कि औजार लेकर कोई भी खुदाई करने खेत की ओर
नहीं जाता और न ही बीजों की बुवाई करता। पराशर के शास्त्र में कहा है कि एेसी
चेष्टा करने वाला पाप से नष्ट हो जाता है :
वृषान्ते
मिथुनादौ च त्रिण्यहानि रजस्वला।
बीजं
न वापयेत्तत्र जन: पापाद् विनश्यति।।
देवी भागवत,
जिसमें मध्यकालीन परंपराएं प्रचुरता लिए हैं, में
"अंबुवाची योग" के नाम से भूमि के अस्पर्श होने की धारणा मिलती है।
हालांकि, यहां आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण को गिना गया है
लेकिन यह साफ तौर पर कह दिया गया है कि इस अवधि में जो पृथ्वी को खोदते हैं,
वे ब्रह्महत्या के भागी होते हैं। वे मरकर भी चार युगों तक कीट के
कांटे वाले नरक में रहते हैं।
लगता है कि
एक तरह से यह विचार एक धर्मशास्त्रीय निर्देश के रूप में है क्योंकि पुराणकार दो
बार यह मत जोर देकर लिखा है। (९, १०, १४ व ९, ३४, ४८) स्पष्टत: यह
परंपरा उत्तरी भारत में रही क्योंकि पुराणकार यह भी संकेत करता है : अंबुवाच्यां
भूखननं जलशौचादिकं च ये। कुर्वन्ति भारते वर्षे ब्रह्महत्यां लभन्ति ते।। (४८)
यही नहीं,
पराशर ने भी यह मत दोहराया है :
मृगशिरसि
निवृत्ते रौद्रपादेऽम्बुवाची।
भवति
ऋतुमती क्ष्मा वर्जयेत् त्रीण्यहानी।। (१७६)
आषाढ़ की
अन्य वर्जनाओं में भूमि का कीचड़मय होना भी है : आषाढे कर्दमान्विता। बारिश होते
ही भूमि कर्दमी हो जाती है और फिर तत्काल, बगैर
तैयारी बुवाई लाभकारी नहीं होती। एेसे में तैयारी करके ही बीजों को स्पर्श करने का
मत है।
है न आषाढ़
की अनूठी परंपराएं और मान्यताएं ! इनका विकास किसी एक काल की देन नहीं है लेकिन
इनसे यह भी तो जाहिर होता है कि कृषि की ये गूढ़ बातें आदमी से पहले औरतों ने जानी
होंगी और बहुत परखी होंगी तभी औरों ने मानी होंगी।
जय
जय।
आ
गए आषाढ़ के बादल।
छा
गए छापरा के कावल।।
धूप-छांव,
बारिशकारक नक्षत्रों की गणना और चंद्र रोहिणी योग को तकते-तकते
आषाढ़ का कृष्ण पक्ष तो पूरा हो ही गया। हालांकि गुजरात और महाराष्ट्र में आषाढ़
की गणना अब होगी लेकिन वहां जेठ जरूर जीत लिया गया है।
हमारे इधर
छूल (चूल्हे) की सजाई, छापरों की छाबणाई,
टापरों पर कावल (कवेलू) की छवाई, छतरियों की
सुधराई और बीने-चुने गेहूं धान्य की कोठी मूंदणाई जैसे कामों को भी आषाढ़ी ओधम (
उद्यम, कामकाज) कहा जाता है और सावन की डोकरी ( इंद्र गोप,
रामजी की गाय) दीखे, उससे पहले पहले यह सब
करना होता है।
कवेलू की
छवाई (छत संवरणा) से याद आया कि इनका अपना गणित है। घर के मध्य (अधाणे) से आगे तक
ऊपर से नीचे क्रमश: सीधे बिछाने के बाद वैसे ही उन पर उल्टे बिछाये जाते हैं। सीधी
छवाई नेवां या बेवण और उल्टी छवाई ढांकण या मूंदण कही जाती है। इसमें कोई संयोजक
