हिंदु राष्ट्रकी स्थापनाके संबंधमें चुनावोंकी निरर्थकता !

हिंदु राष्ट्रकी स्थापनाके संबंधमें चुनावोंकी निरर्थकता !

सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्मः परायणम् । यह नीतिवाक्य महाभारत ग्रंथ (पर्व १२, अध्याय ५५, श्‍लोक ३) का है । इस वाक्यका अर्थ है, सर्व जीवसृष्टिका बडा आधार राजधर्म ही है । इस वाक्यसे राष्ट्रके संबंधमें राजनेताओं; अपितु सत्ताप्राप्तिके लिए राजनीति करते हैं, यह हमारा गत ६७ वर्षोंका अनुभव है । साधारणतः, एक मास पूर्व देशमें १६ वीं लोकसभाकी चुनाव-प्रक्रिया पूरी हुई है । इस चुनावमें आपमेंसे अनेक लोगोंने सत्तापरिवर्तनके लिए प्रचार किया है । कुछने तो चुनाव भी लडा है । इस चुनावमें प्रत्येकको अच्छा-बुरा अनुभव भी हुआ है । भारतमें प्रचलित निर्वाचन पद्धतिका, हिंदु राष्ट्रकी स्थापनामें कितना महत्त्व है, यह मैं आज आपको बताने जा रहा हूं ।

१. आजकी सदोष निर्वाचन पद्धति ।

प्रथम इस विषयको हम समझनेका प्रयास करेंगे ।

 अ. प्रत्याशीकी योग्यताकी कसौटी, गुणवत्ता नहीं, अपितु जाति और धर्म ! : चुनावकालमें प्रत्याशी निश्‍चित करते समय राजनीतिक दल प्रत्याशीके राष्ट्रहित, गुणवत्ता, नैतिकता आदि गुणोंको महत्त्व देनेकी अपेक्षा उसकी जाति और धर्म क्या है, निर्वाचनक्षेत्रमें उसके जाति-धर्मकी प्रबलता कितनी है, जातिके / धर्मके आधारपर प्रत्याशियोंकी संख्या कितनी है, जाति / धर्मके नेताओंका समर्थन कितना है इत्यादि बातोंको महत्त्व देते हैं । इसलिए, चुनावमें उचित प्रत्याशी नहीं जीत पाते । क्या ऐसी निर्वाचन पद्धति कभी राष्ट्रको प्रगतिपथपर ले जा सकेगी ?

१ आ. गंभीर अपराधके आरोपियोंको प्रत्याशी बनाना दुर्भाग्यपूर्ण ! : जबतक न्यायालयमें आरोप नहीं सिद्ध होता, तबतक कारागृहमें रहनेवाले बडे-से-बडे अपराधियोंको चुनाव लडनेकी अनुमति भारतीय लोकतंत्रमें होती है । इसलिए, एक गांवके १८ पुरुषोंकी सामूहिक हत्या कर १४ स्त्रियोंको विधवा बनानेवाली डाकुओंकी रानी फूलनदेवी लोकसभामें चुनकर आई थी, यह बात सब जानते होंगे । सत्तालोभी राजनीतिक दल ऐसे आरोपियोंको अथवा उनके परिजनोंको प्रत्याशी बनाते हैं । ये अपराधी प्रवृत्तिके लोग अपने बाहुबल एवं धनबलसे चुनाव जीत जाते हैं । इससे भारतीय राजनीतिका अपराधीकरण हो रहा है ।

नेशनल इलेक्शन वॉच तथा एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्सके एक सर्वेक्षण-निष्कर्षके अनुसार, २०१४ के लोकसभा चुनावमें भाजपा एवं कांग्रेस, इन दोनों दलोंके ३० प्रतिशत प्रत्याशी अपराधी पृष्ठभूमिके थे । ७० करोड मतदाताओंवाले भारतमें, राजनीतिक दलोंके पास भारतके संसदमें भेजनेके लिए शुद्ध चरित्र एवं प्रामाणिक स्वभावके ५४३ प्रत्याशी न मिलना, अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है । क्या ऐसे अपराधी प्रवृत्तिके नेताओंसे भरी संसद कभी रामराज्यसमान हिंदु राष्ट्रका निर्माण कर पाएगी ?

१ इ. अरबों रुपयोंका निरर्थक व्यय ! : विद्यालयका कोई विद्यार्थी वार्षिक परीक्षामें १६ बार अनुत्तीर्ण हो, ऐसी स्थिति भारतीय लोकतंत्रकी है । गत १६ निर्वाचनोंमें भारतको स्थिरता देनेवाले एवं विकासके मार्गपर ले जानेकी बात करनेवाले किसी भी राजनीतिक दलने निर्वाचनके माध्यमसे होनेवाली परीक्षा नहीं उत्तीर्ण की है । इसके विपरीत, आजतक हुए चुनावोंमें जनताके अरबों रुपए पानीकी भांति बहा दिए गए !

