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हिन्दी साहित्य में गीत को प्राण देने वाले स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त कवि थे नेपाली डा अनिल सुलभ


पुण्य-स्मृति दिवस ( १७ अप्रैल ) पर

हिन्दी साहित्य में गीत को प्राण देने वाले स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त कवि थे नेपाली  डा अनिल सुलभ

'मेरा धन है स्वाधीन कलम' के अमर रचनाकार, कवि-पुंगव गोपाल सिंह नेपाली, विलक्षण प्रतिभा के गीतकार, स्वाभिमानी और राष्ट्रभक्त कवि थे। वे प्रेम और स्फूरण के अमर गायक थे। उनके गीतों में देश-भक्ति और सारस्वत श्रींगार था। वे कलम से क्रांति का विगुल फूँकने वाले तेजस्वी कवि थे। उनकी लेखनी से गीतों की निर्झरनी बहती थी। वे सही अर्थों में गीतों के राज कुमार थे। चीन के साथ हुए युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों के उत्साह-वर्द्धन और देशवासियों को जगाने के लिए नेपाली जी ने जो कुछ लिखा और जिस तरह संपूर्ण भारत में घूम-घूम कर अलख जगाया, वह भारत के साहित्यिक इतिहास का अत्यंत लुभावना और अमिट हिस्सा है।
वस्तुतः नेपाली को स्मरण करना, सरस्वती की दिव्य मानस-पुत्री 'कविता-सुंदरी' का आह्वान करना है, जिसकी कृपा के विना किसी के हृदय में कविता का प्रस्फुटन ही नही होता। और,वह वैसे ही कवि का वरण करती है, जिसके हृदय में ऐसी काव्य-कल्पनाएँ अंकुरित होती हों, जो जन-मानस को रस-सिक्त ही नही करती, पीड़ित मन की समस्त वेदनाओं का हरण कर, उनमे नवीन उत्साह के साथ नव-जीवन का सृजन करती है। कविता-सुंदरी ऐसे हीं दीप्तिमान काव्य-पुरुषों को अपना हृदय समर्पित कर उसकी ग्रीवा में अपनी बाहों का दिव्य-हार डालती है तथा अपने विपुल लास्य से उसके मन को सदा के लिए पूरित कर देती है। नेपाली को युवा होते ही, काव्य-सुंदरी ने वरण कर लिया था। उसकी लेखनी से गीत निर्झर की तरह फूटते थे। प्रकृति और मानव-प्रकृति की समस्त रस-धाराएँ उनके गीतों में समाहित हो गई थी। गीत, नेपाली की लेखनी में ही नही उसके देह में विचरण करने वाले प्राण और प्राण-वाहिका धमनियों में समाए हुए थे। उनके रक्त-रक्त, मज्जे-मज्जे और रोम-कूपों से भी गीत फूटते थे। वह साँस भी भरे तो छंद निकल पड़ता था। आह निकले तो उसके साथ ऐसे मर्म-स्पर्शी गीत बह निकलते थे, जिन्हें सुन कर लाखों हृदय तड़प उठते थे।
नेपाली को स्मरण करना उस महान काव्य-युग को भी प्रणाम करना है, जिस युग में, मार्तण्ड के समान साहित्य की क्षितिज पर छाए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर', 'कर्ण' और 'कैकेयी' के रचयिता महाकवि केदार नाथ मिश्र 'प्रभात', गीत के शलाका-पुरुष आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, पं राम दयाल पाण्डेय जैसे बिहार के भाल तथा विश्व-विश्रुत महाकाव्य 'कामायनी' के रचनाकार महाकवि जयशंकर प्रसाद, महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', प्रकृति के सुकुमार कवि सुमितरानंदन पंत, मधुशाला के कवि हरिवंशराय बच्चन,महीयसी महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, अज्ञेय, जैनेंद्र कुमार जैसे महान कविगण साहित्य गगन में महान नक्षत्रों की भाँति छाए हुए थे। जिस युग में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्यवर्य शिवपूजन सहाय, आचार्य नलिन विलोचन शर्मा जैसे महान संपादक और समालोचक हुआ करते थे, जो रचनाकार का चेहरा देख कर नही, बल्कि रचना का चेहरा देखकर उसे सज्जित