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हमारे वैदिक संस्कार

हमारे वैदिक संस्कार

                 योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे पी मिश्र)
15 अप्रैल, 2020 से विवाह-लग्न शुरू हो गया है. विवाह भी एक संस्कार है. हमारे शास्त्र विहित सोलह संस्कार (षोड़स संस्कार) कमो-वेश सभी हिन्दू जातक के जीवन को प्रभावित करते ही हैं, तब साधन-संपन्नता के अनुरूप उसमें थोड़ा फेर-बदलकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करने की बात सोच लोग संतुष्टि भी कर लेते हैं। 
इसी कड़ी में जब जातक (बालक-बालिका) कुछ समझने-बूझने लायक हो जाता है तो उसका विद्यारंभ या अक्षरारंभ कराया जाता है और यह एक उत्सव के रूप में बसंत-पंचमी के दिन मनाया जाता है। इस प्रकार बसंत-पंचमी वैदिक संस्कारों के अंतर्गत सभी छात्र-छात्राओं के जीवन से जुड़ जाती है, क्योंकि इसी दिन विधि-विधानपूर्वक उनका अक्षरारंभ कराया जाता है। 
 इस दिन सरस्वती-पूजा का भी विधान है।  
विद्यारंभ या अक्षरारंभ संस्कार में नई पौद (संतान) को खल्ली छुलाई जाती है और किसी पंडित जी से बच्चे का हाथ पकड़वा कर बच्चे से लिखवाया जाता है: 
'ओनामासीधंग',  
जिसकी शब्दकोशीय परिभाषा यों है:-
"ओनामासी - संज्ञा स्त्री० [सं० ऊँ नमःसिद्धम्] 
अक्षरारंभ । उ०—पढ़ो मन ओनामासी धंग ।—कबीर श०, पृ० ९ । विशेष—बच्चों से पाठ आरंभ कराने से पहले 'ओम् नमः सिद्धम्' कहलाया जाता है । इसका रूप ओंनामासींध और ओंनामासींधंग भी मिलता है । जैसे, — २१ साल तक घर में रहे ओंनामासीघं । बाप पढ़े न हम ।" हंसी-मजाक में लोग कह बैठते हैं : 'ओनामासीधंग, गुरुजी चितंग'।"
लेकिन यह संस्कार जातक के जीवन और अबोध मन से जुड़ जाता है, क्योंकि यह उसके जीवन का लगभग प्रथम संस्कार होता है।

इस वर्ष बसंत पंचमी के दिन में मुझ से भी एक नजदीकी के बच्चे के हाथों से अक्षरारंभ कराने का आग्रह किया गया। उम्र में बहुत बड़े होने के नाते मुझमें कर्तव्य-बोध जग गया और बड़े हर्षपूर्वक मैंने यह कार्य स्वीकार किया और संपन्न कराया।

बसंत पंचमी के ही दिन आज से लगभग 17 वर्ष पहले मैंने अपने एक चचेरे बड़े भाई के पोते को इसी भांति अक्षरारंभ कराया था, जो अभी अपने छात्र-जीवन के मेडिकल कॉलेज में है। मेरे जीवन का भी यह प्रथम गुरुजी का कार्य था। जाहिर है कि अपने लगाये पौधे को बढ़ता देख किसका मन हर्षित नहीं होगा? और इसबार का यह दूसरा।

आज मुझे अपने खल्ली छूने की बात भी याद आती है, जब गांव के ही पिता तुल्य एक शिक्षक ने मेरा हाथ पकड़कर स्कूल की गोबर से लिपी जमीन पर ही मुझसे 'ऊ' या 'ऊँ' लिखवाया था। 
पर, आज तो संसाधन इतने बढ़ गये हैं कि सभी अपने बच्चे/बच्चियाँ का,बड़े धूम-धाम से, अक्षरारंभ एक उत्सव के रूप में करा सकते हैं!
सच है जमाना बहुत बदल कर आगे बढ़ गया है।

अक्षरारंभ
अक्षरारंभ या विद्यारंभ सोलह संस्कार के अंतर्गत 10 वीं कड़ी पर है। यह संस्कार अन्य संस्कारों की तुलना में बहुत अधिक संसाधन की अपेक्षा नहीं रखता है, पर प्रत्येक जातक के जीवन का यह प्रथम संस्कार होने के चलते, वह इसे जीवन भर याद रखता है और सदा मोल देता है।

वैसे नामकरण, अन्नप्रासन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, उपनयन, विवाह संस्कार भी धूम-धाम से मनाया जाता है पर, कुछ संपन्न लोग अन्य जीवन-संस्कार भी समारोहपूर्वक मना कर अपनी इच्छापूर्ति कर लेते  हैं।
अंत्येष्टि संस्कार तो वैदिक रीति से संपन्न होता ही है। पर, यहाँ भी उत्तराधिकारी को पद और उसकी आर्थिक स्थिति के अनुसार ही सकते में डाला जाता है!