१ ई. अल्प मत प्राप्त करनेवाला प्रत्याशिका जनप्रतिनिधि निर्वाचित होना : लोकसभा हो अथवा विधानसभा, किसी भी चुनावमें मतदानका मध्यमान (औसतन) ६० प्रतिशतके आसपास ही होता है । अर्थात, ४० प्रतिशत मतदाता मतदान ही नहीं करते । किसी निर्वाचनक्षेत्रमें अनेक प्रत्याशी खडे हों, तो मतोंका बडी संख्यामें विभाजन होता है । अतः, चुनावमें ३० से ३५ प्रतिशत मत पानेवाला, अर्थात जिसे उसके निर्वाचनक्षेत्रके ६५ से ७० प्रतिशत मतदाता अस्वीकार कर देते हैं, ऐसा प्रत्याशी चुन लिया जाता है । ऐसा निर्वाचित जनप्रतिनिधि जिसे ६५ से ७० प्रतिशत मतदाताओंका समर्थन प्राप्त नहीं है, क्या वह जनताका कार्य कर पाएगा ?

१ उ. अनुचित आचरण करनेवाले निर्वाचित जनप्रतिनिधिको पीछे बुलानेका अधिकार न होना : कभी-कभी अपात्र जनप्रतिनिधि ५ वर्षतक सत्तामें बने रहते हैं । किंतु, हिंदु राष्ट्रमें कोई शासक राज्यकार्यमें अकार्यक्षम है, ऐसा ज्ञात होनेपर, उसके स्थानपर दूसरे सक्षम व्यक्तिको तुरंत नियुक्त किया जाएगा ।

२. लोकतंत्रमें चुनावोंकी निरर्थकता !

२ अ. मतदाताओंकी दुरवस्था !

२ अ १. दरिद्रता : दरिद्र जनताका राष्ट्र एवं धर्मसे कोई लेना-देना नहीं होता । उन्हें तो, अपना पेट भरनेकी चिंता लगी रहती है । ऐसे मतदाता ५०-१०० रुपयोंमें अपना मत बेचकर लोकतंत्रको निरर्थक बना देते हैं । इसी भ्रष्टाचारके बलपर, देशको रसातलमें पहुंचानेवाले लालूप्रसाद यादव, सुरेश कलमाडी, ए. राजा जैसे लोग प्रत्येक चुनावमें चुने जाते हैं ।

२ अ २. निरक्षरता : निरक्षर अथवा अल्पशिक्षित मतदाताओंको राष्ट्र एवं धर्मसे संबंधित समस्याओंकी जानकारी नहीं होती । ऐसे लोगोंने राष्ट्रका शासक चुनना हास्यास्पद है ।

२ अ ३. परावलंबिता : जिस जनताको व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवनमें भी दूसरोंकी सहायता लगती है, क्या वह मतदाता बनकर राष्ट्र एवं धर्मसे संबंधित समस्याओंका हल करनेमें सक्षम नेताओंका चयन कर पाएगी ?

२ अ ४. व्यसनाधीनता : मद्य, सिगरेट आदिके व्यसनी लोग, मद्यकी बोतलें लेकर तथा मद्यपान कर मतदान करते हैं । क्या ऐसे लोगोंका मत राष्ट्रीय राजनीतिके लिए कभी लाभदायक हो सकता हैं ?

२ अ ५. नीतिहीनता : क्या प्रतिदिन अपना कार्य करवानेके लिए अथवा पैसा अर्जित करनेके लिए भ्रष्टाचार करनेवाले नीतिहीन मतदाता, भ्रष्टाचारमुक्त शासन देनेमें सक्षम प्रत्याशी पहचान पाएंगे ?

२ अ ६. धृतराष्ट्र-गांधारी वृत्ति एवं परदु:खशीतलता : प्रतिदिन राष्ट्र एव धर्मकी हानि करनेवाली अनेक घटनाएं सामने दिखाई देनेपर भी उस विषयमें एक भी शब्द न बोलनेवाले तथा स्वार्थ न हो, तो दूसरोंपर होनेवाले अन्यायके प्रति संवेदनहीन जनता, क्या मतदान करते समय समाजहितका थोडा भी विचार कर पाएगी ?

