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क्रांति के अग्रदूत राम प्रसाद बिस्मिल

क्रांति के अग्रदूत राम प्रसाद बिस्मिल

जन्मदिवस पर विशेष

संकलन डॉ राकेश दत्त मिश्र, सम्पादक दिव्य रश्मि

चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया तो इसके कारण देश में फैली निराशा को देखकर बिस्मिल का कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयत्नों से मोहभंग हो गया।

राम प्रसाद एक कविशायरअनुवादक, बहुभाषाभाषीइतिहासकार  साहित्यकार भी थे। बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम  और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते रहें थे।

ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) विक्रमी संवत् १९५४, शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में जन्मे राम प्रसाद ३० वर्ष की आयु में पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी), सोमवार, विक्रमी संवत् १९८४ को शहीद हुए। उन्होंने सन् १९१६ में १९ वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था। ११ वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। उन पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिये किया। ११ पुस्तकें उनके जीवन काल में प्रकाशित हुईं, जिनमें से अधिकतर सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयीं। बिस्मिल को तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध की लखनऊ सेण्ट्रल जेल की ११ नम्बर बैरक में रखा गया था। इसी जेल में उनके दल के अन्य साथियोँ को एक साथ रखकर उन सभी पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध साजिश रचने का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया था।

सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले आजादी के नायक रामप्रसाद बिस्मिल आज भी दुनिया के लिए मिसाल हैं। आज उनकी जयंती पर जहां पूरा देश उनको नमन कर रहा है, वहीं काशी भी उनसे अपने रिश्तों को टटोल रही है। आजादी की लड़ाई में काशी क्रांतिकारियों का केंद्र बिंदु था। इतिहासकारों की मानें तो काकोरी कांड का सूत्रपात भी काशी से ही हुआ था। काकोरी कांड के नायक रामप्रसाद बिस्मिल ही थे।

बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन

भारतवर्ष को ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक - से - बढ़कर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तु अहिंसा की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन्होंने किया उन्हीं का चित्र भारतीय पत्र मुद्रा (Paper Currency) पर दिया जाता है। जबकि अमरीका में एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी जॉर्ज वाशिंगटन का ही चित्र छपता है जिसने अमरीका को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने युद्ध लड़ा था।

बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् १९१६ में छपी थी जिसका नाम था-अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास। बिस्मिल के जन्म शताब्दी वर्ष: १९९६-१९९७ में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया उस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) भी उपस्थित थे। इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं। परन्तु आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास ही नहीं किया। जबकि गान्धी जी द्वारा १९०९ में विलायत से हिन्दुस्तान लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक हिन्द स्वराज पर अनेकोँ संगोष्ठियाँ हुईं। बिस्मिल सरीखे असंख्य शहीदों के सपनों का भारत बनाने की आवश्यकता है।

फाँसी की सजा और अपील

६ अप्रैल १९२७ को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने ११५ पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चाताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है।

फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी। विशेष जज जे॰ आर॰ डब्लू॰ बैनेट की अदालत में काकोरी षड़यंत्र का अतिरिक्त केस दायर किया गया और १३ जुलाई १९२७ को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी। सेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रज़ा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के॰ सी॰ दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया।

बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। बिस्मिल की इस तर्क क्षमता पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस को उनसे यह पूछना पड़ा "Mr.Ramprasad! from which university you have taken the degree of law?" (श्रीमान राम प्रसाद!आपने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली है?) इस पर उन्होंने हँस कर कहा था- "Excuse me sir! a king maker doesn't require any degree" (क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।) अदालत ने इस जवाब से चिढ़कर बिस्मिल द्वारा १८ जुलाई १९२७ को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने ७६ पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की। उसे पढ़ कर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। आखिरकार अदालत द्वारा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था।

काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिये "मुल्जिमान" की जगह "मुलाजिम" शब्द बोल दिया। फिर क्या था, पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी: "मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है; अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाये हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से; कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।" उनके कहने का मतलब था कि मुलाजिम वे (बिस्मिल) नहीं, बल्कि मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वे (बिस्मिल आदि) तो राजनीतिक बन्दी हैं अत: उनके साथ तमीज से पेश आयें। इसके साथ ही यह चेतावनी भी दे डाली कि वे समुद्र की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं; मुकदमे की बाजी पलटना कौन सी बड़ी बात है? भला इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो बिस्मिल के आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह नहीं की।

