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भारत का भविष्य : आन्तरिक विषम चुनौतियाँ


भारत का भविष्य : आन्तरिक विषम चुनौतियाँ
योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र),

अर्थमंत्री-सह- कार्रक्रम संयोजक, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पटना।
अभी हाल ही में  भारत की दशा और दिशा समझने का एक मौका मिला था। प्रो. विजयश्री व्याख्यान- माला के अंतर्गत पटना में हर वर्ष आयोजित किए जाने वाले इस वर्ष के सोलहवें व्याख्यान में एक बहुत ही समसामयिक विषय रखा गया था-
"भारत का भविष्य : आन्तरिक विषम चुनौतियाँ"। व्याख्यान भारत विकास विकलांग न्यास द्वारा भारत विकास विकलांग अस्पताल, पहाड़ी (गया रोड), पटना में आयोजित था। यों तो व्याख्यान एक जाने-माने प्रबुद्ध चिंतक का था, पर, उसपर अपने विचार रखनेवाले एक पूर्व एवं दो वर्तमान कुलपति, एक भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी, दो पूर्व तथा एक वर्तमान प्राचार्य और दो पूर्व प्राध्यापक व एक पद्मश्री-सम्मानित स्वयं-सेवी थे।
सबों ने अपने विचार बारी-बारी से रखे और सबों के विचार में उनके स्वतंत्र विचार-धारा की स्पष्ट छाप थी. लगता था सभी किसी आयोजित परीक्षा में बैठे हैं और अपने-अपने अकाट्य उत्तर दे रहे हैं!
इस व्याख्यान के अंतर्गत जो बातें उभरकर आईं, उन्हें एक प्रबुद्ध-श्रोता की तरह मैंने ग्रहण किया, वे मुझे निम्नवत् लगे:
भारत के भविष्य को हम कैसा चाहते हैं?
(1) काम्य भारत,
(2) संभाव्य भारत और
(3) आशंकित भारत।

1. काम्य भारत  का स्वरूप है धर्म-अध्यात्म-धुरीन भारत का विकास, जो विवेकानंद का पक्ष है।
2.संभावित भारत का स्वरूप है-समृद्ध-शक्तिशाली -उन्नत भारत, जो भारत का स्वप्न है!
3.आशंकित भारत- चतुर्दिक संकटापन्न भारत, जिसका मूल कारण है "खंडित स्वतंत्रता"।

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर (14 अगस्त, 1947 को) दिये गये अपने संदेश में महर्षि अरविन्द ने कहा था,"इस खंडित स्वतंत्रता को भारतजन और कांग्रेस शाश्ववत ना मान लें। अगर वैसा हुआ तो भारत सदा संकटों, बाहरी आक्रमण और आंतरिक कलह से जूझता रहेगा'!

तो आज खण्डित स्वतंत्रता का प्रश्न उत्पन्न हो गया है। दिल्ली के अल्पसंख्यक बहुल एक भाग में हो रहे प्रदर्शन को देखें! क्या यह आन्दोलन खण्डित स्वतंत्रता की ओर जाता नहीं दिख रहा है? अन्य जगहों पर भी लगाये जा रहे नारे हम सुन रहे हैं - 'भारत तेरे टुकड़े-टुकड़े होंगे!' 'हमें चाहिये आजादी'. अत: हमें विचार करना चाहिए कि हम भारत के लोग कैसे भारतीय रह सकें? कहा जाता है कि मैक्समूलर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी थे, फिर भी उन्होंने भारत की आत्मा वेदों, जो सनातन धर्म की मूल धुरी हैं,  का अध्ययन, चिंतन किया। वैसे देखा जाय तो भारत की पहचान सनातन धर्म से है। भले विरोधी-विचार-धारावाले इसे नहीं मानें। अगर  विश्व पर एक नजर दौड़ाई जाय तो अधिकतर जगहों से यह धारा खत्म हो रही है। भारत के चुनावों में यह स्थिति देखी जा सकती है।  पर लोग विश्वास नहीं कर पा रहे हैं.
इस्लाम का उद्देश्य दुनिया को मोहम्मद साहब का अनुयायी बनाना है। इसी कड़ी में कुछ इसाई धर्मवाले भी धर्म को फैलाने में सहायक हो सकनेवाले कार्य कर रहे हैं।
देश पर 60-65 वर्ष तक राज करनेवाली कांग्रेस पार्टी भी अतिवादियों की ओर ही अग्रसर हो रही है, अत: वह शनै:-शनै: क्षीण होती जा रही है।

तब भारतीय चिंतन क्या है?
हम जोड़ने में विश्वास रखते हैं, तोड़ने में नहीं!
पर, हमारे सद्गुणों में विकृति आ रही है।
दूध पिलाना एक सद्गुण है, पर सांप को दूध पिलाने से तो विष ही बनेगा!