२ अ ७. राजनेताओंके आश्‍वासनोंके भुलावेमें आ जाना : कोई भी राजनीतिक दल अथवा मत मांगनेवाला प्रत्याशी, अपने आश्‍वासनोंकी शत-प्रतिशत पूर्ति नहीं करता । यह सत्य गत ६७ वर्षसे जनता अनुभव कर रही है । फिर भी, आशावादी मतदाता, नेताओंके कभी न पूरे होनेवाले आश्‍वासनोंपर विश्‍वास कर, मतदान करते हैं ।

२ अ ८. धर्म एवं वास्तविक इतिहासके शिक्षणका अभाव : ऐसी स्थितिमें, रामराज्य अथवा छत्रपति शिवाजी महाराजजीका हिंदवी स्वराज्य समान आदर्श राज्य कभी इस देशमें था, यह भी जनताको ज्ञात नहीं है ।

२ अ ९. राष्ट्र एवं धर्मके प्रति अभिमानका अभाव : अधिकतर मतदाताओंमें राष्ट्राभिमान एवं धर्माभिमान नहीं होता । इसलिए, उन्हें नहीं ज्ञात होता कि राष्ट्र एवं धर्मका कार्य कौन अच्छेसे कर रहा है । इसलिए वे, अयोग्य प्रत्याशी चुनते हैं ।

तात्पर्य यह कि जनताको उसकी योग्यताके अनुसार शासक मिलते हैं । यह वचन, भारतीय मतदाताओंके संदर्भमें सार्थ है ।

२ आ. आजकी लोकतांत्रिक पद्धतिमें अनेक त्रुटियां : अब हम इसपर विचार करेंगे ।

२ आ १. सब एक ही थालीके चट्टे-बट्टे, चुनें तो किसे चुनें ! इस स्थितिमें होनेवाले चुनाव ! : आजकी स्थितिमें सभी राजनीतिक दलोंके नेता एक जैसे हैं । इसलिए, विवश होकर लोकसभा चुनावमें भी, कांग्रेससे भाजपा भली ! यह सोचकर अनेक लोगोंने भाजपाको मत दिया है । किंतु, भ्रष्टाचारी एवं अपराधी  प्रवृत्तिके नेता दोनों दलोंमें हैं, क्या इस वास्तविकताको झुठलाया जा सकता है ?

२ आ २. राजनीतिक दलोंमें बढती हुई घरानेशाही ! : देशकी राजनीतिपर प्रथम प्रधानमंत्रीके कालसे आरंभ परिवारवाद अनजानेमें सभी राजनीतिक दलोंमें प्रवेश कर गया है । परिणामस्वरूप, राजनीतिक दलोंके नेतागण अपने बेटे-बेटियोंको अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना रहे हैं । विधायक, सांसद आदि लोकप्रतिनिधियोंके लडके-लडकियां अकार्यक्षम एवं अपात्र होनेपर भी, भविष्यमें उस क्षेत्रके जनप्रतिनिधि बनते हैं । इतना ही नहीं, प्रधानमंत्रीके जो पुत्र-पौत्र देश चलानेमें अपात्र हैं, वे भी देशके प्रधानमंत्री बनते हैं ।

२ आ ३. लोकतंत्र नहीं; जनप्रतिनिधितंत्र ! : लोकतंत्रमें जनताको केवल मतदानका अधिकार होता है । चुनावमें निर्वाचित लोकप्रतिनिधि लोकमतके आधारपर नहीं, तो अपने दलके विचारके अनुसार कार्य करते हैं । चुनावकालमें विविध दलोंद्वारा की जानेवाली घोषणाओंमें, मतदाताओ, आपका मत अनमोल है, यह वाक्य पुनः पुनः दोहराया जाता है । किंतु, चुनावके पश्‍चात मतदाताओंका मूल्य शून्य हो जाता है, यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है । वास्तविक, देशका शासन जनप्रतिनिधियोंके मतानुसार, अर्थात उनके मनके अनुसार ही चलता है । लोकतंत्रमें लोकमतका यही अर्थ समझा जाता है । लोकतंत्रमें वास्तविक लोकमतका महत्त्व केवल चुनावतक रहता है ! क्या इसे लोकतंत्र कहना चाहिए ?

२ आ ४. बहुसंख्यकोंकी एक भी मांग संसदमें पूरी न होना, अर्थात लोकतंत्र ! : बहुमतको यदि लोकतंत्रकी कसौटी माना जाए, तो बहुसंख्य हिंदुओंकी मांगें भारतकी संसद और विधानसभाओंमें पारित होनी चाहिए । किंतु, ऐसा नहीं होता । गोहत्यापर प्रतिबंध, समान नागरी कानून, अयोध्यामें राममंदिर निर्माण, संविधानसे धारा ३७० को हटाना आदि अनेक मांगें अनेक वर्षोंके उपरांत भी संंसदमें नहीं पारित होतीं । क्या ऐसा लोकतंत्र कभी राष्ट्र एवं धर्मकी रक्षा कर पाएगा ?

३. वर्तमान चुनाव पद्धतिने देशको एक भी आदर्श शासक नहीं दिया !