कर छापा करते थे। जिस युग का हर एक बड़ा कवि, नवागंतुक कवियों का उत्साह-वर्द्धन करता था। प्रतिभा-संपन्न युवाओं को विना किसी राग-द्वेष के प्रोत्साहित किया जाता था। तभी तो जब २१ वर्ष की आयु में नेपाली ने पहलीबार काशी में आयोजित एक अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में अपना काव्य-पाठ किया , तो सभी बड़े कवियों ने उनकी काव्य-प्रतिभा और विशिष्ट शैली की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। कवि-सम्मेलन के अध्यक्ष ने उनसे प्रशंसा के स्वर में यह पूछा था कि 'क्या तुम कविताई अपनी माँ के पेट से सीख कर आए हो?' यह कवि-सम्मेलन, वर्ष १९३२ में वाराणसी की काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 'द्विवेदी अभिनंदन समारोह' के अंतर्गत आयोजित हुआ था। कवित्व और काव्य-पाठ की उनकी अनोखी शैली ने सबको मंत्र-मुग्ध कर दिया था। वाराणसी से प्रकाशित दैनिक पत्र 'आज' के अनुसार काव्य-पाठ करने वाले हिन्दी के प्रतिनिधि कवियों में 'नेपाली' को सर्वश्रेष्ठ माना गया। बिहार के सीमांत जिले (भारत देश का भी) बेतिया में ११ अगस्त १९११ को जन्मे, यौवन के द्वार पर पग रख रहे, इस किशोर कवि ने अपनी प्रतिभा से जो कमाल किया था, उससे काव्य-जगत चमत्कृत हो गया था।
इस कवि सम्मेलन के पश्चात इसी वर्ष पुनः प्रयाग में 'द्विवेदी-मेला' लगाया गया था। इसमें आयोजकों ने नेपाली जी को पर्याप्त अवसर दिया। नेपाली ने अपनी रचनाओं से यहाँ धूम ही मचा दी। श्रोतागण तो जैसे उनके दीवाने हो गए। निराला, बच्चन, प्रेमचंद, दिनकर, शास्त्री,जैनेंद्र कुमार, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, वृंदावन लाल वर्मा जैसे कवि-साहित्यकार उनके प्रशंसकों में सम्मिलित थे। निराला जी तो उन्हें अपने साथ ही लेते चले गए। १९३३ में लगभग सात महीने तक नेपाली जी निराला के निकट सान्निध्य में रहे। 'सुधा' के संपादन में भी उनका सहयोग किया और एक निष्ठावान छोटे भाई के समान विनत होकर उनसे बहुत कुछ प्रसाद पाया। निराला ने ही उन्हें 'नेपाली' उपनाम दिया था। इसके पूर्व वे 'गोपाल बहादुर सिंह' थे। 'जन्माष्टमी' के दिन जन्मे थे। इसीलिए माता-पिता ( सरस्वती देवी तथा रेल बहादुर सिंह) ने पुत्र का नाम 'गोपाल' (गोपाल बहादुर सिंह) रखा था।
१९३४ में नेपाली का प्रथम काव्य-संग्रह 'उमंग' का प्रकाशन हुआ। यह एक तेजस्वी-मनस्वी युवा के हृदय-उमंग की ही अभिव्यक्ति भर नही थी,और न ही प्रेम और श्रींगार के मोहक-उत्तेजक भाव और प्रकृति के चित्रण भर, बल्कि इसमें ज्ञान-गंभीर विषयों, शोषित-पीड़ितों, नारी-वेदना और राष्ट्रीयता के भी स्वर थे। कवि परतंत्र भारत की पीड़ा से भी आहत था। इस पुस्तक के 'चित्र' नामक अपने गीत में कवि ने जैसे संपूर्ण भारत का मार्मिक चित्र ही खींच डाला;
रोता भाग्य हमारा रुककर टेढ़ी कड़ी लकीरों में।
चित्र हमारे वैभव का है नग्न उदास फ़क़ीरों में।
जेलों में खुल गए हमारे मंदिर, मस्जिद, गिरजा अब,
सुन लो प्रभु की नम्र वंदना लोहे की ज़ंजीरों में।
लटक रहा है सुख कितनों के आज खेत के गन्नों में,
भूखों के भगवान खड़े है, दो-दो मुट्ठी अन्नों में।
कर जोड़े अपने घर वाले हमसे भिक्षा माँग रहे,
किंतु देखते उनकी क़िस्मत हम पोथी के पन्नों में।