आज चुनाव भी जाति आधारित हो गया है। संविधान लागू होने  के बाद कुल जातियों की संख्या 1100 थी जो आज 3000 है। अत: माण्दंड भी उसी ओर खिसक गया है।

भारतीयता की समस्या तब खड़ी होती है, जब हमने जो देखा, हमारे ऋषियों ने जो देखा, वह ज्ञान समाज को नहीं जा रहा हो। भारत के लोग आत्मसौंदर्य की बात करते रहे हैं, पर वह बात आज नहीं हो रही है।
लोग जैनधर्म और बौद्धधर्म की बात कर अपने को अलग दिखाने की कोशिश करते हैं, पर दोनों धर्मों की धारा सनातन धर्म की धारा के ही अनुरूप है।
वैसे राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है। हम राष्ट्र की भावना जन-जन तक लायें! इसे अपने घर से ही शुरू करें- (Charity begins at home)!

हममें कर्तव्य बोध होना चाहिए और यह तभी होगा, जब हम धर्म पर चलेंगे, क्योंकि धर्म और कर्त्तव्य दोनों एक दूसरे के द्योतक हैं। इसीलिए भारत के संविधान का विरोध करने का अधिकार किसी को नहीं है। हमारी भावना तो शुरू से ही है:-
'आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स: पण्डित:।'
पर, हम अपने विचारों में वचाववादी (Defensive) न हों, अपितु विरोध के निमित्त विरोध की प्रक्रिया का तत्काल प्रतिकार करें!
 तब प्रश्न उठता है कि भारत को आंतरिक चुनौती देने के लिए सुविधा/सहायता कहाँ से मिल रही है! सत्याग्रह की अवधारणा तो गांधीजी की सोच से फलीभूत हुई थी, पर आज उसकी कोई परिधि नहीं है। दिल्ली का सत्याग्रह क्या पर-पीड़ा से कम था!  भले इसने राष्ट्रीयता की एक लहर वहाँ भी चलती दिखा दी है, जहाँ वंदेमातरम बोलना-गाना निषिद्ध माना जा रहा था वहाँ हाथों में तिरंगा, ढाल रूप में ही सही,  इन आन्दोलनकारियों के हाथ में दिखता है। यह कहना कि हमें आजादी चाहिए तो किससे आजादी, भारत के संविधान-सम्मत  निर्णय से या समरस समाज से? हम विश्व पर नजर डालें तो भारत बढ़ता दिख रहा है और दूर दिखती इस बात को हमें आत्मसात कर लेना चाहिए कि इकीसवीं सदी के मध्य भारत विश्व-पटल पर आगे होगा।

आज विश्व में लड़ाई की बात उभरती है तो हमें यह दृश्य देखने को मिल रहा है कि चीन भी आंख से आंख मिलाकर बात नहीं कर सकता है और पाकिस्तान तो सभी युद्ध हमसे हार ही चुका है, उसी परिदृश्य में भारत की यह स्थिति है कि वह आंख से आंख मिलाकर बात करने की स्धति में हो गया है।
भारत में एक सख्त सरकार है, इसीलिये नित्य सुधार के कानून सामने आ रहे हैं। नागरिकता संशोधन के बारे में जो हाय-तोबा मचायी जा रही है, उसके बारे में तो  शीर्षस्थ नेता/सक्षम अधिकारी कह चुके हैं कि यह कानून पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश से आये वहाँ के अल्पसंख्यक पीड़ितों को नागरिकता देने के लिए है, किसी की नागरिकता छीनने के लिए नहीं! तब यह डर अकारण क्यों? यहां की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द के चलते भारत से भागकर पड़ोसी देश में कौन गया? भारत के इस सूत्र-वाक्य - 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' पर सभी भरोसा करते हैं। इसका विरोध वही कर रहे हैं जिनकी राजनीतिक-दुकान चल नहीं पा रही है। फलत: वे घृणा फैला रहे हैं।

एक भारत-श्रेष्ठ भारत की कल्पना आज हम अपने जीवन में पिरो रहे हैं। पर, हम जो स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, उसका आधार विदेशी विचार-धारा है। हम धर्म, संस्कृति, संस्कार की पढ़ाई नहीं कर रहे हैं। गांधी, पटेल, विवेकानंद, अरविंद आदि देश के अनगिनत महापुरुषों के बारे में पढ़ाई नहीं कर रहे हैं। यह टुकड़े-टुकड़े गैंग की विचारधारा आई कहाँ से? जो दूसरों को दबाकर आगे बढ़ना चाहते हैं, वही इसके पोषक माने जा सकते हैं।

जनसंख्या का संतुलन आज बहुत बिगड़ गया है।  जो संविधान लागू होने के समय 3.5-4.00% थे वे अब 22 % हो गये हैं और खुली सभा में अपने को 25 से 35% होने का दावा भी करते हैं। यही भावना उन्हें औरों पर हावी होने को प्रेरित करती है। वैसे सरकार को समभाव लेकर चलना होता है और अपने दृढ़ निश्चय के कारण एक-से-एक उपलब्धि यहां प्राप्त हो रही है। मंगलयान की सफल यात्रा और चन्द्रमा को छू लेने की यात्रा बताती है कि हमारा अंतरिक्ष-विज्ञान-कार्यक्रम कितना आगे बढ़ गया है। वह दिन दूर नहीं जब 'इसरो' दुनिया का सबसे बड़ा 'स्पेस-स्टेशन' होगा।