        स्वतंत्रताप्राप्तिके पश्‍चात आजतक ७३  वर्षके कालखंडमें एक भी आदर्श शासक भारतको नहीं मिला । इसलिए, जनताको ज्ञात नहीं है कि आदर्श शासक कैसा होता है ? प्राचीन कालमें भारतकी जनता सुख-समृद्धियुक्त एवं संकटमुक्त थी । क्योंकि, उस कालके हिंदु राजा धर्मपालक एवं कर्तव्यपरायण हुआ करते थे । क्या, प्रभु श्रीरामचंद्र, राजा शालिवाहन, राजा विक्रमादित्य, महाराजा कृष्णदेवराय, उनके वंशज राजा हरिहरराय और बुक्कराय, छत्रपति शिवाजी महाराज, पुण्यश्‍लोक अहिल्याबाई होळकर समान एक भी शासक वर्तमान चुनाव पद्धतिने दिया है ?

विद्यमान भारतीय लोकतंत्रका अध्ययन करते समय रामराज्यका महत्त्व स्पष्ट होता है । आज लाखों वर्ष बीत जानेके पश्‍चात भी, रामराज्यकी छाप लोगोंके मनःपटलपर अंकित है । क्योंकि, उस राज्यका आधार धर्म था । और इसीलिए, रामराज्यके नागरिक सभ्य, सुखी एवं संतुष्ट थे । उस राज्यमें भ्रष्टाचार, विविध रोग, नैसर्गिक आपदाएं आदि नहीं थी । श्रीरामके शासनकालमें कभी किसीका विलाप नहीं सुनाई दिया, ऐसा वर्णन महर्षि वाल्मीकिने रामायण ग्रंथके युद्धकाण्डमें किया है ।

रामराज्यमें प्रजाको राजाका माता-पिता समान आधार लगता था । आजके लोकतंत्रमें, सभी दलोंके राज्योंमें प्रजाकी दशा, मार्गपर पडे अनाथ शिशुके समान है !

४. आजकी स्थितिमें, हिंदुत्वनिष्ठोंका चुनाव लडना, अर्थात समयका अपव्यय करना !

४ अ. हिंदुत्वनिष्ठो, चुनाव लडनेसे राष्ट्र एवं धर्मसे संबंधी कार्यकी फलोत्पत्तिपर विचार कीजिए ! : कुछ हिंदुत्वनिष्ठ सत्ताके माध्यमसे राष्ट्ररक्षा एवं धर्मजागृति करनेके लिए चुनावमें खडे होते हैं । किंतु, वर्तमानकाल हिंदुत्वनिष्ठोंके लिए प्रतिकूल होनेके कारण, खरे हिंदुत्वनिष्ठोंको विजय मिलनेकी संभावना अल्प ही है । कोई हिंदुत्वनिष्ठ चुनाव जीत भी लेता है, तो उससे राष्ट्र एवं धर्म रक्षाके कार्यकी फलोत्पत्ति कितनी होती है, इसपर हम विचार करेंगे ।

४ अ १. चुनावक्षेत्रतक ही मर्यादित (संकुचित) रहना ! : विजयी प्रत्याशीको अपने चुनावक्षेत्रतक सीमित रहना पडता है तथा दलके नेता जैसे कहते हैं, वैसे करना पडता है । इन दो बातोंके कारण, चुने हुए प्रत्याशी राष्ट्ररक्षा एवं धर्मजागृतिके कार्य प्रभावी ढंगसे व्यापक स्तरपर नहीं कर पाते । ऐसे अनेक उदाहरण आपने देखे होंगे ।

४ अ २. लोकसभाके ५४३ सांसदोंमेंसे १-२ हिंदुत्वनिष्ठ सांसदोंकी कौन सुनेगा ? : लोकसभाके ५४३ सांसदोंमें १-२ धर्माभिमानी अथवा हिंदुत्वनिष्ठ हों, तो लोकतंत्रमें बहुमतकी कसौटी होनेके कारण, इन १-२ सांसदोंकी बात कौन सुनेगा ? ऐसे सांसदोंकी संख्या अत्यल्प होनेके कारण वे न तो गोहत्याप्रतिबंधक विधान बना सकते हैं और न धर्मांतरप्रतिबंधक अधिनियम पारित करवा सकते हैं ।

चुनावके लिए दिया जानेवाला समय एवं धन, यदि राष्ट्रप्रेमियों एवं धर्मप्रेमियोंका संगठन खडा करनेके लिए दिया गया, तो इससे हिंदु राष्ट्रकी स्थापना शीघ्र होनेमें सहायता होगी ।