नेपाली की प्रथम काव्य-पुस्तक ने ही, जो उनकी २३ वर्ष की अवस्था में ही प्रकाशित हो गई थी, उन्हें देश के शीर्षस्थ कवियों में प्रतिष्ठित कर दिया। यह किसी चमत्कार से कम न था। किंतु यह चमत्कार उनकी अद्भुत काव्य-कल्पनाओं और परिपक्व ज्ञान-वृद्ध भाव-भूमि के कारण हुआ था। इसके पश्चात १९३४ में 'पंछी', १९३५ में 'रागिनी', १९४४ में 'नीलिमा', 'पंचमी' और 'नवीन' तथा १९६२ में 'हिमालय ने पुकारा' का प्रकाशन हुआ।
१९४४ में प्रकाशित उनके ६ठे काव्य-संग्रह 'नवीन' के पश्चात सातवें संग्रह की प्रतीक्षा हिन्दी-जगत को १८ वर्ष तक करनी पड़ी। यह नेपाली के जीवन में उठे उथल-पुथल और एक अलग प्रकार के संघर्ष की दुःखदाई कथा है, जिसने नेपाली की जवानी को लूट लिया। 'मेरी दुल्हन सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा' के कवि को नभ के सितारों ने नही फ़िल्म की 'मायानागरी' ने लूट लिया। यह कथा भारत की माया नगरी 'मुंबई' की माया-कथा है। १९४४ में मुंबई (तब बम्बई) में आयोजित 'कालिदास-महोत्सव' में अपने काव्य-पाठ से नेपाली ने आम-श्रोताओं का ही नही अनेक फ़िल्मी हस्तियों का दिल जीत लिया था। फ़िल्म-निर्माण संस्था 'फ़िल्मिस्तान' के स्वामी श्री शशीधर मुखर्जी उनके ऐसे भक्त हुए कि उन्हें अपनी फ़िल्मों के लिए गीत लिखने के लिए जिद्द कर बैठे। उन्होंने बहुत प्रकार से अनुनय-विनय कर नेपाली को फ़िल्मों में गीत लिखने के लिए राज़ी कर लिया। यहीं से नेपाली के जीवन में एक नया मोड़ आ गया। सृजन के विषय फ़िल्मों की माँग हो गई। १९४५ में उनकी पहली फ़िल्म 'मज़दूर' के गीतों के लिए उन्हें बंगाल फ़िल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। उनकी साहित्यिक-प्रतिभा-युक्त कवित्त्वपूर्ण गीतों ने शीघ्र हीं फ़िल्मी गीतकारों में उन्हें अग्र-पांक्तेय कर दिया। उनके गीतों ने हिन्दी फ़िल्मों को हिन्दी में संस्कारित किया था और उन लोगों का उत्तर बना था, जो यह समझते थे कि हिन्दी में फ़िल्मों के लिए अच्छे गीत नही लिखे जा सकते। नेपाली ने, 'नवरात्रि', नज़राना, शिवभक्त', ख़ुशबू', 'शिवभक्त', तुलसीदास', 'बेगम', 'नाग पंचमी', 'सफ़र', हर हर महादेव', शिकारी', 'गौरी पूजा', लीला', वीर राजपूतानी', गज़रें', 'सती मदालसा', सती नाग कन्या', जय भवानी' आदि फ़िल्मों के लिए चार सौ से अधिक गीत लिखे।
नेपाली ने अपने गीतों से हिन्दी फ़िल्मों का बड़ा उपकार किया, किंतु उनकी साहित्य-सेवा अवश्य कम पड़ गई। यदि वे फ़िल्मों में नही गए होते तो हिन्दी साहित्य का भंडार और दीर्घकाय हुआ होता और संभवतः माया-ठगिनी से वे बच भी जाते, जहां की अव्यवस्थित, व्यसनी और असंयमित जीवन ने उनका स्वास्थ्य छीन लिया था। वे भारत-चीन युद्ध के कुछ पहले माया-नगरी से मुक्त हो पाए। उसी दौरान उन्होंने 'हिमालय ने पुकारा' का प्रणयन किया। जो देश-भक्ति और राष्ट्रीयता उनके किशोर-मन को रंजित किया करती थी, पुनः चौगुने उत्साह से प्रस्फुटित हुई थी। देश के वीर सैनिकों के उत्साह-वर्द्धन तथा उनके पराक्रम को बल देने के लिए, उन्होंने गीतों की झड़ी लगाती। उन्होंने चालीस करोड़ के तत्कालीन भारत का आह्वान करते हुए कहा;-
हो जाए पराधीन नही गंग की धारा।
गंगा के किनारों को शिवालय ने पुकारा।
शंकर की पुरी,चीन ने सेना को उतारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।

जागो कि बचाना है तुम्हें मान सरोवर।
रख ले न कोई छीन के कैलाश मनोहर।
लेले न हमारी यह अमरनाथ धरोहर,
उजड़े न हिमाचल तो अचल भाग्य हमारा।
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।---
