नेहरू के रंग में ढलते मोदी

नेहरू के रंग में ढलते मोदी

रमेश कुमार चौबे 

दिसंबर, 2007 में इंडिया टुडे ने नरेंद्र मोदी का एक साक्षात्कार लिया था। तब दूसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी का कार्यकाल बस शुरू ही हुआ था। उस साक्षात्कार में मोदी ने कहा था, वीर सावरकर, भगत सिंह, सरदार पटेल और महात्मा गांधी मेरे आदर्श हैं। जब मैंने इसे पढ़ा, तो पहली बात मेरे दिमाग में यही कौंधी कि मोदी के ये चारों आदर्श अगर आज जीवित होते, तो उनमें गंभीर मतभेद होता। समाजवादी नास्तिक भगत सिंह के पास अन्य तीनों के लिए बहुत कम समय रहा।


जबकि सावरकर और गांधी हिंसा के सवाल पर एक-दूसरे से जुदा तो थे ही, इस सवाल पर भी एकमत नहीं थे कि क्या भारत को एक हिंदू राष्ट्र होना चाहिए (वीर सावरकर की सोच) या धर्म के आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं होना चाहिए (गांधी की राय)। इस लिहाज से देखें, तो मोदी के इन चारों आदर्शों में पटेल और गांधी ही एक-साथ काम करने में सहज होते, और उन्होंने ऐसा किया भी; 1917 में वकालत छोड़कर पटेल के राजनीति में आने से लेकर 1948 में महात्मा गांधी के निधन तक।


इसलिए दिसंबर, 2007 का वह साक्षात्कार पढ़ते वक्त मैंने यही सोचा कि एक-दूसरे के विचारों से इत्तफाक नहीं रखने वाले इन लोगों से मोदी आखिर किस तरह अपना राजनीतिक सामंजस्य बिठाते हैं? क्या कोई वाकई में सावरकर और भगत सिंह के साथ पटेल और गांधी के विचारों का स्वादिष्ट मिश्रण परोस सकता है?दूसरी बात, जो मेरे जेहन में उठी, वह थी, इन नामों में उस व्यक्ति की गैरमौजूदगी, जिससे मोदी सर्वाधिक प्रभावित रहे। यह नाम है, माधव सदाशिव गोलवलकर का। गोलवलकर सर्वाधिक समय तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक रहे और उन्होंने ही संगठन को भारतीय राजनीति में प्रमुख स्थान तक पहुंचाया। मोदी आरएसएस की ही पैदाइश रहे हैं और उन्होंने गोलवलकर को काफी पढ़ा है। उन्होंने गोलवलकर पर प्रशंसात्मक गीत भी लिखे हैं। हालांकि अंग्रेजी मीडिया के लिए मोदी किसी भी कीमत पर गोलवलकर को अपना पथ प्रदर्शक मानने को तैयार नहीं होंगे।हाल ही में मेरा एक दोस्त प्रधानमंत्री कार्यालय गया था। उसने देखा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के पीछे की दीवार पर तीन तस्वीरें सजी हैं। ये हैं, महात्मा गांधी की, वल्लभभाई पटेल की और जवाहरलाल नेहरू की। लिहाजा जिन चार नामों की चर्चा मोदी ने 2007 में की थी, उनमें से दो उनके लिए आज भी महत्वपूर्ण दिखते हैं। मगर शेष दो-सावरकर और भगत सिंह की प्रधानमंत्री कार्यालय में कोई जगह नहीं है और न ही गोलवलकर की। एक अन्य विचारक स्वामी विवेकानंद भी, जिसकी चर्चा मोदी हमेशा करते रहे हैं, नदारद हैं।खैर, इन चूकों से अधिक उल्लेखनीय था, वहां जवाहरलाल नेहरू की मौजूदगी। यह मोदी की नई त्रिमूर्ति को उन चार आदर्शों से कहीं अधिक सुसंगत बनाता है, जिनकी चर्चा मोदी ने 2007 में की थी। गांधी की नजर में पटेल और नेहरू एक समान उद्देश्य के लिए एक साथ थे। गांधी कांग्रेस के मुखिया और स्वतंत्रता संग्राम के मुख्य वाहक तो थे ही, मगर पार्टी और उसकी इकाइयों को संगठित करने में पटेल की भूमिका प्रमुख थी, जबकि नेहरू एक ऐसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता थे, जिनका चुनावी अभियान वर्ष 1937 और 1946 में कांग्रेस के लिए खासा महत्वपूर्ण था। इतना ही नहीं, आजादी के बाद भी स्वतंत्र भारत की पहली सरकार में नेहरू और पटेल क्रमशः प्रधानमंत्री और उप प्रधानमंत्री के रूप में एक साथ रहे।हाल के महीनों में बेशक नेहरू और पटेल के बीच के स्वभावगत मतभेदों की खूब चर्चा रही, लेकिन वास्तविकता यह है कि दोनों ने घनिष्ठता से एक साथ काम किया और एक-दूसरे के पूरक रहे। वहीं दूसरी तरफ, कोई भी सावरकर और गांधी या भगत सिंह तथा पटेल के एक साथ काम करने की कल्पना तक नहीं कर सकता; फिर चाहे वे एक ही पार्टी या सरकार में ही क्यों न रहें।अपने चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा खूब उछाला था। चुनाव परिणाम ने कांग्रेस का, जिसे सोनिया और राहुल गांधी की कांग्रेस कहा जाता है, नाश भी कर दिया। मगर जिस व्यक्ति ने कांग्रेस की लुटिया डुबोई, उसने अब तक अपने कार्यालय में शुरुआती दिनों के तीन कांग्रेसियों की तस्वीरें ही लटका रखी हैं। वाकई यह एक रोचक विडंबना है, मगर यह भाजपा, खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में मोदी के चहेतों को नाराज कर सकता है। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को नेहरू से नाराजगी रही है, जबकि गांधी के बारे में उसमें अनिश्चितता थी। नेहरू को लेकर आरएसएस की नाराजगी तब और बढ़ी, जब दिसंबर, 1947 में नेहरू ने संघ को एक ऐसी 'निजी सेना' बताया, जो 'नाजी के पदचिह्नों पर पूरी तरह चल रहा है।' गांधी की भावना संघ के प्रति मिली-जुली थी। इसका प्रमाण दिल्ली में सितंबर, 1947 में संघ के कैंप में उनके दिए भाषण से चलता है, जिसमें उन्होंने कहा था, 'मैंने सुना है कि मुसलमानों के प्रति हिंसा के लिए यह संगठन जिम्मेदार है।' संघ को 'संगठित और अच्छी तरह अनुशासित इकाई' बताते हुए उन्होंने आगे कहा था कि 'इसकी ताकत भारत के हित में अथवा इसके खिलाफ इस्तेमाल की जा सकती है।'