४ आ. इस भ्रममें न रहें कि भाजपाके समर्थनसे चुनकर आनेपर अथवा भाजपाको समर्थन देनेसे हम हिंदु राष्ट्रकी स्थापना कर लेंगे ! : क्योंकि भाजपा कांग्रेसका दूसरा रूप बन चुकी है । भाजपा कितनी भ्रष्टाचारी है, यह बात कर्नाटक भाजपाके भूतपूर्व मुख्यमंत्री यदुरप्पाके उदाहरणसे स्पष्ट होती है । भाजपा, अल्पसंख्यंकोंके तुष्टीकरणमें कांग्रेससे स्पर्धा करती है, यह बात भाजपाके अध्यक्ष राजनाथसिंहके, चुनावकालमें मस्जिद एवं चर्चको दी गई भेंटोंसे स्पष्ट होती है । भाजपावालोंको हिंदु धर्मका साधारण परिचय भी न होनेके कारण उनमें स्वधर्माभिमान नहीं है । क्या ऐसे भाजपावाले हिंदु राष्ट्रकी स्थापना कभी होने देंगे ?

४ इ. लोकतंत्रके माध्यमसे चुनाव जीतना अथवा सत्तांतर करना, हिंदु राष्ट्रकी स्थापनाका मार्ग नहीं ! : स्वतंत्रताप्राप्तिके पश्‍चात, अबतक १५ चुनाव हो चुके हैं । किंतु, प्रत्येक चुनावमें हिंदु राष्ट्र विषय पीछे पडता गया और अब तो उसकी चर्चातक नहीं होती । चुनावके माध्यमसे कोई भी राजनीतिक दल सत्तामें आए, वह स्वार्थपूर्तिके लिए सत्ताकी जोड-तोड करनेवाले धर्मनिरपेक्ष शासकोंद्वारा स्थापित व्यवस्थाका अनुकरण करने लगता है, यह हम सबका अनुभव है । इसके कुछ उदाहरण दे रहा हूं ।

१. सर्वोच्च न्यायालयके कहनेपर भी सर्व दलोंके शासकोंने, समान नागरी कानून बनानेका साहस नहीं दिखाया ।

२. संविधानकी धारा ३७० को निरस्त करनेका साहस किसी राजनीतिक दलने नहीं दिखाया ।

३. हज यात्राके लिए अनुदान, अल्पसंख्यंक आयोग तथा सच्चर आयोगके सुझाव सर्व राजनीतिक दलोंको मान्य हैं ।
व्यवस्थाके विरुद्ध कोई राजनीतिक दल आगे नहीं आता । अतः, चुनाव अथवा सत्ता-परिवर्तन, हिंदु राष्ट्र-स्थापनाका मार्ग नहीं हो सकता । अप्राप्तकारिणं भूपं रोधयन्ति च वै प्रजाः ॥ अर्थात, प्रजा अनुचित कार्य करनेवाले राजाको हटा देती है, यह सिद्धान्त योगवासिष्ठ (६.८४.२७) धर्मग्रंथमें दिया है । आजकी परिस्थितिमें अनुचित कार्य करनेवाले लोकतंत्रके विषयमें हमें यह कार्य करना पडेगा !

५. धर्मक्रांति ही, हिंदु राष्ट्र्रकी स्थापनाका मार्ग !

यदि एकबार, हिंदु राष्ट्रकी स्थापनाके संदर्भमें चुनावोंका महत्त्व शून्य है, यह बात स्पष्ट हो गई, तो कोई भी उसके लिए समय नहीं देगा और धर्मक्रांतिके लिए सर्व शक्ति लगा देगा । स्वतंत्रतावीर सावरकरके कथन है, बिना युद्धके, किसे मिली है स्वतंत्रता । जिसपर हमें विश्‍वास करना चाहिए । छत्रपति शिवाजी महाराजजीने चुनाव जीतकर हिंदवी स्वराज्य नहीं स्थापित किया था । हमें भी, छत्रपति शिवाजी महाराजजीकी भांति संघर्षके मार्गसे यह हिंदु राष्ट्र स्थापित करना होगा ।

धर्मबंधुओ, अपने निर्वाचनक्षेत्रतक ही सीमित न रहें तथा इतना निर्बल भी न हों कि कोई आपकी उपेक्षा करे । इन बातोंकी तुलनामें, हिंदु राष्ट्र स्थापित करनेके लिए धर्मयोद्धाओंको शीघ्रातिशीघ्र संगठित कर, धर्मक्रांतिके लिए तत्पर हों ! चुनावोंसे नहीं, अपितु संपूर्ण देशमें धर्मक्रांति होनेपर ही, हिंदु राष्ट्रका उदय होगा ! मुसलमान एवं ईसाइयोंने भारतपर राज्य करनेके लिए चुनाव नहीं लडा था । अपितु, प्रत्यक्ष युद्धकर ही राज्य स्थापित किया था । उसी प्रकार, हमें लोकतंत्रके चुनाव जीतकर नहीं, धर्मक्रांति कर सभी दृष्टियोंसे आदर्श हिंदु राष्ट्र स्थापित करना पडेगा । हम सब संगठित होकर कलियुगमें रामराज्यकी अनुभूति देनेवाला ऐसा हिंदु राष्ट्र स्थापित करेंगे कि भविष्यमें लिखे जानेवाले इतिहासमें, लोकतंत्रका उल्लेख गालीके रूपमें होगा !