चीफ कोर्ट में शचीन्द्र नाथ सान्याल, भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल को छोड़कर शेष सभी क्रान्तिकारियों ने अपील की थी। २२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई॰ पी॰ सी॰ की दफा १२१ (ए) व १२० (बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ = कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। शचीन्द्र नाथ सान्याल, जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे। इसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। शचीन्द्र के छोटे भाई भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढ़ाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत (७ - ७ वर्ष) कायम रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (३ वर्ष) रामनाथ पाण्डेय को हुई। मन्मथनाथ गुप्त, जिनकी गोली से मुसाफिर मारा गया, की सजा १० से बढ़ाकर १४ वर्ष कर दी गयी। काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर पिस्तौल के कारतूस चूँकि प्रेमकृष्ण खन्ना के शस्त्र-लाइसेन्स पर खरीदे गये थे जिसके पर्याप्त साक्ष्य मिल जाने के कारण प्रेमकृष्ण खन्ना को ५ वर्ष के कठोर कारावास की सजा भुगतनी पड़ी।

चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के सभी फाँसी (मृत्यु-दण्ड) प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश करने की सूचना दी। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया।

सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को शिमला में हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल भेजा जिस पर प्रमुख रूप से पं॰ मदन मोहन मालवीयमोहम्मद अली जिन्ना, एन॰ सी॰ केलकरलाला लाजपत रायगोविन्द वल्लभ पन्त, आदि ने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ। अन्त में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः जजमेण्ट पर पुनर्विचार किया जा सकता है। चीफ कोर्ट ने अपने फैसले में भी यह बात लिखी थी। इसके बावजूद वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।

अन्ततः बैरिस्टर मोहन लाल सक्सेना ने प्रिवी कौन्सिल में क्षमादान की याचिका के दस्तावेज़ तैयार करके इंग्लैण्ड के विख्यात वकील एस॰ एल॰ पोलक के पास भिजवाये। परन्तु लन्दन के न्यायाधीशों व सम्राट के वैधानिक सलाहकारों ने उस पर बड़ी सख्त दलील दी कि इस षड्यन्त्र का सूत्रधार राम प्रसाद बिस्मिल बड़ा ही खतरनाक और पेशेवर अपराधी है। यदि उसे क्षमादान दिया गया तो वह भविष्य में इससे भी बड़ा और भयंकर काण्ड कर सकता है। उस स्थिति में सरकार को हिन्दुस्तान में शासन करना असम्भव हो जायेगा। इस सबका परिणाम यह हुआ कि प्रिवी कौन्सिल में भेजी गयी क्षमादान की अपील भी खारिज हो गयी।

साहित्य रचना

बिस्मिल एक लेखक थे और उन्होंने कई कविताएँ, ग़ज़लें एवं पुस्तकें लिखी थीं। कुछ प्रमुख कविताओं व ग़ज़लों के बारे में नीचे दिया जा रहा है।

कविताएँ एवं ग़ज़लें

·         सरफरोशी की तमन्ना: बिस्मिल की यह गज़ल क्रान्तिकारी जेल से पुलिस की लारी में अदालत में जाते हुए, अदालत में मजिस्ट्रेट को चिढ़ाते हुए व अदालत से लौटकर वापस जेल आते हुए कोरस के रूप में गाया करते थे। बिस्मिल के बलिदान के बाद तो यह रचना सभी क्रान्तिकारियों का मन्त्र बन गयी|

·         जज्वये-शहीद (बिस्मिल का मशहूर उर्दू मुखम्मस): बिस्मिल का यह यह उर्दू मुखम्मस भी उन दिनों सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ करता था यह उनकी अद्भुत रचना है यह इतनी अधिक भावपूर्ण है कि लाहौर कान्स्पिरेसी केस के समय जब प्रेमदत्त नाम के एक कैदी ने अदालत में गाकर सुनायी थी तो श्रोता रो पड़े थे| जज अपना फैसला तत्काल बदलने को मजबूर हो गया और उसने प्रेमदत्त की सजा उसी समय कम कर दी थी। अदालत में घटित इस घटना का उदाहरण भी इतिहास में दर्ज़ हो गया।

·         जिन्दगी का राज (बिस्मिल की एक अन्य उर्दू गजल): बिस्मिल की इस गजल में जीवन का वास्तविक दर्शन निहित है शायद इसीलिये उन्होंने इसका नाम राजे मुज्मिर या जिन्दगी का राज मुजमिर| (कहीं-कहीं यह भी मिलता है) दिया था। वास्तव में अपने लिये जीने वाले मरने के बाद विस्मृत हो जाते हैं पर दूसरों के लिये जीने वाले हमेशा के लिये अमर हो जाते हैं।