द्रव्य नहीं होता, लेकिन सीमावर्ती
दीवार के पास जो खड़े कवेलू जमाए जाते हैं उनको 'रागोमय'
या 'रागोबर' बनाकर
चिपकाया जाता है।
यह रागोबर
अर्थात् राख मिला गोबर कई सदियों से भारतीय जन जीवन में भवन निर्माण और सुरक्षा का
आधार ही नहीं बना हुआ है बल्कि इसी से चैत्यों और प्रारंभिक गृहादि स्थापत्य भी
बनाए गए। यह चनाई, लिपाई सबमें काम
आता रहा है। यह कीड़ा नहीं लगने से खराब नहीं होता और सामान्य बारिश बर्दाश्त भी
कर लेता है। कुछ और भी गुण है इसके जो आप बताएंगे।
बहरहाल मैं
तो आषाढ़ के बादलों की बधाई लेकर आया हूं और कहना चाहूंगा :
फिर सर पे
है सावन के बादल,
संभलो और
छत तो संभालो।।
जय जय।
वोरा आठौं
भीगै कांकर,
ग्यारस देव
सोइये जाकर
आषाढ़ी
तिथियों का अपना लोक विज्ञान है। कई बार लगता है कि तिथियों के गणित की धारणा पहले
लोक में विकासमान हुई और ऋषि प्रज्ञा ने शास्त्र सम्मत और अनुमत किया। यह बात
आषाढ़ के उजाले पखवाड़े की अष्टमी से लेकर एकादशी तक जुड़ी मान्यताओं को देखकर
ग्यारस आती है। इसकी अष्टमी 'वोरा आठौं' कही जाती है।
वोरा,
वोहरा या व्यापारी और वोर, व्हीर या वोराना
यानी विसर्जन कर देना। ये दोनों ही अाशय इस 8 से जुड़े हैं।
बच्चे-बच्चियां
चिथड़ों,
कपड़ों से बने जिन ढुल्ले-ढुल्लियों (गुड्डे-गुड्डियों), रमकड़ा-खेलुणियां से खेलते रहे, उनका ब्याह रचाकर इस
दिन गोधूली वेला में विसर्जन कर दिया जाता। यह वोराना कहा जाता है। मेढकी मेढ़की
का विवाह भी कही-कहीं होता है। हमने लोक परिपाटियों के आधार पर अपने मुहूर्त तय
किए हैं।
व्यापारियों
की बहुलता वाले पुर, पट्टण में
चातुर्मास में बारिश के योग का प्रेक्षण होता। किस माह में वर्षण-अवर्षण, गर्जन-चमकन जैसे योग हैं और व्यापार कैसा हो सकता है, यह विचार किया जाता। इस प्रेक्षण की तैयारी रात में होती जबकि 9 तिथि को लक्षण देखे जाते और फलाफल सार्वजनिक किया जाता। मेघ, भड्डल या बादल की बात के प्रसारण से यह तिथि 'भड्डली
नवमी' मानी गई। गांव गांव इस दिन बारिश के सगुन पर विचार
होता।
हालांकि,
इसे अबूझ मुहूर्त मानने का अपना गणित है और 10
तिथि को वधू सहित लौटती बारात के साथ रास्तों में आनंद उछाह के कारण 'उछावी दशमी' की बात लोकप्रिय हुई और फिर शयन...। पट
मंगल। ग्यारस तिथि को भी सोवनी या शयनी माना गया और देवशयनी का सम्मान मिला।
शास्त्र की अपनी मान्यताएं जुड़ी।
लोक
के उत्सवों और आयोजनों को वर्षाकाल में कैसे जारी रखा जा सकता है?
यही कारण है कि कृषि, व्यापार जैसी गतिविधियों
के साथ ही हमारे पंचांग का लोकजीवन में विकास हुआ जो शास्त्रीय रूप में यज्ञादि
अनुष्ठानों के अवसर का आधार भी बना।
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