जयतु जयतु हिन्दुराष्ट्रम् ।

१. हिन्दूशब्दका उद्गम

प्राचीन कालसे ही इस देशके लोग हिन्दूके नामसे, जबकि यह भू-प्रदेश भारतऔर हिंदुस्थानके नामसे विख्यात है । हिन्दूनामकरण सिंधुनदीके नामसे हुआ है । अरबी, ईरानी और फारसी लोग का उच्चारण करते हैं । वे आरंभसे ही सिंधुशब्दका उच्चारण हिन्दूकर रहे हैं । यूनानी (ग्रीक) सिंधुशब्दका उच्चारण इण्डसकरते हैं । इस कारण उन्होंने हिंदुओंको इंडियनकहा । चीनी भाषामें सिंधुको शिन्तूकहते हैं । इसीलिए चीनी यात्री ह्यु-एन-त्स्यांगने अपने लेखमें भारतीयोंका उल्लेख जिन्तूअथवा हिन्दूकिया था । तात्पर्य यह कि हिन्दूशब्दका प्रसार ईसाई और इस्लाम पंथसे बहुत पहले हो चुका था ।

अरब राष्ट्रोंसे आए इस्लामी आक्रमणकारियोंका कठोर प्रतिकार हिंदुओंने ही किया था । इसलिए उन्होंने हिंदुओंको काफिर’ (धर्मशत्रु) माना । इसी कारण फारसीएवं अरबीशब्दकोशोंमें हिन्दूशब्दका अर्थ काफिरलिखा गया है । अरब, तुर्क एवं मुगल आक्रमणकारियोंके विरुद्ध दीर्घकालीन संघर्षमें हिन्दूनाम राष्ट्रवासियोंके सुखदुःख, जय-पराजय, त्याग एवं बलिदानकी स्मृतियोंसे पवित्र हो गया है ।

१ अ. हिन्दूशब्दकी राष्ट्रवाचक व्याख्या

आसिन्धुसिन्धुपर्यंता यस्य भारतभूमिका ।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ।।

वीर सावरकर

अर्थ : स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी के अनुसार, ‘सिंधु नदीके उद्गमस्थानसे कन्याकुमारीके समुद्रतक (विस्तृत भूभागको) भारतभूमिको जो पितृभूमि (मातृभूमि) और पुण्यभूमि मानते हैं, उन्हें हिन्दूकहते हैं ।

 

२. राष्ट्रके विविध नाम तथा उनका इतिहास

२ अ. हिंदुस्थान

भविष्यपुराणके अनुसार सिंधुका पश्चिमी भू-प्रदेश हिंदुस्थानके नामसे विख्यात है ।

२ आ. भारत

सम्राट भरतने कश्मीरसे कन्याकुमारी और सिंधु नदीसे ब्रह्मपुत्र नदीतकके प्रदेशमें एकछत्र राज्य किया । उनके इस पराक्रमकी स्मृतिमें यह प्रदेश भारतअथवा भारतवर्षके नामसे पहचाना जाने लगा । विष्णुपुराण (अंश २, अध्याय ३, श्लोक १) में भारतकी चतुःसीमा बतानेवाला श्लोक इस प्रकार है

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ।।

अर्थ : समुद्रके उत्तरमें और हिमादि्रके (हिमालयके) दक्षिणमें जो वर्ष (भूमि) है, उसका नाम भारत है । यहांकी प्रजाको भारतीय प्रजा कहते हैं ।

२ इ. इंडिया

सिंधुको इण्डसकहनेवाले ग्रीकोंके माध्यमसे यूरोप महाद्वीप भारतसे परिचित हुआ । इस कारण उन्होंने भी भारतको इंडियासंबोधित किया ।

 

३. हिन्दू धर्मही भारतीयोंकी राष्ट्रीयता और भारतभूमि ही हिन्दू राष्ट्र’ !