·         बिस्मिल की तड़प (बिस्मिल की अन्तिम रचनागोरखपुर जेल से चोरी छुपे बाहर भिजवायी गयी इस गजल में प्रतीकों के माध्यम से अपने साथियों को यह सन्देशा भेजा था कि अगर कुछ कर सकते हो तो जल्द कर लो वरना पछतावे के अलावा कुछ भी हाथ न आयेगा। बिस्मिल की आत्मकथा के अनुसार इस बात का उन्हें मलाल ही रह गया कि उनकी पार्टी का कोई एक भी नवयुवक उनके पास उनका रिवाल्वर तक न पहुँचा सका। उनके अपने वतन शाहजहाँपुर के लोग भी इसमें भागदौड़ के अलावा कुछ न कर पाये। बाद में इतिहासकारों ने न जाने क्या-क्या मन गढन्त लिख दिया।

वर्ष १९८५ में विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित भारत और विश्व साहित्य पर अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक भारतीय प्रतिनिधि ने अपने लेख के साथ पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की कुछ लोकप्रिय कविताओं का द्विभाषिक काव्य रूपान्तर (हिन्दी-अंग्रेजी में) प्रस्तुत किया था जिसे उनकी पुस्तक से साभार उद्धृत करके अंग्रेजी विकीस्रोत पर दे दिया गया है ताकि हिन्दी के पाठक भी उन रचनाओं का आनन्द ले सकें।

पुस्तकें

रामप्रसाद 'बिस्मिल' की जिन पुस्तकों का विवरण मिलता है, उनके नाम इस प्रकार हैं:

1.  मैनपुरी षड्यन्त्र,

2.  स्वदेशी रंग,

3.  चीनी-षड्यन्त्र (चीन की राजक्रान्ति),

4.  तपोनिष्ठ अरविन्द घोष की कारावास कहानी

5.  अशफ़ाक की याद में,

6.  सोनाखान के अमर शहीद-'वीरनारायण सिंह',

7.  जनरल जार्ज वाशिंगटन

8.  अमरीका कैसे स्वाधीन हुआ?

आत्मकथा

बिस्मिल की आत्मकथा को हिन्दी में काकोरी षड्यन्त्र नामक एक पुस्तक के अन्दर निज जीवन की एक छटा के नाम से भजनलाल बुकसेलर ने आर्ट प्रेस सिन्ध (अब पाकिस्तान) से और काकोरी के शहीद शीर्षक से गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप प्रेसकानपुर से छापा था। सुपरिंटेंडेंट गवर्नमेंट प्रेस इलाहाबाद से किन्हीं भीष्म के छद्मनाम नाम से अनूदित होकर यही पुस्तक सन् १९२९ में अंग्रेजी में भी छपी थी। ब्रिटिश राज के दौरान संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के खुफिया विभाग ने यह पुस्तक प्रत्येक जिले के पुलिस अधिकारियों को भिजवायी थी|

हिन्दी-अंग्रेजी के अलावा:

·         काकोरी षड्यन्त्र शीर्षक से बांग्ला में

·         अमर क्रान्तिकारी: रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से संस्कृत में

·         आतमकथा रामप्रसाद बिस्मिल के शीर्षक से पंजाबी में

·         रामप्रसाद बिस्मिल के नाम से गुजराती में

·         बिस्मिल आत्मकथा शीर्षक से तेलुगू में

·         रामपुर्सादो बिसुमूरा जिदेन के नाम से जापानी भाषा

कुल आठ भाषाओं में इसका अनुवाद प्रकाशित हो चुका है| क्रान्तिकारियों के जीवन के ऊपर सर्वाधिक ग्रन्थ लिखने वाले हिन्दी साहित्यकार श्रीकृष्ण सरल ने अपने ग्रन्थ क्रान्तिकारी कोश में बिस्मिल की आत्मकथा को नवयुवकों के लिये एक आदर्श मार्गनिर्देशिका बतलाया है। इसमें उनके एकादश वर्षीय क्रान्तिकारी जीवन का निचोड़ दिया गया है। इसे आद्योपान्त पढ़ने के बाद कैसा भी नवयुवक हो, व्यवस्था-परिवर्तन अथवा क्रान्ति के लिये हिंसा का मार्ग अपना ही नहीं सकता।