पूरे भारत को झकझोर कर जगानेवाली यह लम्बी कविता १९५९ में लिखी गई थी, जिसे लेकर नेपाली पूरे भारत में अलख जगाते रहे। इसीलिए उन्हें भारत का 'वन मैन आर्मी' कहा गया। नेपाली ने अपने 'एकल काव्य-पाठ' से पूरे देश में लोकप्रियता के पूर्व के सभी कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया।
किंतु यही लोकप्रियता उनके गले की फाँस भी बन गई। अनेक 'बड़े लोग' उनके अपार यश-प्रतिष्ठा से विदग्ध हो रहे थे। कोई सीधे सन्मुख तो नही होता था, किंतु उनके मार्ग में रोड़े खड़े किए जाते रहे। उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण पुरस्कार नही मिला। उनके समय के अनेक साहित्यकारों को विभिन्न पुरस्कार और पद्म-सम्मान भी मिले, किंतु उन्हें नही। यह उन्होंने कभी विदित नही होने दिया, किंतु उनके हृदय में कहीं न कहीं यह कसक ताउम्र बनी रही। उन्होंने दिनकर जी को लिखे अपने एक पत्र में अपनी पीड़ा का संकेत अवश्य किया था। उन्होंने लिखा कि - भारत की सरकार ने मुझे पद्म-सम्मान नहीं दिया, किंतु जब-जब 'पेंकिंग रेडियो' मुझे भारत का 'वन मैन आर्मी' कहते हुए, पानी पी-पी कर कोसता है, तो मुझे लगता है कि मुझे अनेक पद्म-सम्मान प्राप्त हो गए"।
नेपाली स्वाभिमानी और सच्चे अर्थों में राष्ट्रभक्त कवि थे। उन्होंने 'स्वाधीन कलाम' को ही अपना धन और शक्ति माना था। 'मेरा धन है स्वाधीन कलम' नामक अपने गीत में उन्होंने न केवल अपनी चारित्रिक विशेषताओं का बल्कि एक 'कवि' के गहन-भावों को अभिव्यक्ति दी और कलम की महिमा का बखान भी किया किया। उन्होंने कहा;-
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम।
मेरा धन है स्वाधीन कलम  !
तुझ सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता।
ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता।
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम !
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से।
आदत न रही कुछ लिखने की, निंदा-वंदन ख़ुदगर्जी से ।
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन क़लम !
नेपाली यह मानते थे कि संसार में जितनी भी क्रांतियाँ हुई, उनका बीज वपन लेखनी से हुआ। इसीलिए उन्होंने अपने एक गीत में कहा - हर क्रांति कलम से शुरू हुई, सम्पूर्ण हुई/ चट्टान ज़ुल्म की कलम चली तो चूर्ण हुई/ हम कलम चला कर त्रास बदलने वाले हैं। हम कवि हैं इतिहास बदलने वाले हैं"
अफ़सोस कि इतिहास बदलने वाले उस काव्य-प्रतिभा का संपूर्ण इतिहास आज तक नही लिखा जा सका। हिन्दी साहित्य से छिज रहे गीति-धारा को बचाने वाले इस महान कवि की मृत्य भी उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नही रही, बल्कि उनके जीवन-संघर्षों की भाँति ही दुखदाई और स्तब्ध करने वाली सिद्ध हुई। १६ अप्रैल १९६३ को कहलगाँव आए थे। यहीं शारदा पाठशाला में उनका काव्य-पाठ आयोजित था। लगभग पूरी रात श्रोताओं के आग्रह पर गा-गा कर अनेक गीत सुनाए। 'हिमालय ने पुकारा' के लगभग सभी गीत गाए। यह उनकी अंतिम काव्य-संध्या थी। अविराम भ्रमण, रात-रात भर काव्य-पाठ, अनियमित दिनचर्या ने उनके स्वास्थ्य को और ख़राब कर दिया था। १७ अप्रैल १९६३ की सुबह वे स्वयं को कुछ अस्वस्थ पा रहे थे। पर नहीं ठहरे। साहेबगंज-भागलपुर एक्सप्रेस पर सवार हो गए। कुछ ही देर बाद तबीयत और बिगड़ने गई। 'एकचारी स्टेशन' पर कवि की साँस उखड़ने लगी। लाखों हृदयों पर राज करने वाले उस अत्यंत लोकप्रिय कवि के पास उस समय कोई अपना नही था। एक अज्ञात साधु ने अपने कमंडल से गंगा जल डाला, और 'हो जाए पराधीन नही गंग की धारा' का गान करने वाला कवि सदा के लिए मौन हो गया।