पंचखंड भूमंडलमें भरतखंड (भारत)सर्वाधिक पुण्यवान है; क्योंकि यहां हिन्दू (सनातन) धर्मका असि्तत्व है । महर्षि अरविंदने कहा था, ‘‘हम भारतीयोंके लिए हिन्दू धर्म ही राष्ट्रीयता है । इस हिन्दू राष्ट्रका जन्म हिन्दू धर्मके साथ ही हुआ है तथा उसके साथ ही इस राष्ट्रको गति प्राप्त होती है । हिन्दू धर्मके विकाससे ही इस राष्ट्रका विकास होता है ।’’

राष्ट्रएक ऐसा जनसमूह है, जिसकी भाषा, धर्म अथवा पंथ, परंपरा, भूप्रदेश और इतिहास एक होता है; तथापि, राष्ट्रीयता निर्माण होनेके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात होती है उस समाजके एक राष्ट्रहोनेकी दृढ इच्छाशकि्त । अतः इस संबंधमें पश्चिमी विचारक रेनन कहता है, ‘राष्ट्रकी अवधारणाका मूल आधार हृदयोंमें जागृत होनेवाली एकताकी तीव्र इच्छा और उसकी प्रेरणाहै । यह आंतरिक चेतना और प्रेरणा ही राष्ट्रकी आत्मा होती है । राष्ट्र और राष्ट्रीयताके मूलतत्त्वों एवं लक्षणोंकी कसौटीपर हिन्दू समाजकी ओर देखनेसे ही, ‘हिन्दू राष्ट्रकी अवधारणा स्पष्ट होती है । भारतकी आध्याति्मक और सांस्कृतिक परंपरा वैदिक है । यहांकी सर्व भाषाएं संस्कृत भाषासे उत्पन्न हुई हैं । इसीलिए कश्मीरसे कन्याकुमारीतक सर्व धार्मिक विधियां वैदिक पद्धतिसे और संस्कृत भाषामें की जाती हैं ।

इसीलिए भारतभूमि केवल हिन्दुबहुल भूमि नहीं; अपितु यह भूमि अर्थात एक स्वयंभू हिन्दू राष्ट्रहै । हिन्दू धर्मको राज्याश्रय मिलनेपर ही इस भूमिपर हिन्दू राष्ट्रअवतरित होता है । सिंधके राजा दाहीर, लाहौरके महाराजा जयपाल, देहलीके (दिल्लीके) सम्राट पृथ्वीराज चौहान, राणा हम्मीर, राणा सांगा, महाराणा प्र्रताप, विजयनगरके कृष्णदेवराय, छत्रपति शिवाजी महाराज, महारानी लक्ष्मीबाई, राजा कुंवरसिंह इत्यादि सर्व हिन्दू राजाओंका उद्देश्य इस्लामी आक्रमकणकारियोंसे देशको मुक्त कर यहां हिन्दुपदपातशाहीअथवा हिन्दू राज्यस्थापित करना था ।

३ अ. हिन्दूशब्द भौगोलिक है तथा उसका स्पष्ट अर्थ राष्ट्रवाचक है !

सिंध प्रांतपर वर्ष ७१२ में अरबोंका राज्य प्रारंभ हुआ तथा लाहौरतकका पश्चिम पंजाब वर्ष १०२० में गजनीके राज्यका भाग बना । वर्तमान पाकिस्तान पहली बार वर्ष १०२० में बना था; परंतु हिंदुओंने उसे कभी स्थायी मान्यता प्रदान नहीं की । महाराजा रणजीत सिंह एवं हरिसिंह नलुवाने खैबरखिंडीतकके क्षेत्रपर वर्ष १०२० में पुनः विजय प्राप्त की एवं तत्कालीन पाकिस्तानसमाप्त किया । वहां पुनः पाकिस्तान बना, उस समय अठारहवें शतकमें मराठा सैनिकोंके अश्व पुणे नगरसे निकले तथा सिंधु नदीका पानी पीकर ही माने ! लाहौर, पेशावर तथा सीमापार (अटकके पार) भगवा ध्वज फहराने लगा । इस प्रकार अनेक शतक हमारे पूर्वजोंने हिन्दूनामसे आक्रमणकारियोंका सामना किया तथा हिंदुस्थानको हिन्दू देशके नामसे विख्यात किया । इससे यह प्रतीत होता है कि हिन्दूशब्द राष्ट्रवाचक है ।

३ आ. भारतभूमिको मातृभूमिमानना हिंदुओंकी राष्ट्रीयता ही है !

हिन्दूमानस प्राचीन कालसे सदैव राष्ट्रभकि्तकी ओर आकर्षित हुआ है । इसलिए हिंदुस्थान पहला देश होगा, जिसे मातृभूमिके नामसे जाना गया । प्रभु श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं, ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।अर्थात माता एवं मातृभूमि स्वर्गसे भी श्रेष्ठ हैं !शिकागो (अमेरिका)से लौटते समय भारतीय तट निकट आनेपर स्वामी विवेकानंदने कहा था, ‘‘इस क्षण मेरी पि्रय मातृभूमिसे आनेवाली पवन ही नहीं; धूलि भी मुझे बहुत पि्रय लग रही है । इंग्लैंडमें एक बार समुद्रकी ओर देखकर वीर सावरकरने ने मजसी ने परत मातृभूमीला । सागरा प्राण तळमळला ।ऐसी काव्यरचना की थी । अर्थात हे सागर मुझे पुनः मातृभूमि ले चलो । मेरे प्राण तडप रहे हैं ।

विष्णुके सातवें अवतार, एक संन्यासी तथा क्रांतिकारीका मातृभूमिके प्रति प्रेम हिन्दू मानसमें छिपी राष्ट्रभकि्तका दृश्य रूप है । आज भी वन्दे मातरम्का उच्चारण करते समय हिन्दू भारतभूमिके समक्ष नतमस्तक होते हैं ।

 ४. विभाजनके पश्चात भारतको हिन्दू राष्ट्रघोषित न करना,

हिंदुओंके साथ अन्याय !