हाल ही में स्तंभकार आकार पटेल ने लिखा है कि जनता के बीच प्रधानमंत्री चाहे कुछ भी कहें, उनके नायक एम एस गोलवलकर ही रहेंगे। उनका अनुमान है कि अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले मोदी गोलवलकर को भारत रत्न से नवाजेंगे। बेशक आकार पटेल मुझसे ज्यादा मोदी के करीब हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि उनका अनुमान सच के करीब है। गोलवलकर एक प्रतिक्रियावादी और कट्टर थे; चाहे वह किसी भी उद्देश्य के लिए क्यों न हों। इसके अलावा उनके लेखन ने एक प्रचारक के रूप में या गुजरात के मुख्यमंत्री के अपने पहले कार्यकाल के दौरान मोदी को भले ही प्रभावित किया होगा, मगर आज मोदी प्रधानमंत्री हैं, और भारत को आकार देने तथा दुनिया को प्रभावित करने के लिए शायद उन नेताओं से अपनी पहचान बनाना चाहते होंगे, जिनके विचार कम विभाजनकारी और अधिक आधुनिक हैं। बहरहाल, मैं यह नहीं जानता कि नरेंद्र मोदी की नई फोटो गैलरी उनके वास्तविक हृदय परिवर्तन का प्रतिरूप है या फिर खुद को पेश करने की एक निपुण कला। लेकिन यह अपने अतीत को पीछे छोड़ने का एक आकर्षक संकेत जरूर है। जवाहरलाल नेहरू से दूरी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य रही है। प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी ने भी नेहरू पर कई बुरी टिप्पणी की हैं। मगर आज वह नेहरू जैकेट पहनते हैं, अपने कार्यालय में नेहरू की तस्वीर लगाते हैं, नेहरू की तरह ही भारत की विदेश नीति पर प्रत्यक्ष नियंत्रण भी रखते हैं। वाकई यह एक दिलचस्प समय है।

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