आयें इन सोलह संस्कारों के बारे में कुछ और जानकारी ले लें!
प्राचीन काल में प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढ़ती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।

नामकरण के बाद चूड़ाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा़ संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।

विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोड़ा -बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।

गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है।

एवर्तमान में कुछ संस्कारों का ही पालन किया जा पा रहा है!

चूड़ाकर्म

चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है।

विद्यारंभ

विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यो में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यो का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। वैसे, अन्नप्राशन के बाद ही शिशु बोलना शुरू करता है; इसलिये अन्नप्राशन के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।

कर्णवेध

हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।

यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।


यज्ञोपवीत

यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आधात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है।

यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।

यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र इस प्रकार है।
वाजसनेयि ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत धारण मंत्र :-
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
छन्दोग ब्राह्मण के यज्ञोपवीत धारण मंत्र :-
॥ ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनह्यामि॥ 

वेदारंभ

ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं। इस संस्कार को जन्म से 5 वें या 7 वें वर्ष में किया जाता है। अधिक प्रामाणिक 5 वाँ वर्ष माना जाता है। यह संस्कार प्रायः वसन्त पंचमी को किया जाता है।

विवाह

प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक एवं युवती में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उन्हें गार्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक/युवती परिणय सूत्र में बंधते थे। पर. आजकल तो शिक्षा-समाप्ति और जीविका का आधार सुनिश्चित हो जाना ही अधिकांश में मापदण्ड माना जा रहा है.

हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।

अन्त्येष्टि

अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।'

अंत्येष्टि संस्कार हिन्दू धर्मावलंबियों में शव के अग्नि-दाह का है, जिससे पंच-भूतों से बना यह शरीर, यथा -'क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा | पंच तत्व रचित यह अधम शरीरा॥, ' पंच तत्व में विलीन हो जाय और धरती पर कोई प्रदूषण नहीं फैले; जबकि इसके विपरीत अनेक धर्मावलंबियों में मृत-शरीर को मिट्टी में गाड़ने का रिवाज है, जिससे कई दिनों क्या, महिनों तक वातावरण दूषित रहता है. 
'कोरोना महामारी' के दौरान प्राप्त अनुभवों से मृत-शरीर को जला देने की प्रक्रिया ही उपयुक्त मानी जा रही है. क्योंकि अमेरिका में मृतकों की संख्या अधिक हो जाने से कब्रों में उन्हें अंतिम-स्थान देने में अत्यंत कठिनाई हो रही है और तबतक के लिए लंबी नालीनुमा खाई खोदकर उसमें उन्हें दफनाया जा रहा है, जो स्थिति कारुणिक तो है ही, भयावह भी है!
हमारे वेद का भी कथन है :
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्। कृतोः स्मर कृतं स्मर क्रतोः स्मर ।।
   - यजुर्वेद ४०/१५.
'यह जीवन (अस्तित्व) वायु-अग्नि आदि (पंचभूतों) तथा अमृत (सनातन आत्म चेतना) के संयोग से बना है | शरीर तो अंतत: भस्म हो जानेवाला है | (इसलिए) हे संकल्पकर्त्ता! तुम परमात्मा का स्मरण करो, अपने सामर्थ्य का समरण करो और जो कर्म कर चुके हो, उनका स्मरण करो!'

आयें हम अपने जीवन, संतति-परिजनों के जीवन को वैदिक संस्कार अपनाकर संस्कारवान बनायें!
पक्के घड़े को को तो हमलोग नया स्वरूप दे नहीं सकते, पर कच्चे घड़े को तो दे ही सकते हैं!

'जन्मना जायते शूद्र: संस्कारेण द्विज उच्यते!'
    -  मनुस्मृति, प्रथम अध्याय/११०/१११

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- योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे. पी. मिश्र) अर्थमंत्री-सह-कार्यक्रम संयोजक,  बिहार-हिन्दी- साहित्य-सम्मेलन, पटना 800003: 
निवास: मीनालय, 60, केसरीनगर, पटना 800024.