समाजिकता
आजके तथाकथित प्रगतिशील दौर में समाजिकता की बात कौन कहे परिवार तक बिखर चुका है।आज हम अपनी आँखों से पारिवारिक विखंडन का चीरहरण देख रहे है।प्रगतिशील जमाने ने हमें एकल परिवार की अवधारणा दिया।वह झुठा प्रचारित किया 'संयुक्त परिवार कलह का अखाडा' और हमनें उसे स्वीकृति हीं नहीं दी बल्कि आत्मसात भी किया।उसकि भयावहता भी हम भोग रहे हैं।हम अपनी वेदना को भुल चुके हैं और समवेदना की आकांक्षा में हैं।आज वे लोग समाजिकता का ढोल बजा रहे है जो अपने घर तक को किलकारी से न गुँजा सके।आज हमारे नेतृत्वकर्ता ऐसे हीं लोग हैं जो समाज विरोधी कार्यों में संलग्न रहे है।पर कारण जो रहा हो हम भी उनके सहयोगी हैं।संबंध चाहे जैसा हो।
हम आजके दौर में इसलिए पीछडे हैं कि हम अपने संबंधों को भुल चुके हैं।संबंध भुलने के कारण हीं हमारी वेदना मरी है।नहीं तो संवेदना हमें मिलती हीं।आज जो भी राज्य/देश से लेकर गाँव/पंचायत/घर तक के जो नेतृत्व कर्ता हैं उनके साथ हमारी संवेदना है।उनसे हमारा संबंध है।वह हमारा संबंध चाहे जैसा हो।हमारी वेदना संवेदना चाहे जैसी हो पर उसके साथ है।इसे हम नकार नहीं सकते हैं।
आज हमारे बीच जो लोग खडे है वे सब प्रशंसा के पात्र है।आपको गर्व होना चाहिए कि आपका प्रतिद्वंद्वी हीं आपके सामने है।इस जमाने में जो अपनी पहचान छुपाकर चलते हैं वे चतुर और सयाने समझे जाते है।।जो हम पहचान में रखते हैं वह सत्य नहीं होता।रास्ता रोकर कुशल क्षेम लेनेवाला आपका हितैषी और शत्रु दोनों एक हीं साथ हो सकता है।यह समय का फलाफल तय करता है,कि वह वास्तव में कौन था?लोग सिर्फ बातें करते है या फिर तमाशा देखते हैं।
लोग के कारण हर कोई परेशानी में हैं।जबकि हर कोई खुद हीं लोग की भूमिका में है।लोगों का काम है देखना और कहना।आप वही कहना ज्यादा पसंद करते हैं जीसे देखा हो।लोग जो देखते हैं वे वही कहते हैं।यहां भी देखना और कहना अलग-अलग है।जो देखता है वह कहता नहीं जो कहता है वह देखता नहीं।ठीक वही बात...'करने वाले कहते नहीं कहने वाले करते नहीं।'
हमारे विरोधी यदि चतुर्दिक खडे हैं तो यकीन मानिये हमें विकास करने से कोई नहीं रोक सकता है।आज जो समाज में इतने झंडाबदार लोग हैं वे हमारे प्रगतिशीलता के प्रतिक हैं।वे अन्य लोगों को हमारी अपनी जागृति के पहचान हैं।समाज में तो लोग होते हीं हैं।लोगों की बात मान और लोगों की कही करते रहो तो तुम हो गये सामाजिक।लोगों से अपनी बात मनवा लेना हीं असली समाजिकता है।जब किसी चीज को लोग चाहने लगते हैं तो यहीं से समाज की रूपरेखा तय होती है।समाज में सब चलता है।समाज अकेले का नाम नहीं है।वास्तव में खुदका विस्तार हीं समाजिकता कहलाती है।
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