वर्ष १९४७ में देशके विभाजनमें भारतके मुसलमानोंको इस्लामी सिद्धांतपर आधारित पाकिस्तानराष्ट्र प्राप्त हुआ । वर्ष १९४७ में मुसलमानोंकी जनसंख्या २२ प्रतिशत थी; परंतु उन्हें भारतीय भूमिका ३० प्रतिशत क्षेत्र राष्ट्रके रूपमें प्राप्त हुआ । जो भारतको पुण्यभूमि एवं पितृभूमिनहीं मानते थे, वे पाकिस्तान चले गए । जिन्होंने स्वयंके भूतकाल, वर्तमानकाल एवं भविष्यकालको इस हिन्दूभूमिसे संबंधित मानकर इस भूमिमें रहनेका निर्णय लिया, उन्होंने स्वयंकी राष्ट्रीयता सिद्ध की । विभाजनसे बोध लेकर इस राष्ट्रवादी समाजके लिए भारत देशको वर्ष १९४७ में ही हिन्दू राष्ट्रघोषित करना आवश्यक था; परंतु
दुर्भाग्यवश वैसा नहीं हुआ !

५. धर्मनिरपेक्ष (अधर्मी) लोकतंत्रमें हिन्दू राष्ट्रशब्दका प्रयोग ही लुप्त !

विगत सहस्त्रों वर्षोंके विधर्मी आक्रमणकारियों तथा स्वतंत्रताके उपरांत सत्तामें आए धर्मनिरपेक्ष अर्थात अधर्मी वृति्तके हमारे ही राजनेताओंके कारण हिन्दू धर्म राजाश्रयसे वंचित हो गया; परिणामस्वरूप आज भारतभूमिमें हिन्दू राष्ट्रशब्दका प्रयोग ही कठिन हो गया है । भारतीय लोकतंत्रमें सत्ता हिन्दू शासनकर्ताओंके हाथमें होते हुए भी हिन्दू धर्मका राजाश्रय खंडित हुआ है ।

६. धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रसे भारतकी अधोगति होनेके कारण

हिन्दू राष्ट्रकी स्थापनाकी आवश्यकता !

प्राचीन भारतमें सनातन वैदिक हिन्दू धर्मको राज्याश्रय प्राप्त होनेके कारण यह राष्ट्र ऐहिक (व्यावहारिक) तथा पारमार्थिक (आध्याति्मक) दृषि्टसे प्रगतिके पथपर था । इसलिए सुसंस्कृत एवं समृद्ध समाज, उत्तम वर्णव्यवस्था, आचार-विचारोंकी शुदि्ध, आदर्श कुटुंबव्यवस्था इत्यादिकी स्थापना इस हिन्दू धर्माधारित राष्ट्रमें हुई थी । परंतु स्वतंत्रताके ६ दशकोंके पश्चात भी धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्रकी प्रशंसा करनेवाले सर्वदलीय राजनेताओंके लिए सुसंस्कृत समाज एवं समृद्ध राष्ट्रकी स्थापना करना संभव नहीं हुआ । इसके विपरीत अनेक सामाजिक, राष्ट्रीय एवं धार्मिक समस्याएं गाजर-घासके समान पैâल रही हैं; इसलिए यह राष्ट्र ही तीव्र गतिसे विनाशकी ओर अग्रसर हो रहा है । स्वतंत्रताके कालसे ही इन समस्याओंको सुलझानेका प्रयास किया जा रहा है; परंतु वे दिन प्रतिदिन और अधिक जटिल बन रही हैं । इन समस्याओंकी तीव्रता जाननेके पश्चात हमारेद्वारा अपनाए गए लोकतंत्रकी निरर्थकता तो ध्यानमें आएगी ही, साथ ही हिन्दू धर्मपर आधारित हिन्दू राष्ट्रस्थापित करनेकी अनिवार्यता भी समझमें आएगी ।

जयतु जयतु हिन्दुराष्ट्रम् ।

 

संदर्भ : हिन्दू जनजागृति समितिद्वारा समर्थित ग्रंथ हिन्दू राष्ट्र क्यों आवश्यक है ?’
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