बिस्मिल के साहित्य का अनुसन्धान व प्रकाशन|

ग्यारह वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं। जिनमें से ग्यारह पुस्तकें ही उनके जीवन काल में प्रकाशित हो सकीं। ब्रिटिश राज में उन सभी पुस्तकों को ज़ब्त कर लिया गया। स्वतन्त्र भारत में काफी खोजबीन के पश्चात् उनकी लिखी हुई जो भी प्रामाणिक पुस्तकें इस समय पुस्तकालयों में उपलब्ध हैं, उनका विवरण यहाँ दिया जा रहा है:

1.   सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग एक): क्रान्तिकारी बिस्मिल के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का २५ अध्यायों में सन्दर्भ सहित समग्र मूल्यांकन।

2.   सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग दो): अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की २०० से अधिक जब्तशुदा आग्नेय कवितायें सन्दर्भ सूत्र व छन्द संकेत सहित

3.   सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग तीन): अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की मूल आत्मकथा-निज जीवन की एक छटा, १९१६ में जब्त अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास, बिस्मिल द्वारा बाँग्ला से हिन्दी में अनूदित यौगिक साधन (मूल रचनाकार: अरविन्द घोष), तथा बिस्मिल द्वारा मूल अँग्रेजी से हिन्दी में लिखित संक्षिप्त जीवनी कैथेराइन या स्वाधीनता की देवी

4.   सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग चार): क्रान्तिकारी जीवन (बिस्मिल के स्वयं के लेख तथा उनके व्यक्तित्व पर अन्य क्रान्तिकारियों के लेख)।

5.   क्रान्तिकारी बिस्मिल और उनकी शायरी संकलन/अनुवाद: 'क्रान्त'(भूमिका: डॉ॰ राम शरण गौड़ सचिव, हिन्दी अकादमी दिल्ली) बिस्मिल की उर्दू कवितायें (देवनागरी लिपि में) उनके हिन्दी काव्यानुवाद सहित।

6.   बोल्शेविकों की करतूत[: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' का क्रान्तिकारी उपन्यास।

7.   मन की लहर: स्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कविताओं का संकलन।

8.   क्रान्ति गीतांजलिस्वतन्त्र भारत में प्रथम बार सन् २००६ में प्रकाशित रामप्रसाद 'बिस्मिल' की कविताओं का संकलन।

बिस्मिल पर अन्य व्यक्तियों के विचार

भगतसिंह

जनवरी १९२८ के किरती में भगत सिंह ने काकोरी के शहीदों के बारे में एक लेख लिखा था। काकोरी के शहीदों की फाँसी के हालात शीर्षक लेख में भगतसिंह बिस्मिल के बारे में लिखते हैं:

"श्री रामप्रसाद 'बिस्मिल' बड़े होनहार नौजवान थे। गज़ब के शायर थे। देखने में भी बहुत सुन्दर थे। योग्य बहुत थे। जानने वाले कहते हैं कि यदि किसी और जगह या किसी और देश या किसी और समय पैदा हुए होते तो सेनाध्यक्ष बनते। आपको पूरे षड्यन्त्र का नेता माना गया। चाहे बहुत ज्यादा पढ़े हुए नहीं थे लेकिन फिर भी पण्डित जगतनारायण जैसे सरकारी वकील की सुध-बुध भुला देते थे। चीफ कोर्ट में अपनी अपील खुद ही लिखी थी, जिससे कि जजों को कहना पड़ा कि इसे लिखने में जरूर ही किसी बुद्धिमान व योग्य व्यक्ति का हाथ है।"

रज्जू भैया

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक रज्जू भैया ने एक पुस्तक में बिस्मिल के बारे में लिखा है:

"मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद 'बिस्मिल' प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि 'बिस्मिल' जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बड़ा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बड़ा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: 'बिस्मिल' जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।" - प्रो॰ राजेन्द्र सिंह सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

रामविलास शर्मा

हिन्दी के प्रखर विचारक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य में बिस्मिल के बारे में बड़ी बेवाक टिप्पणी की है:

"ऐसा कम होता है कि एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जायें। रामप्रसाद बिस्मिल १९ दिसम्बर १९२७ को शहीद हुए, उससे पहले मई १९२७ में भगतसिंह ने किरती में 'काकोरी के वीरों से परिचय' लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के बारे में लिखा - 'ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल हैं और आज उन्हें फाँसी का दण्ड मिलने का कारण भी बहुत हद तक यही है। इस वीर को फाँसी का दण्ड मिला और आप हँस दिये। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना कठिन है।' सन् १९२२ से १९२७ तक रामप्रसाद बिस्मिल ने एक लम्बी वैचारिक यात्रा पूरी की। उनके आगे की कड़ी थे भगतसिंह।

प्रो सतीश राय।

काशी विद्यापीठ के सेवानिवृत्त प्रोफेसर सतीश राय का कहना है कि क्रांति के दौर में पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र क्रांति का केंद्र हुआ करते थे। वहीं बनारस बंगाल और महाराष्ट्र के बीच सेतु की तरह था। क्रांतिकारी आंदोलन की रूपरेखा तय करने के लिए रामप्रसाद बिस्मिल जी का अक्सर काशी आना हुआ करता था। उस दौर में क्रांतिकारियों के छिपने का ठिकाना काशी विद्यापीठ हुआ करता था।

रास बिहारी बोस, शचींद्र नाथ सान्याल, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के सानिध्य में कई क्रांतिकारी गतिविधियों का काशी में ही सूत्रपात हुआ। इसमें सबसे खास रहा काकोरी कांड। 1897 में आज के ही दिन यानी 11 जून को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले में माता मूलारानी और पिता मुरलीधर के पुत्र के रूप में जन्मे थे क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल। अंग्रेजों ने ऐतिहासिक काकोरी कांड में मुकदमे के नाटक के बाद 19 दिसंबर 1927 को उन्हें गोरखपुर की जेल में फांसी पर चढ़ा दिया था।

प्रो राय का कहना है कि चौरीचौरा कांड के बाद अचानक असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया तो इसके कारण देश में फैली निराशा को देखकर बिस्मिल का कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयत्नों से मोहभंग हो गया। फिर तो नवयुवकों की क्रांतिकारी पार्टी का अपना सपना साकार करने में बिस्मिल ने चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व वाले हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के साथ गोरों के सशस्त्र प्रतिरोध का नया दौर आरंभ किया लेकिन सवाल था कि इस प्रतिरोध के लिए शस्त्र खरीदने को धन कहां से आए। काकोरी कांड का सूत्रपात काशी में हुआ और अक्सर बिस्मिल जी एसोसिएशन की बैठक के लिए आते रहते थे।

काशी विद्यापीठ में ही आंदोलन और क्रांति से जुड़ी बैठकें हुआ करती थीं। 1920 के दशक में क्रांतिकारी आंदोलन की धुरी था बनारस। रास बिहार बोस बमकांड के जब भूमिगत हुए तो वह काफी समय तक बनारस में रहे। इसलिए क्रांतिकारियों के आने का सिलसिला अक्सर होता था। पं. कमलापति त्रिपाठी जी ने भी कई बार इस बात का जिक्र किया था कि क्रांतिकारी गतिविधियों की रणनीतियां काशी में ही तय होती थीं।

अमिताभ भट्टाचार्य।

वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ भट्टाचार्य का कहना है कि बहुत कम ही लोग जानते हैं कि इस सरफरोश क्रांतिकारी के बहुआयामी व्यक्तित्व में संवेदशील कवि, शायर, साहित्यकार व इतिहासकार के साथ एक बहुभाषाभाषी अनुवादक भी था। बिस्मिल के अलावा दो और उपनाम थे राम और अज्ञात। 30 साल के जीवनकाल में उनकी 11 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। जिनमें से एक भी गोरी सत्ता के कोप से नहीं बच सकीं और सारी की सारी जब्त कर ली गईं। वह दुनिया के ऐसे पहले क्रांतिकारी थे जिसने क्रांति के लिए हथियार अपनी लिखी पुस्तकों की बिक्री से मिले रुपयों से खरीदे थे।

स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में जोड़ा नया अध्याय :

अमर शहीद बिस्मिल के जीवन पर शोध करने वाले पूर्व पीपीएस विद्यार्णव शर्मा के अनुसार, स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में नया अध्याय जोड़ने वाले महान क्रांतिकारी प राम प्रसाद "बिस्मिल" का जन्म 11 जून 1897 को  शाहजहांपुर नगर के मोहल्ला खिरनीबाग में हुआ, मूल रूप से इनके पूर्वज ग्वालियर के चंबल नदी किनारे ग्राम तोमरघार के निवासी थे। अकाल के कारण उनका परिवार शाहजहांपुर आ बसा।
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