आशंका तो हमारे जीवन के हर पग पर है, पर हमारा उद्देश्य 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का है। हमने 70 वर्ष  से चले आ रहे संविधान के 370, 35ए अनुच्छेद को सफलतापूर्वक हटा दिया। बहुत दिनों से जमी प्रथा तीन तलाक को संविधान-सम्मत  निर्णय से काई की तरह खुरचकर अलग कर दिया।

दृढ़ इच्छाशक्ति से, लगातार अच्छा करते रहने के ध्येय से भारत आगे बढ़ रहा है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के सुरक्षा-परिषद् में स्थान पा जायेगा!

विश्वभर में जनसंख्या बढ़ रही है, भारत में ही नहीं चीन, जापान में भी। लेकिन, भारत में 1950 के मुकाबले आज शहरों की संख्या गाँव के मुकाबले बढ़ रही ही है। पहले यह  अनुपात 20:80 का था तो अब 40:60 के लगभग का हो गया है। इस बदलते अनुपात से जीवनस्तर में तो कुछ सुधार होगा, पर जीवन जीने के लिए आवश्यक अनाज उत्पादन में कमी हो जा सकती है और प्रदूषण भी बढ़ सकता है।

भारत की छवि विदेशों में भी कहीं-कहीं गलतरूप से प्रस्तुत की जाती है। कहीं सपेरों का देश तो कहीं दीन-हीनों का। लेकिन स्वामी विवेकानंद ने विश्व-पटल पर हमारे कठोपनिषद कथन को उद्घोषित किया था:-
'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्याया दुर्गपथस्तत्कवयो वदन्ति।'      अर्थात,
छूरे की धार पर चलना कठिन है जितना,
है उतना ही कठिन, उनके मार्ग पर चलना।
उठो! जागो! श्रेष्ठों को पहचानो! जानो!
ऐसा है कवियों का कहना।।

भारत की हमारी सहभागिता दु:ख-सुख की है। 'उन्नत होगा भारत, स्वाभिमान रहेगा जबतक।'
हम सद्गुण की विकृति से तो जूझ रहे ही हैं, हमारा सोचने का ढर्रा भी पाश्चात्य हो गया है। आज अगर हम किसी बात की अच्छाई पर कुछ लिखते हैं तो वह पाठकों का ध्यान अपनी ओर उतना नहीं खींच पाता, जितना किसी विकृति के बारे में लिखने से होता है।

किसी देश का भविष्य उसके भूत और वर्तमान पर निर्भर करता है। भूत से अगर सीख नहीं ली जायेगी तो वर्तमान में अच्छा कार्य कैसे होगा और भविष्य कैसे सुधरेगा।

अंग्रेजों ने हमारी कमियों के चलते यहाँ अपना प्रभुत्व कायम कर लिया। इसीलिए हमें अपनी कमी दूर करके हममें राष्ट्रीयता जगानी होगी। अभी हमारी राष्ट्रीयता सुसुप्ता अवस्था में है। राष्ट्रभक्ति के लिए राष्ट्रीयता की पढ़ाई अवश्य होनी चाहिए।
आज एक चर्चा जोरों पर है कि लिब्रैलाईजेशन, प्रायवेटाइजेशन और ग्लोबोलाइजेशन की ओर भारत जा रहा है, पर सशक्त सरकार इन चुनौतियों से डरती नहीं है- एक मजबूत सरकार के साथ भारत का विकास हो रहा है। यहाँ पर यह भी ध्यान देने की बात है कि गणतंत्र के 70 साल बाद भी अभी आरक्षण चल रहा है, जिससे देश की प्रतिभाओं का क्षरण हो रहा है।

हर रोज हम भविष्य की कल्पना करें कि शास्त्र और शस्त्र दोनों का मार्ग हमारे लिए खुला रहे!
स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है - शास्त्र और शस्त्र दोनों हमें चाहिए। यही पौराणिक काल से भी चला आ रहा है। हमारे योद्धा भी शास्त्र निपुण होते थे। कोरोना महामारी तालाबंदी की अवधि में चल रहे धारावाहिकों से यह हमारे मानस-पटल पर सहज आ जा रहा है कि -  रामायण के राम, लक्ष्मण, भरत, हनुमान तथा महाभारत के कृष्ण-अर्जुन, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि  अनेक इसके उदाहरण थे।

आज अगर भारत अपने को शास्त्र और शस्र दोनों से मजबूत कर रहा है और विश्व-स्वास्थ्य की ओर अपना कदम बढ़ा रहा है, तो वह समय की पुकार है और विश्वके परिप्रेक्ष्य में एक आवश्यकता भी।
इत्यलम्!